-हरिवंश-
बुद्ध पर रजनीश का प्रवचन पढ़ रहा था. वह आस्कर वाइल्ड की कहानी से बात शुरू करते हैं. कहानी है कि एक ‘आधुनिक कामयाब’ इंसान मरा. जिंदगी में जो अलभ्य माना जाता है, वह सब पाया. बड़ा ओहदा, अपार धन, ऐश्वर्य और वह सब कुछ, जो मनुष्य कामना करता है.
वह ईश्वर के सामने पहुंचा. पर परमात्मा नाराज थे. बोले, तुम ‘पापों’ की गठरी हो. तुम्हारे द्वारा किये पापों के क्या जवाब हैं, तुम्हारे पास? वह इंसान बोला, जो कुछ करना था, सो किया. पर मैं किसी पाप के प्रति उत्तरदायी नहीं हं. ईश्वर को आश्चर्य हुआ. उन्होंने इंसान से पूछा, तुमने हत्याएं की. बलात्कार किये, धन-संपदा के लिए लोगों को मारा, तुमने व्यभिचार किया. वह इंसान बोला, आप ठीक कह रहे हैं. यह स्वीकारते हुए इंसान के चेहरे पर, न शिकन थी, न बेचैनी. न अपराध बोध. वह निश्चिंत था.
परमात्मा ही विचलित होने लगे. मन-ही-मन कहा कि यह अपराधी तो निराला है.
नरक भेजे जाने के आदेश से भी नहीं डरता. उलट कर कहता है, तुम (ईश्वर) मुझे (इंसान) नरक नहीं भेज सकते. क्योंकि मैं जहां भी रहा, नरक में ही रहा. अब मुझे कहां भेजोगे? मैं नरक के सिवाय कुछ जानता ही नहीं?ईश्वर पसीने से तर-बतर. क्या करें? ऐसा पेंचीदा मामला पहले नहीं आया. उलझन में ईश्वर बोले कि तब स्वर्ग भेजता हूं. वह इंसान बोला, नामुमकिन है. मैं स्वर्ग नहीं जा पाऊंगा. ईश्वर फिर हतप्रभ! पूछा, तुम कौन हो? क्या मेरे ऊपर भी कोई है, जो स्वर्ग भेजने का फैसला करे?
आस्कर वाइल्ड की कहानी का नायक (मरा इंसान) ईश्वर को जवाब देता है कि तुम (ईश्वर) से बड़ा मैं हूं. क्योंकि मैं सुख की कल्पना ही नहीं कर सकता और हर सुख को दुख में बदल लेने की कला में मैं पारंगत-माहिर हूं. तुम (ईश्वर) मुझे स्वर्ग न भेज सकोगे. भेजोगे, तो स्वर्ग को नरकबना दूंगा. मैंने सुख का कभी सपना नहीं देखा. सुख की कल्पना मैं कर ही नहीं सकता. तुम मुझे स्वर्ग कैसे भेजोगे?
और कहते हैं, मामला, आज भी वहीं अटका है. ईश्वर तय नहीं कर पा रहा कि उसे कहां भेजें? नरक में तो यह इंसान रहा ही है, स्वर्ग भेज नहीं सकता, क्योंकि वहां भेजने का कोई रास्ता नहीं है. यह इंसान नरक में ही जीता है, जहां पहुंचता है, वही नरक बन जाता है.
मशहूर कथाकार आस्कर वाइल्ड की यही कहानी है. पर यह कहानी एक इंसान की नहीं, सभी इंसानों की है. हम जो चाह रहे हैं, वैसा ही समाज, संसार और दुनिया बना रहे हैं. हम ‘इंसानों’ ने सुख और सपने की क्षमता खो दी है. हम नरक बनाने में दक्ष हो गये, इंसान हैं. हमें कोई स्वर्ग नहीं दे सकता. स्वर्ग न तो दान में मिलता है, न कृपावश. उसे अर्जित करना पड़ता है. श्रम करना पड़ता है. सृजन का संघर्ष द्वेष, अक्षमता, ईर्ष्या के संघर्ष से कठिन है. चुनौतीपूर्ण है. खासतौर से झारखंड में कुछेक वर्षों से हो रही घटनाओं के संदर्भ में इस कहानी को समझना जरूरी है. नवंबर 2000 में ‘झारखंड’ स्वर्ग बनाने के लिए मिला था. हम उसे नरक में बदलने के लिए जी-जान से लगे हैं.
गौर करिए आज झारखंड में कौन बसता है? मूलवासी, सदान, बिहारी, कुरमी, आदिवासी, वैश्य, हिंदू-मुसलमान, ईसाई, अगड़े-पिछड़े, सवर्ण, दलित, व्यवसायी, पंजाबी, वगैरह-वगैरह. कई बार लगने लगा है कि क्या यहां कोई इंसान भी बसता है? या सिर्फ जाति, गोत्र, उपजाति, समूह, गुट, समुदाय? विचारों से झारखंड के राजनेता अलग-अलग दलों में हैं, पर जाति-धर्म-कौम के सवाल पर निर्ल्लजतापूर्वक एक साथ बैठते हैं.
