-हरिवंश-
हमारी अपेक्षा नहीं है कि पुलिस महानिदेशक पत्रकार सतीश को जानें. पत्रकार, झारखंड के लगभग तीन करोड़ आबादी में से, उस मूकदर्शक 99 फीसदी में से आते हैं, जिसे ‘सामान्य आदमी’ के नाम पर राजनीतिज्ञ, अफसर और समाज का प्रभु वर्ग (रूलिंग इलीट) सत्ता चलाने की दुहाई देता है, कसमें खाता है, दिखावा करता है, पर उस आम आदमी के हित या पक्ष में कुछ नहीं करता.
इसलिए आम आदमी के साथ, अपराधी जो हरकतें कर रहे हैं, वह झारखंड पुलिस महानिदेशक को बताने के लिए पत्रकार सतीश की हम चर्चा कर रहे हैं. इस नाम का उल्लेख इसलिए भी कि सुरक्षा घेरे में रहनेवाले, व्यवस्था पोषित वर्ग सामान्य लोगों से कट जाता है. उनकी पीड़ा, दुख-दर्द और जीवन संघर्ष से शासक वर्ग का रिश्ता नहीं रह जाता.
इन शासकों की दुनिया भिन्न है. यह जीवन की पहेली है कि जिस माहौल-परिवेश में आप जीते हैं, आपका मानस वैसा बनता है. इसलिए इस देश और झारखंड का शासक वर्ग, आम जनता की दैनंदिन चुनौतियों को नहीं जानता. भावना के स्तर पर महसूस भी नहीं करता. इसलिए एक पत्रकार की पीड़ा को हम सार्वजनिक बना रहे हैं.
पत्रकार सतीश, प्रभात खबर से जुड़ा है. रिपोर्टिंग करता है. खासतौर से न्यायालय की खबरें लाता है. अपने काम के प्रति अत्यंत चौकस. गंभीर-शालीन. क्रिकेट का उम्दा खिलाड़ी रहा है. युवा उत्साह-ऊर्जा के बावजूद हमेशा सीखने को तैयार. वह उन उल्लेखनीय पत्रकारों में से भी नहीं है, जो पत्रकारिता की आभा में संबंध-सरोकार बनाते हैं और लाभ लेते हैं.
गुजरे रविवार को रात सवा दस बजे वह अपनी पत्नी के साथ विधानसभा के पास से गुजर रहा था. मोटरसाइकिल छीनने के क्रम में उसे गोली मार दी गयी. हम यह भी नहीं कहना चाहते कि जिस दिन मंत्रियों-अफसरों और शासक वर्ग के लोगों, उनके बेटे-बेटियों को गोली मारी जायेगी (ईश्वर न करे किसी के साथ ऐसा हो), तब शासक समझेंगे कि किसी स्वस्थ-प्रसन्न युवा को अकारण, बिना किसी अपराध के गोली लगने पर क्या होता है? उसके मित्र-परिवार-स्वजन किस पीड़ा-मन:स्थिति से गुजरते हैं?
झारखंड के शासकों-पुलिस महानिदेशक से सीधा सवाल है कि ‘राज्य’ नामक संस्था के गठन के मूल में है, सुरक्षा करार. राज्य के अन्य फर्ज-काम अलग हैं. राजसत्ता का प्राथमिक, बुनियादी और सबसे पवित्र फर्ज है, जनता को सुरक्षा देना. हम झारखंड के पुलिस महानिदेशक को याद दिलाना चाहते हैं कि ‘राज्य’ नामक संस्था के सबसे ‘विजवुल (प्रत्यक्ष) विभाग’ आप (पुलिस) हैं, जिन्हें जनता को सुरक्षा देनी है. और यह विभाग जनता के साथ कैसा भेदभाव करता है. जिस जनता से वसूले अप्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष कर से यह विभाग चलता है, उसकी प्राथमिकता सूची में वह ‘जनता’ कहां है?
कल प्रभात खबर (24 मई) में पेज छह पर एक खबर छपी है, 22 दिनों में आठ बड़ी घटनाएं. रांची और आसपास सात मामलों में पुलिस को कोई सुराग नहीं है, एक मामले में षड्यंत्र करनेवालों की भनक है, पर हत्यारे फरार हैं. अगर शासक वर्ग का कोई व्यक्ति या उसका स्वजन, गंभीर अपराध का शिकार हो जाये, तो क्या पुलिस अफसर इसी रफ्तार से अपराधियों को ढूढ़ेंगे?
