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सुकरात की भूमिका

-दर्शक- (यह टिप्पणी 15.05.2010 की सुबह लिखी गयी. इसके बाद सूचना मिली कि भाजपा ने अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में साझा सरकार बनवाने के लिए पहल की अनुमति दी है. पर इस टिप्पणी में उठाये सवाल, भाजपा द्वारा नेता घोषित करने के बाद भी प्रासंगिक हैं) भाजपा के नये अध्यक्ष बनाये गये, नितिन गडकरी. भाजपाइयों […]

-दर्शक-

(यह टिप्पणी 15.05.2010 की सुबह लिखी गयी. इसके बाद सूचना मिली कि भाजपा ने अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में साझा सरकार बनवाने के लिए पहल की अनुमति दी है. पर इस टिप्पणी में उठाये सवाल, भाजपा द्वारा नेता घोषित करने के बाद भी प्रासंगिक हैं)
भाजपा के नये अध्यक्ष बनाये गये, नितिन गडकरी. भाजपाइयों ने माना कि अब उनका उद्धार होगा. गडकरी जी की भूमिका से भाजपा ऊर्जावान होगी. पर झारखंड में नयी सरकार के गठन में गडकरी जी की भूमिका से उनके नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठता है.

लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव के विरूद्ध उनका शब्द कमान उन्हें ही लहूलुहान कर रहा है. पर झारखंड में उनकी भूमिका, उनकी योग्यता पर सवाल उठाती है. जिस दल के वह अध्यक्ष हैं, क्या उसके काबिल हैं? गडकरी जी महाराष्ट्र में राज्य स्तरीय नेता थे. अब अचानक वह राष्ट्रीय रंगमंच पर हैं. अपने परिश्रम, प्रतिभा, दृष्टि या राजनीतिक विजन के कारण नहीं, बल्कि आरएसएस की पसंद के कारण. हां, मंत्री के रूप में महाराष्ट्र में उन्होंने उल्लेखनीय काम किया था. यही उनकी राजनीतिक थाती या पूंजी है.

झारखंड की राजनीति
फिर भी हमेशा यह स्कोप रहता है कि आदमी छोटी जगह से निकल कर संयोग से बड़ी जगह पा जाये. तब अपनी काबिलियत प्रमाणित कर दे. अपनी प्रतिभा और दृष्टि का लोहा मनवा ले. अपने काम, छवि और डायनिमिज्म से छाप छोड़े. गडकरी जी जब भाजपा के अध्यक्ष बने, तो यह विकल्प उनके पास था.

पर उनके हाल के बयानों और झारखंड के बारे में अनिर्णय की स्थिति या साफ स्टैंड के अभाव ने उनकी कार्यशैली पर ही सवाल खड़ा कर दिया है. जो पार्टी एक राज्य के बारे में तुरंत फैसला नहीं कर सकती, वह देश चलाने का दावा करती है. पूरा झारखंड दो सप्ताह से सांस रोके खड़ा है कि उसे किधर जाना है और अध्यक्ष महोदय फैसला नहीं कर पा रहे हैं.

झारखंड में नयी सरकार बनने में पेच कहां है? शिबू सोरेन को अस्थिर बनाने का कारण भी भाजपा है और नयी सरकार का रास्ता न साफ होने देने का कारण भी भाजपा ही है. एक बड़ा पेच है कि भाजपा विधायक दल अर्जुन मुंडा के साथ है. झामुमो और आजसू रघुवर दास के साथ. अब भाजपा को तय करना है कि वह अपने विधायकों की पसंद को तरजीह दे या अपने सहयोगी घटक दलों की शर्तों को तरजीह दे? दिल्ली के राजनीतिक गलियारों से मिली सूचना के अनुसार झारखंड के मौजूदा राजनीतिक संकट का गंभीर पेच यही है.
गडकरी के सामने दो विकल्प हैं. पहला कि वह अपने विधायकों की पसंद को तरजीह दें. इसके फल अलग होंगे. फिर झामुमो, आजसू को मनाना. पटाना. उनकी शर्तों को मानना. घुटने टेकना या टेकवाना, पार्टी में रघुवर दास को उनके कद के अनुसार जगह देना. ऐसी अनेक कठिन चुनौतियां हैं. दूसरा विकल्प है, घटक दलों की शर्त के आगे समर्पण. इसके भी नफा-नुकसान हैं. शायद इस रास्ते सरकार बनने में आसानी हो? तात्कालिक समाधान. क्योंकि भाजपा के विधायक या अर्जुन मुंडा पार्टी से बगावत नहीं कर सकते.

ऐसी स्थिति में पार्टी अनुशासन माननेवालों को अनुशासनबद्ध रहने की कीमत चुकानी पड़ेगी. पर इसके दूरगामी खतरे हैं. भाजपा अपनी जड़ खोद लेगी. याद करें बाबूलाल मरांडी को जगह नहीं मिली. देर-सबेर वह अपनी राह निकल गये. बाबूलाल मरांडी का अलग होना भाजपा के लिए बड़ा झटका था. अर्जुन मुंडा गुट भी धीरे-धीरे पार्टी से भावात्मक रूप से टूटेगा. भावात्मक टूट, असल टूट या फूट की नींव है.

इस तरह दोनों विकल्पों के अलग-अलग नफा-नुकसान या लाभ-हानि हैं. पर मूल सवाल है कि जो भाजपा खुद को ‘पार्टी विद डिफरेंस’ (भिन्न पार्टी) मानती है, क्या उसके नेतृत्व के पास कोई तीसरा रास्ता नहीं है? गडकरी की चिंता होनी चाहिए कि झारखंड के भाजपाई क्यों कुरसी खेल के पीछे पागल हैं? क्यों सत्ता के सवाल पर भाजपा बंटी है? अगर पार्टी में किसी गुट को बहुमत है, तो अल्पमत उसे क्यों नहीं स्वीकारता? क्या पार्टी में लोकतंत्र है? क्यों पार्टी एक तीसरा रास्ता नहीं चुन सकती? विपक्ष की प्रखर भूमिका निभाने के लिए क्यों तैयार नहीं है, झारखंड भाजपा?