रोज बंद! सदान बंद, बिहारी बंद, व्यवसायी बंद, आदिवासी बंद, मुसलमान बंद, हिंदू बंद, दलित बंद…..और न जाने कितने बंद. झारखंड बनने के लगभग पांच वर्षों में 180 दिन (छह माह) बंद के नाम रहे हैं. हर संगठन दुहाई लोकतंत्र की देता है, पर बहुसंख्यक (जिसमें हर धर्म-कौम के लोग हैं) लोगों की आवाज कोई नहीं सुनना-जानना चाहता.
रोज-रोज किसी जाति, उपजाति, धर्म या समुदाय के नाम पर गिरोहबंदी-गोलबंदी हो रही है. सभाएं हो रही हैं. खुलेआम निर्ल्लजतापूर्वक गलत तथ्य-आंकड़े पेश किये जा रहे हैं. दो दिनों पहले रांची में वैश्य सम्मेलन हुआ. उसमें एक प्रमुख वैश्य वक्ता ने कहा कि देश में 16 करोड़ से अधिक आबादी वैश्य समुदाय की है? अब कोई पूछे, इस आंकड़े का स्रोत क्या है? अब जनगणना जाति के आधार पर तो हो नहीं रही. इस वक्ता के अनुसार व्यवसायी 20 फीसदी कर का भुगतान करता है, पर उसे विशेष सुरक्षा नहीं. 20 फीसदी का यह आंकड़ा भी विवादास्पद है, पर मान भी लें, तो क्या एक सामान्य आदमी विशेष सुरक्षा का हकदार नहीं है? वैश्य सम्मेलन में राज्य के एक सांसद (राजद) ने यह भी कहा कि राज्य में वैश्य समाज एकजुट हो जाये, तो रघुवर दास झारखंड के अगले मुख्यमंत्री होंगे. इस बैठक में शामिल ‘कथित समाजवादी रामचंद्र केसरी’ ने फरमाया कि वैश्य समुदाय को कोई आगे नहीं बढ़ने देना चाहता. यह केसरी से कौन पूछे कि जिस डॉ लोहिया के नाम लेने का आप नाटक करते हैं, वे तो जाति तोड़ो के अभियान में लगे थे, नया समाज-इंसान बनाने के लिए.
अब भाजपा के शैलेंद्र महतो फरमाते हैं कि रघुवर दास छत्तीसगढ़ी होकर यहां मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं. श्री महतो के अनुसार जिस बिहार से झारखंड बंट कर निकला, उस बिहार का कोई ‘बिहारी’ मुख्यमंत्री पद की बात नहीं कर रहा, पर रघुवर दास सपना देख रहे हैं. कुछ दिनों में श्री महतो यह सवाल भी उठा सकते हैं कि झारखंड में आदिवासी मुख्यमंत्री क्यों?
यह सवाल सिर्फ वैश्यों या शैलेंद्र महतो का नहीं है. हर जाति, उपजाति, कुनबा, गोत्र में गोलबंदी हो रही है. सदान नारा लगाते हैं, जो सदान हित की बात करेगा ,वही राज करेगा, आदिवासी कहते हैं, जो आदिवासी हित की बात करेगा, वही राज करेगा. ऐसे ही नारे बिहारी, बंगाली, अगड़े-पिछड़े, मुसलमान, बनिया, व्यवसायी, बाहरी-भीतरी सब लगा रहे हैं. कोई यह नहीं कहता कि संविधान किसी जाति, धर्म, उपजाति, बाहरी-भीतरी……. वर्ग विशेष के लिए सरकार बनाने की इजाजत नहीं देता. सरकार हर जाति, धर्म, क्षेत्र, वर्ग वगैरह की समान रहनुमाई करती है. सबके लिए बराबर है. भारत में एक समान कानून लागू है. एक नागरिकता नियम है. कोई बाहरी-भीतरी नहीं है.
दो मूल सच, हर एक को समझना होगा. पहला, सहअस्तित्व का कोई विकल्प नहीं है. दूसरा, मामूली से मामूली गुट, संगठन या समाज को आप हिंसा से चुप नहीं करा सकते.सहअस्तित्व का तात्पर्य है कि हर धर्म, जाति, समूह, समुदाय, बाहरी-भीतरी को एक साथ ही मिल कर रहना पड़ेगा. 21वीं सदी के इस ‘नागरिक समाज’ का कोई विकल्प नहीं है. हर गुट या वर्ग को दूसरों के हितों का ध्यान रखना पड़ेगा. संसाधन, सत्ता, धन या भौतिक सुविधाओं पर किसी एक गुट या वर्ग का वर्चस्व नहीं रह सकता. पर हर वर्ग को मिल कर ‘गरीबों’ (चाहे वे जिस धर्म, जाति या समुदाय के हों) को प्राथमिकता देनी होगी. अंतत: मार्क्स की अवधारणा ही सही साबित होगी, दुनिया बंट रही है, सुविधाभोगियों (बुर्जुआ) और सुविधाविहीनों (गरीबों) के बीच, पर धीरे-धीरे. इसलिए आजादी के बाद प्रगतिशील नेताओं ने जाति तोड़ो का नारा लगाया. अभियान चलाया. जेपी ने 1974 में ‘जनेऊ तोड़ने’ का नारा दिया. इन अभियानों-नारों के पीछे भविष्य के आधुनिक नागरिक समाज के सपने छिपे हैं. ‘80 के बाद की जातिवादी, संप्रदायवादी, क्षेत्रवादी राजनीति ने इन सपनों को आज ढंक दिया है. अगर जातिविहीन-क्षेत्रविहीन राजनीति का दौर सफल हुआ, तो भारत हजारों टुकड़ों में बिखर जायेगा.
