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राजनीतिक दलों के लिए मुद्दा नहीं है पलामू-गढ़वा

-हरिवंश- संदर्भ: पलामू-गढ़वा अकाल (4) डालटनगंज से सरहुआ के रास्ते में न कहीं कोई तालाब मिला न ही हरियाली, सरहुआ से रामगढ़ मौजा जाने के रास्तें एक तालाब दिखा, यह सुखद आश्चर्य था. पता चला यह बांध और तालाब आजाद हिंदुस्तान में निर्मित नहीं हुए. महज 700 रुपये में अंगरेजों के जमाने में इस बांध […]

-हरिवंश-

संदर्भ: पलामू-गढ़वा अकाल (4)
डालटनगंज से सरहुआ के रास्ते में न कहीं कोई तालाब मिला न ही हरियाली, सरहुआ से रामगढ़ मौजा जाने के रास्तें एक तालाब दिखा, यह सुखद आश्चर्य था. पता चला यह बांध और तालाब आजाद हिंदुस्तान में निर्मित नहीं हुए. महज 700 रुपये में अंगरेजों के जमाने में इस बांध के ठेकेदार के मुंशी के रूप में काम करनेवाले बैजनाथ जी अब भी जीवित हैं. इस तालाब के कारण आसपास खेती हो रही है. हरियाली है. अंगरेजों के सृजन का फल अब भी जीवित है, पर आजाद हिंदुस्तान में पलामू में सिंचाई-कुएं आदि के मद पर खर्च 1400-1500 करोड़ रुपये से हुए सृजन दिखाई नहीं देते.
गांवों के बड़े-बुजुर्ग झल्लाकर कहते हैं कि इससे तो अच्छे अंगरेज थे. तब उनकी बात समझ में नहीं आती थी. अब यह गुत्थी स्पष्ट नजर आ रही हे. आजादी के साथ ही शायद नये निर्माण का सपना खत्म हो गया. बंबई में पत्रकारिता करने के दौरान का एक संस्मरण अचानक स्मृति में उभरता है. यह प्रसंग जेपी के एक गहरे गैर राजनीतिक मित्र ने 1978 में बंबई में सुनाया था.
1951-52 के आसपास की घटना है. जेपी अस्वस्थ थे. बंबई में अपने मित्र रूपारेल के पाली हिल स्थित आवास पर ठहरे थे. जिस कमरे में ठहरे थे, उसकी खिड़की समुद्र की ओर खुलती थी. सामने अरब सागर का न खत्म होनेवाला क्षितिज था. शाम का वक्त था, सूर्यास्त की बेला. जेपी गुपचुप समुद्र में उतरते सूर्य का मोहक दृश्य देख रहे थे. अचानक रामवृक्ष बेनीपुरी जी मिलने आये. जेपी ने चहक कर कहा कि आइये-आइये बेनीपुरी जी, कितना सुहावना-मोहक दृश्य है. अरब सागर में सूर्यास्त की इस बेला में उस खूबसूरत जहाज को देखिये, जेपी डूब कर यह दृश्य देखते रहे.

कुछ क्षण बद पूछा कि बेनीपुरी जी, कैसा लगा यह दृश्य? बेनीपुरी जी ने कहा, अद्‌भुत पर एक बात है. इस अवर्णनीय सौंदर्य के दौरान अगर सामने दिख रहा खूबसूरत जहाज डूब जाये, तो कैसा लगेगा? कवि हृदय जेपी उबल पड़े? कैसी अशुभ बातें करते हैं आप? खूबसूरत क्षणों-दृश्यों को मनुष्य बांधता है, उदात्तता-विराट की कल्पना करता है. संसार-समाज को शुभमय बनाने की सोचता है. आप ऐसा सोचते हैं?

