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सूखे की आहट

-हरिवंश- भूख से मरे फागुनी मांझी की विधवा गौरी : अब खुद की मौत की प्रतीक्षा. दाने-दाने को तरस गयी हैं गौरी के पेट की अंतड़ियां. हाल ही में जब अखबारनवीसों का दल इनसे मिला, तो भूख के मारे मुंह से पूरे शब्द भी बाहर नहीं आ पा रहे थे.धनगांव (लेस्लीगंड प्रखंड) के ढिबरी मांझी […]

-हरिवंश-

भूख से मरे फागुनी मांझी की विधवा गौरी : अब खुद की मौत की प्रतीक्षा. दाने-दाने को तरस गयी हैं गौरी के पेट की अंतड़ियां. हाल ही में जब अखबारनवीसों का दल इनसे मिला, तो भूख के मारे मुंह से पूरे शब्द भी बाहर नहीं आ पा रहे थे.धनगांव (लेस्लीगंड प्रखंड) के ढिबरी मांझी : पांच महीने पूर्व एक बार इनके जेहन में खुशी कौंधी थी, जब उन्हें वृद्धा पेंशन के रूप में कुछ रुपये मिले. उधर पेंशन की चिंता और इधर सूखे की मार के बीच भूखे रहने को अभिशप्त.
यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था, ‘दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? ‘युधिष्ठिर ने जवाब दिया, ‘शवों को लेकर अक्सर हम श्मशान जाते हैं, पर हमारी नियति भी ऐसी ही होगी, यह नहीं स्वीकारते.’ सचमुच दुनिया में इससे बढ़ कर दूसरा आश्चर्य क्या हो सकता है? बुद्ध, जैन, सिख, हिंदू, मुसलमान, ईसाई सभी मत बार-बार कहते हैं, दुखी-दीन-हीन और असहाय की सेवा-मदद से बढ़ कर कोई दूसरा मानव धर्म नहीं है. अमीर या गरीब, संपन्न या सुविधा विहीन और बलहीन की नियति (अंतिम शमशान यात्रा) तो तय है, फिर भी दुनिया में स्पर्धा, हिंसक भाव है, एक-दूसरे के प्रति नकारात्मक सोच है. इस कारण बेचैनी, दुख और कलह है, पर आज कोई बुद्ध नहीं है कि करुणा और ममत्व की धारा बहे, कोई गांधी नहीं है, जिसकी राजनीति या सोच में समाज का ‘वह’ अंतिम आदमी हो, जो भयावह सूखे के प्रकोप से रांची और आस-पास में दम तोड़ रहा है या दम तोड़ने के कगार पर पहुंच गया है.

कोई जयप्रकाश भी नहीं है कि गिरिडीह-पलामू-हजारीबाग या रांची या दूसरे प्रभावित क्षेत्रों में पहुंच कर वह संकल्प ले कि हम भूख दुखी-दीन-हीन और असहाय की सेवा-मदद से बढ़ कर कोई दूसरा मानव धर्म नहीं है. अमीर या गरीब, संपन्न या सुविधा विहीन और बलहीन की नियति (अंतिम शमशान यात्रा) तो तय है, फिर भी दुनिया में स्पर्धा, हिंसक भाव है, एक-दूसरे के प्रति नकारात्मक सोच है. इस कारण बेचैनी, दुख और कलह है, पर आज कोई बुद्ध नहीं है कि करुणा और ममत्व की धारा बहे, कोई गांधी नहीं है, जिसकी राजनीति या सोच में समाज का ‘वह’ अंतिम आदमी हो, जो भयावह सूखे के प्रकोप से रांची और आस-पास में दम तोड़ रहा है या दम तोड़ने के कगार पर पहुंच गया है.