झारखंड में जो लोग भी अपनी-अपनी जातियों-समुदायों वर्गों-उपजातियों के लिए लड़ रहे हैं, उन्हें कुछ सवालों पर गौर करना पड़ेगा. संविधान का जो हिस्सा, जिस वर्ग के हित की बात करता है, वह संविधान को उद्धत करता है, पर वही वर्ग या जाति संविधान के जिस प्रावधान या व्याख्या से उसे नुकसान होता है, उसे गाली देता है? क्या यह दोहरा आचरण चलेगा? संविधान और न्यायपालिका की अपनी मर्यादा-गौरव है. लोग इनकी दुहाई देते हैं, पर अपने हित के खिलाफ टिप्पणी होने पर, उस मर्यादा को खंडित करने में लग जाते हैं. न्यायपालिका के निर्णय से आप असहमत हो सकते हैं, पर जजों पर टिप्पणी करने, एडवोकेट जनरल (संवैधानिक पद है) का पुतला दहन का काम कैसे जायज है? मुख्यमंत्री का पुतला दहन, राजनीतिक आंदोलन का अंग हो सकता है, पर न्यायपालिका या संवैधानिक पद एडवोकेट जनरल के साथ राजनीतिज्ञों जैसे बरताव की इजाजत कैसे दी जा सकती है? झारखंड के एडवोकेट जनरल के बारे में टिप्पणी आयी कि पंचायत चुनावों पर वह सरकार का पक्ष अदालत में बेहतर ढंग से नहीं रख सके? यह विवादास्पद टिप्पणी है. अगर अदालत का फैसला पक्ष में आया होता, तो क्या तर्क होता? याद रखना चाहिए कि ननी पालकीवाला जैसे बड़े वकील भी हर मामला जीतते ही नहीं थे.
ऐसी परिस्थितियों में धैर्य-संयम का परिचय हर कौम-समुदाय को देना होगा.यह विवाद न अदालत से निबटेगा, न सरकारों से. हर मुनष्य-कौम के वरिष्ठ लोग साथ बैठ कर कुछ अप्रिय सवालों के उत्तर क्यों नहीं ढ़ूंढ़ते? आदिवासियों के संदर्भ में यह साफ है कि वे झारखंड के पुराने बाशिंदे हैं. उनके बीच सबसे अधिक गरीब हैं. आधुनिक विकास ने बेघर, जमीनविहीन बहुसंख्यक आदिवासियों को और दयनीय बनाया है. उन्हें प्राथमिकता मिलनी चाहिए. यह उदारता हर वर्ग-समुदाय को बरतनी पड़ेगी. कुछ हद तक बरती भी है. मसलन, आदिवासी मुख्यमंत्री की परंपरा. हालांकि आदिवासियों की संख्या 27.76 फीसदी है, पर अन्य लोगों को उनके बीच से मुख्यमंत्री मानना झारखंड में एक सकारात्मक संदेश है. उसी तरह आदिवासियों को सोचना होगा कि जिन गांवों में आदिवासी हैं ही नहीं, वहां पंचायत के पद किन्हें मिले? 2000 वर्ष से अधिक समय से सदान भी यहां रह रहे हैं, यह आदिवासियों को सोचना चाहिए कि उन्हें भी बराबर का हक है. इसी तरह बाहरी, भीतरी, बिहारी, गैर-बिहारी, पंजाबी, व्यवसायी वगैरह सबको यहां संविधान समान अधिकार देता है. रहने, रोजगार और जीने के लिए. सबको साथ रहना है. इसलिए साथ बैठ कर हरेक मामले को सुलझाया जा सकता है.
एक-दूसरे के खिलाफ बयान, धमकी, एक ने बंद कराया, तो दूसरे द्वारा बंद कराने की होड़ अंतत: मूंछ की प्रतिस्पर्द्धा झारखंड को तबाह कर देगी.क्या हमारे बीच इंसान नहीं बचे, जो जाति, धर्म, समुदाय, बाहरी-भीतरी जैसे दावं-पेंच से निकल कर गरीबी, मानवीय दृष्टिकोण, संवेदना के आधार पर झारखंड के नवनिर्माण का सपना देखें?