बिल्कुल नहीं, क्योंकि लोकतंत्र की बुनियादी परिभाषा को हमारे शासकों ने बदल दिया है. अब लोकतंत्र में जनता की सरकार, जनता के लिए, जनता द्वारा चुनी गयी नहीं होती, बल्कि प्रभावशाली लोगों की सरकार, प्रभावशाली लोगों के लिए, जनता द्वारा चुनी गयी होती है.
किसी सामान्य नागरिक या सतीश जैसे पत्रकार को इसलिए गोली मारी जाती है, क्योंकि सुरक्षा तो शासक वर्ग को मिल रहा है, आमलोगों को नहीं. यही कारण है कि झारखंड में मंत्रियों व विधायकों की सुरक्षा में 2182 पुलिसकम की तैनाती की गयी है. इन सबकी सुरक्षा पर प्रतिमाह 1.56 करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं. मुख्यमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री और 12 मंत्रियों की सुरक्षा में एसटीएफ के 150 और जिला पुलिस के 550 पुलिसकम तैनात किये गये हैं. झारखंड में एक वीआइपी की सुरक्षा पर प्रतिमाह तीन लाख का खर्च हो रहा है. 14 वीआइपी लोगों पर प्रतिमाह 42 लाख रुपये का खर्च. 68 विधायकों की सुरक्षा में 1632 पुलिसकम तैनात किये गये हैं. सभी विधायकों को वाइ श्रेणी की सुरक्षा दी गयी है. एक विधायक की सुरक्षा पर प्रतिमाह 1.68 लाख रुपये का खर्च हो रहा है. झारखंड के सभी विधायकों की सुरक्षा पर प्रतिमाह 1.14 करोड़ रुपये का खर्च हो रहा है और झारखंड की करीब तीन करोड़ आम लोगों की सुरक्षा? एक पुलिसकम, झारखंड के 967 लोगों की सुरक्षा संभाल रहा है. यानी प्रति व्यक्ति एक जनता की सुरक्षा पर मात्र सात रुपये खर्च हो रहा है.
जनता से कर वसूल कर नेता-अफसर सुरक्षित हैं. और तो और जिस नक्सल प्रभावित इलाकों के लिए एसटीएफ का गठन किया गया, करोड़ों रुपये उसके प्रशिक्षण पर खर्च किये गये, उसे चुपचाप नेताओं की सुरक्षा के काम में लगा दिया गया. एक वीआइपी की सुरक्षा पर प्रतिमाह तीन लाख का खर्च और झारखंड के एक आम नागरिक की सुरक्षा में महज सात रुपये खर्च? यह विषमता पर 15 करोड़ की लागत से महंगी लक्जरी गाड़ियां इन नेताओं की सुरक्षा में खरीदी गयी. वह भी पुलिस आधुनिकीकरण के पैसे से. समाज के कितने सफेदपोश को पुलिस गार्ड दिये गये हैं, इसकी सूची जारी होनी चाहिए. वैसे भी ‘सूचना के अधिकार’ कानून बनने के बाद ये सूचनाएं देनी ही पड़ेंगी.
यह तो झारखंड के नेताओं की बात हुई. अफसरों की सुरक्षा देखिए. पुलिस अफसरों की सुरक्षा में 497 पुलिसकर्मी तैनात हैं. इनकी सुरक्षा पर करीब 34.79 लाख प्रतिमाह खर्च हो रहे हैं. डीजीपी को 1/4 का स्कॉट मिला है. दो बॉडीगार्ड और 4/2 का हाउस गार्ड, कुल 17 पुलिसकर्मी डीजीपी को सुरक्षित रखते हैं. एडीजी को दो बॉडीगार्ड और 4/2 का हाउस गार्ड. कुल 12 पुलिसकर्मी प्रति एडीजी. राज्य में कुल तीन एडीजी हैं. इस प्रकार सभी की सुरक्षा में 36 पुलिसकर्मी तैनात हैं. एक आइजी को एक बॉडीगार्ड और 1/4 का हाउस गार्ड मिला है. एक आइजी की सुरक्षा में कुल छह पुलिसकर्मी हैं. कुल 11 आइजी हैं. इनकी सुरक्षा में 66 पुलिसकर्मी तैनात हैं. एक डीआइजी को एक बॉडीगार्ड व 1/4 का हाउस गार्ड मिला है. एक डीआइजी की सुरक्षा में छह पुलिसकर्मी हैं. कुल 20 डीआइजी यहां है. उनकी सुरक्षा में 120 पुलिसकर्मी हैं. एक एसपी (जिलों की) को दो बॉडीगार्ड, 1/4 का स्कॉट मिला है. 1/4 का हाउस गार्ड. 22 एसपी की सुरक्षा में कुल 264 पुलिसकर्मी तैनात हैं.