क्यों वह हर कीमत पर कुरसी चाहती है. दीनदयाल उपाध्याय का स्वर अलापनेवाले जानते हैं कि वह कभी संसद नहीं गये. 1985 के आसपास लोकसभा में भाजपा के दो सांसद रह गये थे. इस तरह कोई पार्टी अपने विचार, प्रतिबद्धता या उसूलों के प्रति समर्पण से आगे बढ़ती है, आसान रास्ते या शार्टकर्ट से नहीं. अब गडकरी जी को यह तय करना है कि उनकी पार्टी झारखंड में किस रास्ते चलेगी? अपने विधायकों की इच्छा या अपने सहयोगी दलों की शर्तों के अनुसार या किसी तीसरे रास्ते?

यह भी सही है कि झारखंड में तरह-तरह की ताकतें सरकार बनाने-बिगाड़ने के खेल में लग गयी हैं. कांग्रेस के सूत्रों के अनुसार ही उनके एक प्रमुख नेता को मधु कोड़ा कार्यकाल के बड़े दलाल एंड कंपनी ने सरकार बनाने-बिगाड़ने के खेल में उतारा है. ऐसी अनेक ताकतें सक्रिय हैं. वे होंगी. क्योंकि सत्ता का रस उन्हें चाहिए. पैसे और दलाली के बल सत्ता, बनवाने और बिगाड़ने के खेल में ये ताकतें माहिर हैं. उनकी जड़ें गहरी हैं. इनके हाथ में पूंजी है.

ये ताकतें देश में राज चलाने में निर्णायक हो गयी हैं. झारखंड जैसे राज्य में सरकार बनवाना-बिगाड़ना इनके दायें-बायें का खेल है. पर झारखंडी जनता को जगना होगा. चुनावों में प्रभात खबर ने मतदाताओं की जागरूकता का बड़ा अभियान चलाया था. उन दिनों मतदाता-जागरूकता अभियान में जारी एक परचे में प्रभात खबर ने सुकरात का एक प्रसंग उद्धृत किया था. रवींद्र केलेकर की पुस्तक ‘पतझर में टूटी पत्तियां’ से. झारखंडियों के लिए पुन: वह प्रसंग प्रभात खबर दोहराना चाहेगा. ताकि हर नागरिक समझ सके कि झारखंड में राजनीतिक संकट के मूल में क्या है?

सुकरात लोगों से अकसर पूछता, तुम्हारा जूता टूट जाये तो उसे जोड़ने के लिए तुम किसके पास जाओगे?मोची के पास. लोग जवाब देते.मोची के पास ही क्यों? बढ़ई के पास क्यों नहीं?क्योंकि जूते बनाने-जोड़ने का काम मोची का है, बढ़ई का नहीं. लोग जवाब देते.
अच्छा, मान लो, तुम्हारी मां बीमार है, तो दवाई के बारे में तुम किसकी सलाह लोगे?डॉक्टर की. लोग जवाब देते.डॉक्टर की ही क्यों? वकील की क्यों नहीं?
क्योंकि दवाई की जानकारी डॉक्टरों को ही होती है, वकीलों को नहीं.सुकरात इस प्रकार, लोगों से एक के बाद एक प्रश्न पूछता था और उनसे जवाब पाने की कोशिश करता था. फिर हंसता हुआ कहता था, ‘सज्जनों, जूता सिलवाना हो तो तुम मोची के पास जाते हो. मकान बनवाना हो तो मिस्त्री की मदद लेते हो. फर्नीचर बनवाना हो तो बढ़ई को काम सौंपते हो. बीमार पड़ने पर डॉक्टरों की सलाह लेते हो. किसी झमेले में फंस जाते हो, तब वकीलों के पास दौड़ते हो, क्यों? ये सब लोग अपने-अपने क्षेत्र के जानकार हैं, इसीलिए न? फिर बताओ, राजकाज तुम ‘किसी के भी’ हाथ में कैसे सौंप देते हो? क्या राजकाज चलाने के लिए जानकारों की जरूरत नहीं होती? ऐरे-गैरों से काम चल सकता है?’
स्वराज्य में हमने लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभाओं में ‘किसी को भी’ भेज दिया, ‘किसी को भी’ मंत्री बना दिया. हमने उनका अनुभव वगैरह कुछ नहीं देखा. देखी सिर्फ उनकी जाति या उनका धर्म. नतीजा-मौजूदा सरकार से पहले की सरकार अच्छी थी, उससे अच्छी उससे पहले की थी, यह कहते-कहते अंत में सबसे अच्छी अंगरेजों की थी, इस नतीजे पर आ पहुंचते हैं.
लोकतंत्र को बचाना हो तो किसी-न-किसी को समाज में सुकरात की भूमिका निभानी ही होगी. लोगों से प्रश्न पूछ-पूछ कर उन्हें सजग करने का काम करना होगा. हो सकता है, लोगों को वह असहनीय मालूम हो और लोग उसे जहर पिलाने के लिए उद्यत हो जायें.
लेकिन यह कीमत हमें स्वराज्य और लोकतंत्र को बचाने के लिए चुकानी ही होगी.यह प्रसंग पढ़ कर झारखंड की मौजूदा स्थिति में एक नागरिक की भूमिका क्या हो, यह स्वत: स्पष्ट है.

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