बेनीपुरी जी गंभीरता से जेपी का प्रतिवाद सुनते रहे. जेपी चुप हुए, तो बोले कि जेपी ऐसा हुआ है. जेपी ने तुरंत पूछा, कब और कहां? बेनीपुरी जी ने कहा कि आजादी की लड़ाई के बाद आजादी की बेला, ऐसी ही सुहावनी-मोहक थी. सृजन का दौर था. निर्माण के लिए जो सुंदर जहाज समुद्र में तैर रहा था. उससे जेपी जैसे महारथी अचानक उतर गये. जब जहाज डूब गया. बेनीपुरी जी ने कहा कि उस भीषण दौर में उनके जैसा मामूली व्यक्ति भी लाइफ जैकेट के सहारे तैर गया. पर देश निर्माण-मनुष्य निर्माण के सपने से प्रेरित हजारों-हजार प्रतिबद्ध लोग डूब गये. जेपी रोने लगे. जोर-जोर से, कुछ देर बाद पूछा कि क्या सारी गलती मेरी ही थी? स्पष्ट रूप से नहीं.
पर जिन लोगों ने नये सपने दिखाये-देखे, उनके निष्क्रिय होने से राजनीति में उन दृष्टिहीन लोगों का साम्राज्य हो गया, जिनकी दृष्टि महज स्वविकास तक सीमित थी. पलामू के पिछड़ेपन का भूख-अकाल इन्हीं स्वकेंद्रिय लोगों के सत्तारूढ़ होने का परिणाम है.
रामगढ़ में ही आजादी के बाद का ऊत्तर विकास प्रकरण दिखा. 1988 में इंदिरा आवास योजना के तहत 24 घर बने. 24 हरिजन परिवारों के लिए, आज तक ये घर किसी भी हरिजन को नहीं दिये गये. अब ढहने लगे हैं.
ग्राम सरजा में भी इस योजना के तहत 24 घर बने और ग्राम काचन में भी 24 हरिजन परिवारों के लिए 24 घर बने. यानी कुल 72 घरों में से एक भी किसी हरिजन परिवार को आवंटित नहीं किये गये. अब ये घर गिर रहे हैं. ढह रहे हैं. 72 घरों पर अनुमानत: 20 लाख रुपये खर्च हुए होंगे, निरुद्देश्य. 15 लाख अफसर-ठेकेदार खा चुके होंगे. पांच लाख से निर्माण कराया होगा, तभी ये घर ढहने लगे हैं, ऐसी अराजकता, उत्तरदायित्वहीनता और गैर जिम्मेदारी बिहार में ही संभव है.

हाल में एक लाख येन भ्रष्टाचार के लिए चीन में एक पुलिस आयुक्त को फांसी दी गयी और भ्रष्टाचार के लिए चीन में एक पुलिस आयुक्त फांसी दी गयी और भ्रष्टाचार में हिस्सेदार होने के लिए उनके परिवार को जेल की सजा. नेहरू जी परतंत्र भारत में ख्वाब देखते थे कि आजाद भारत में सटोरिये और कालाबाजारी करनेवाले चौराहों पर लटका दिये जायेंगे, पर क्या हुआ? राजगोपालाचारी ने इस लाइसेंस, कोटा-परमिट राज के खिलाफ चेताया था.

आज क्या स्थिति है? सटोरिये-कालाबाजारी करनेवाले और जनता को लूटनेवाले अफसर-राजनेता (हर दल के) पग-पग पर छा गये हैं. जन कल्याण की बातें करते हैं और दोनों हाथ से देश-समाज की नींव खोखला कर रहे हैं.इस नींव खोखला करनेवाली राजनीति के कारण ही आज सूखा-अकाल और पलामू मुद्दा नहीं बन पा रहा है. जो लोग इस सूबे के लोगों की तकदीर संवारने के लिए अलग राज्य की तकदीर संवारने के लिए अलग राज्य का ख्वाब देखते हैं.

उनके लिए पलामू में भूख से मरते लोग सवाल नहीं है. झारखंड के लिए गठित सर्वदलीय मंच के कितने नेता डालटनगंज-गढ़वा गये हैं? झारखंड मुक्ति मोरचा के कौन से सांसद उन इलाकों के गांवों और भूखे लोगों के बीच गये हैं? क्या अलग झारखंड बनने पर ऐसे लोगों का सवाल हाशिये पर ही रहेगा? झारखंड के प्रति प्रतिबद्ध राजनेता अगर पलामू-गढ़वा का सघन दौरा कर, इस मुद्दे पर छोटानागपुर के लोगों को गोलबंद करते, तो उनकी राजनीति समझ में आती, पर सत्ता पाने की राजनीति में भूख से मरते लोगों का सवाल मुद्दा नहीं बना करता. इस कारण पलामू-गढ़वा के मुद्दों पर राजनीतिक दलों से उम्मीद छोड़ देनी चाहिए.
(क्रमश:)05-03-1993

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