प्रशासनिक अफसरों की सुरक्षा में 353 पुलिसकर्मी लगे हैं. इनकी सुरक्षा पर 24.71 लाख का खर्च प्रतिमाह हो रहा है. 41 वरिष्ठ आइएएस की सुरक्षा में 41 पुलिसकर्मी लगे हैं. कमिश्नर व डीसी को मिला कर 26 लोगों की सुरक्षा में 312 तैनात हैं.
पर राज्य की राजधानी के थानों में पुलिसकर्मी नगण्य हैं. जनता की सुरक्षा में होमगार्ड के जवान हैं, पर नेताओं की सुरक्षा में एसटीएफ के जवान तैनात हैं. राजधानी रांची में कुल 44 थाने, ओपी व टीओपी हैं. इसमें हवलदार के 128 पद स्वीकृत हैं. पर है, 36 हवलदार. सिपाही के 548 पद स्वीकृत हैं, पर हैं सिर्फ 250 सिपाही. आंक़ड़ों के मुताबिक राजधानी के 24 थाने व ओपी में एक भी हवलदार नहीं है. 11 थाने, ओपी व टीओपी ऐसे हैं, जिनमें एक भी सिपाही का पदस्थापन नहीं किया गया है, जबकि 16 में एक, दो या तीन सिपाहियों का पदस्थापन किया गया है.
इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि व्यवस्था चलानेवाले मंत्री और अफसर किस तरह सुरक्षा पा रहे हैं, जिन लोगों के नाम पर व्यवस्था चलायी जा रही है, जिनसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कर वसूल कर यह व्यवस्था चलायी जा रही है, उनकी सुरक्षा की वस्तुस्थिति क्या है?
अगर सुरक्षा की चौकस व्यवस्था रहती, तो शायद सतीश या ऐसे आम लोगों के खिलाफ अपराधी इतना साहस नहीं दिखाते. शासक वर्ग की कीमत पर जनता असुरिक्षत छोड़ी गयी है और अपराधी यह जानते हैं. इसलिए वे शासक वर्ग के लोगों को अमन-चैन से रहने देते हैं, असुरक्षित जनता को तबाह करते हैं.
पर ये तथ्य, सवाल और निवेदन डीजीपी शिवाजी महान कैरे से क्यों? भारतीय परंपरा मानती है कि मनुष्य चौथेपन में जीवन के सच के निकट पहुंचने लगता है. डीजीपी के आध्यात्मिक रूझान-संतों से मिलने की खबरें छपती रहती हैं. वह जून तक रिटायर भी होनेवाले हैं, इसलिए जीवन के अनुभवों ने उन्हें ‘सच’ के करीब पहुंचा दिया है, यह मान लेना चाहिए. इसलिए उनसे निवेदन है कि इस सर्विस के अंतिम दिनों में एक सच और साहस का कदम उठा कर अपना जीवन सार्थक करें. आनेवाली पीढ़ी के प्रेरणास्रोत बनें. सिर्फ यह कदम उठा कर कि नेताओं-मंत्रियों को एसटीएफ की सुरक्षा नहीं मिलेगी, अफसरों की सुरक्षा में भारी कटौती होगी, अपराधीनुमा नेताओं के बाडीगार्ड हटाये जायेंगे और इस तरह उधर से निकले ये सभी पुलिस के जवान असुरक्षित आम जनता की सुरक्षा में लगेंगे. सिर्फ यह एक कदम उठे, फिर देखिए शासक वर्ग की प्रतिक्रिया? पर यह करने के लिए साहस, संकल्प और जिद चाहिए.