कोई जयप्रकाश भी नहीं है कि गिरिडीह-पलामू-हजारीबाग या रांची या दूसरे प्रभावित क्षेत्रों में पहुंच कर वह संकल्प ले कि हम भूख से किसी को मरने नहीं देंगे. लेखकों-पत्रकारों में न अज्ञेय हैं और न फणीश्वरनाथ रेणु. जितेंद्र बाबू (पूर्व – विशेष संवाददाता टाइम्स ऑफ इंडिया) भी सक्रिय नहीं हैं. न कुमार सुरेश जी जैसे अधिकारी हैं और न 1966-67 जैसे राजनेता. तो क्या भूख से जूझते या मरते असहाय लोगों, वृद्धों, बालकों या महिलाओं के लिए कुछ नहीं होगा? यह यक्ष सवाल है.

पर इस घोर निराशा के माहौल में भी उम्मीद जगती है, यह देखकर कि समाज के 90 फीसदी लोगों में ममत्व, मानवीय भाव और करुणा है. इसी गंगोत्री से नयी धारा प्रस्फुटित हो सकती है, बशर्ते एक सही शुरुआत हो. राजनीतिक दल तो ‘श्मशान की राजनीति’ की राह पर पिछले कई दशकों से चल रहे हैं. इस कारण राजसत्ता जीवित है, लोकसत्ता निष्क्रिय, बिखरी और निष्प्रभावी. भूखे, सूखे व अकाल के खिलाफ यह लोक ताकत ही लड़ सकती है. ईमानदार और प्रतिबद्ध अफसर आगे बढ़ कर मोरचा संभालेंगे और हर दल के अंदर हाशिये पर धकेल दिये गये प्रतिबद्ध और ईमानदार कार्यकर्ता अपने-अपने दलों में भूख और दुर्भिक्ष के खिलाफ रणनीति पर नयी बहस शुरू करेंगे. व्यवस्था और राजनीति के पतन का रोना रोनेवाला मध्यवर्ग अपनी चहारदीवारी से निकल कर इस मानवीय अभियान में लगे और छोटानागपुर के लेखक-कवि-पत्रकार और सचेत लोग अपने-अपने दायरे से ऊपर उठ कर दुर्भिक्ष के खिलाफ इस अभियान में लगें, तो एक नयी तसवीर बन सकती है.

युवकों, विद्यार्थियों, वकीलों, अध्यापकों और महिलाओं की सक्रिय साझीदारी की पूंजी ही इस मानवीय विपदा से निबट सकती है. नकारात्मक सोच, पौरुषहीन आलोचना और आक्रामक तेवर हमें कहीं नहीं ले जा सकते. गांधी जी इस देश की राजनीति में 1916 में सक्रिय हुए. इसके पूर्व दो वर्षों तक भारत घूमे. 1921 से पांच वर्षों बाद पहला आंदोलन किया, दूसरा बड़ा आंदोलन 1930 और तीसरी बार 12 वर्षों बाद 1942 में ‘करो या मरो’ का नारा दिया. इन तीन बड़े आंदोलनों के बीच उन्होंने लगातार रचनात्मक काम किये. आलोचना आसान है, पर सृजन कठिन. छोटानागपुर में जो भूख-प्यास से लड़ रहे हैं, यह महज उनके लिए ही अग्नि परीक्षा का दौर नहीं है.

बल्कि जो चुप हैं, खामोश हैं, सक्षम हैं और तटस्थ हैं, उनकी भी परीक्षा की घड़ी है. अगर संपन्न, सक्षम और सजग लोग इस प्राकृतिक विपदा में भी खामोश रह जायेंगे, तो मान लीजिये कि भयावह अंधेरा ही सामने है. घोर अंधेरे में टिमटिमाते दीये की तरह ही आज प्रथम चरण में ‘छोटानागपुर सूखा राहत कमिटी’ के लोग शाम पांच बजे गांधीनगर कॉलोनी में राहत कार्य के लिए मदद मांगने जायेंगे. इस यात्रा में सभी के साहचर्य से ही सफलता मिलेगी.

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