-हरिवंश-
पिछले दिनों ‘शिक्षा’ पर आयोजित एक सेमिनार में एक वरिष्ठ आइएएस ने ‘इंटरवेन’ किया. झारखंड स्थित नेतरहाट स्कूल का ‘मॉडल’ बताया, कहा कि इस स्कूल की शिक्षा ने मुझे संस्कार दिये. नये ढंग से गढ़ा. जाति, संप्रदाय, वर्ग के घेरे से बाहर निकाला. मनुष्य ने मनुष्य के रिश्ते का मर्म समझाया. दृष्टि दी.
आश्रम (हास्टल) की सफाई खुद करनी पड़ती थी. बरतन धोने पड़ते थे. अपने जूठे बरतन नहीं, बल्कि दूसरों के. बाथरूम साफ करना, कपड़े धोना. ऐसे अनेक काम, जो परिवार में रहते हुए आज एक-दूसरे के लिए करते हैं. इस प्रक्रिया में नया परिवार बनता है. जहां जाति, धर्म, विषमता पीछे छूट जाते हैं. जातिविहीन, वर्गविहीन और धर्मनिरपेक्ष आधुनिक भारत की नींव ऐसे ही स्कूलों से पड़ती है. नये संस्कार ऐसे ही ‘आश्रमों’ में गढ़े जा सकते हैं.
सुन कर अच्छा लगा. जिस राज्य (झारखंड) से हूं, वहां एक ऐसा विद्यालय है, जो ‘मॉडल’ बन सकता है. देश के कई शहरों में ‘नेतरहाट ओल्ड ब्वायज एसोसिएशन’ है. दिल्ली से लेकर रांची तक. नजदीक से जानता हूं. कुछेक बैठकों में गया भी हूं. आमतौर से इस स्कूल से निकले लोगों के अलग संस्कार झलकते हैं. कोई किसी भी पद पर हो, पर रिश्ते ‘आश्रमों’ के ही. स्वावलंबी और आत्मविश्वास से भरे हुए.
1990-91 में नित्रनाथ मिश्र एसपीजी के चीफ थे. वह भी नेतरहाट स्कूल में पढ़े हुए हैं. प्रधानमंत्री की यात्राओं में प्राय: साथ रहते थे. उनसे भी नेतरहाट के संस्कारों के बारे में सुना. देखता था कि उन स्कूल के जूनियर छात्रों से भी महत्वपूर्ण पद पर रहते हुए वह कैसे मिलते थे. बीच में कोई दीवार नहीं, बल्कि ‘सीनियर’ के प्रति ‘जूनियर’ का एक स्वाभाविक सम्मान. पश्चिमी ‘हाय’, ‘हेलो’ के संस्कारों से दूर.
स्कूल के इतिहास में दिलचस्पी हुई. सुना 1954 में बना. श्रीबाबू मुख्यमंत्री थे. बद्री बाबू शिक्षा मंत्री, एलपी सिंह, मुख्य सचिव, जगदीशचंद्र माथुर सचिव. इन लोगों ने परिकल्पना की. हिंदी माध्यम से एक आवासीय विद्यालय बने. दो एक्सपर्ट बुलाये गये. मेयो कॉलेज के एफजी पियर्ड और दून स्कूल के चार्ल्स नेपियर. स्कूल बना. चार्ल्स नेपियर पहले प्राचार्य बने.
दूसरे प्राचार्य बने, जीवननाथ धर. दून स्कूल में आये थे. वह 10 साल रहे. फिर बीके सिन्हा बने. वह अंतिम परमानेंट प्राचार्य थे. 1975 तक. पिछले 28 सालों में एडहॉक तरीके से वहां प्राचार्य बनाये गये. इससे स्कूल का माहौल बदला. पटना की राजनीति ने और बिगाड़ा. पिछले दो वर्षों में एडमिशन बंद था. बिहार से कितने छात्र और झारखंड से कितने छात्र दाखिला पायेंगे, इसे लेकर विवाद था. अब सुलझा है.
तर्क, विवेक और समझ को आघात पहुंचानेवाला है, यह तथ्य. क्या हम ऐसे विवाद तुरंत हल नहीं कर सकते? प्राचार्य नहीं ढूढ़ सकते? एक ‘सेंटर ऑफ एक्सलेंस’ बना नहीं सकते. पर जो है, उसे बचाने-संजोने की क्षमता भी हमारे अंदर नहीं, जो मुल्क या समाज कुछ कर गुजरने का सपना पालते हैं, वे ऐसी संस्थाओं का विस्तार फैलाव करते हैं. समयबद्ध.
माओ ने कहा था कि हजार फूलों को एक साथ खिलने दो. एक नेतरहाट की सुगंध देश-दुनिया में है, तो ऐसे कुछ और स्कूल क्यों नहीं बनाये जा सकते? ऐसे स्कूल ही झारखंड-देश-समाज का चेहरा बदल सकते हैं. नये संस्कार के साथ नयी पीढ़ी गढ़ सकते हैं. नया मानस रच सकते हैं. झारखंड की राजनीति में ऐसे सवालों पर विवाद नहीं होता, क्योंकि हमारे विधायक-राजनेता-शासक ‘विजन’ खो चुके हैं. एकाध हैं, तो वे अकेली आवाज हैं. क्या हम पराजित मानस के लोग हैं? सृजन-रचना हमारे खून में नहीं है. चुनौतियां स्वीकारने का सामर्थ्य-पौरुष नहीं है. अपने अकर्म की पीड़ा भोगनेवाले हम वाचाल कौम हैं. पीठ पीछे आलोचना, कर्महीन संवाद और सपना शून्य समाज, सिर्फ एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा करने की प्रवृत्ति.
1994 से प्राय: हर वर्ष भोपाल जाना होता है. हर बार कहीं-न-कहीं कोई नयी संस्था उभरती दिखाई देती है. ‘सेंटर ऑफ एक्सलेंस’ के रूप में. जुडिशियल एकेडमी, लॉ स्कूल, स्पोर्ट्स, अथॉरिटी ऑफ इंडिया, भारत भवन वगैरह-वगैरह. पर हमारे पास जो है, वह भी गंवाना चाहते हैं.
जब व्यवस्था अप्रभावी हो जाये. तब समाज को आगे आना चाहिए. झारखंड के कोने-कोने से प्रभावी आवाज उठे, प्रयास हो कि नेतरहाट का गौरव तो लौटे ही. ऐसे कुछेक और विद्यालय खुलें. इसी माहौल, संस्कृति और परिवेश के स्रोत के रूप में.