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समृद्ध धरती में उदास बसंत

-हरिवंश- 1952 से शुरू परियोजनाओं में लूट का पलामू प्रसंग सुनते ही आर्नाल्ड रॉयन बी याद आते हैं. 1955 के लगभग वह भारत आये थे. सामुदायिक विकास योजनाओं को देख कर मुग्ध थे. उनका निष्कर्ष था कि विकास का केंद्र गांव-पंचायत या ब्लॉक बना देने से ‘विकास की पुरानी अवधारणा’ बिल्कुल पलट जायेगी. तब विकास […]

-हरिवंश-

1952 से शुरू परियोजनाओं में लूट का पलामू प्रसंग सुनते ही आर्नाल्ड रॉयन बी याद आते हैं. 1955 के लगभग वह भारत आये थे. सामुदायिक विकास योजनाओं को देख कर मुग्ध थे. उनका निष्कर्ष था कि विकास का केंद्र गांव-पंचायत या ब्लॉक बना देने से ‘विकास की पुरानी अवधारणा’ बिल्कुल पलट जायेगी. तब विकास की कल्पना थी, ऊपर से योजना बना कर नीचे तोपना. सामुदायिक विकास योजना का स्वरूप गांधी के ग्राम स्वराज्य के आसपास था.

चूंकि हर विकास मॉडल अपने साथ एक नयी संस्कृति-स्वरूप लेकर आता है, इसलिए आर्नाल्ड रॉयन बी को लगा कि गांधी के भारत में सतह के आदमी से उठता विचार-उसकी समस्याएं ऊपर तक जायेंगी. उसकी आवश्यकता-अनुरूप योजनाएं बनेंगी. इन योजनाओं से एक नयी मानवीय संस्कृति प्रस्फुटित होगी. गांधी का भारत दुनिया के लिए अनुकरणीय होगा. शायद इसी कारण आर्नाल्ड रॉयन बी ने कहा था कि दुनिया को नयी सभ्यता-संस्कृति की रोशनी पूरब से ही मिलेगी. पश्चिम की भौतिक भूख के खिलाफ नये जीवन दर्शन या संस्कृति के पूरब से उद्‌गम से उनका आशय भारत से ही था.

पर सब कुछ कितना जल्द बिखर गया. सृजन और स्वाधीनता की प्रात: बेला में ही शोक गीत गूंजने लगा. जब देश अंगरेजों के सामने मत्थे टेक रहा था, तब आजादी की लड़ाई शुरू होने के काफी पहले नीलांबर-पीतांबर ने पलामू की धरती पर ही स्वाभिमान और अस्मत बचाने की लड़ाई लड़ी थी. इन दोनों के पिता भी अंगरेजों से लड़ते हुए फांसी चढ़े, फिर पीतांबर-नीलांबर चढ़ती जवानी में पेड़ पर लटका दिये गये. उन महान सपूतों की जन्मभूमि आज पलामू में निर्माणाधीन किसी बांध के कारण डूब चुकी है और वह बांध भी 20 वर्षों में नहीं बन पाया है. तप-त्याग और शौर्य की मि˜ट्टी को आजादी के बाद का भ्रष्टाचार इसी तरह डूबो गया. आज पलामू, जापान के पास होता, तो उसके धरती पुत्र दुनिया के सबसे समृद्ध होते. समृद्ध तो वे आज भी हैं, पर यह समृद्धि पलामू के पलामू के बाहर के लोगों के लिए है.

प्राकृतिक संसाधन की दृष्टि से देश में जो दो-तीन समृद्ध जिले हो सकते हैं, उनमें से पलामू एक है. एशिया का सर्वश्रेष्ठ ग्रेफाइट यहां है. बड़ा भंडार है. 95 फीसदी कार्बन युक्त ग्रेफाइट शायद ही कहीं और हो. ग्रेनाइट है, जो काला हीरा कहा जाता है. चैनपुर में संगमरमर है. मैगनेटाइट है, डोलोमाइट है, फायर क्ले, लाइमस्टोन, बेरिल, और दो-ढाई फीट खोदते ही बेहतर कोयला. आबाद जंगल-कत्था. पर इस समृद्धि का उपयोग कौन कर रहा है, तस्कर, राजनेता और बिचौलिये. कत्था की तस्करी हो रही है. बनारस, इलाहाबाद, कानपुर और दिल्ली के बाजारों में प्रतिवर्ष अनुमानित रूप से 10-12 करोड़ अवैध कत्था भेजा जाता है. जंगल कट रहे हैं. अवैध कोयला भर कर ट्रकें बाहर जा रही हैं. जंगल में लाह, गोंद, चिरौंजी और महुआ के ‘कैश क्राप’ हैं. पर इन सबका बाजार उन लोगों के हाथ में है, जिनके हाथ-पांव दिल्ली-पटना और काले बाजार में प्रभावी हैं. हरे, बहेरा और आंवला के समृद्ध जंगलों पर भी सूखे की छाया पड़ चुकी है.

सरहुआ पहुंचने के पहले से ही दूर-दूर से पीपल के पेड़ के सूखे-नंग-धड़ंग और पत्तीविहीन नजर आने लगे थे. साथी अर्जुन ने बताया कि चारे के अभाव में पीपल के सभी पेड़ों के पत्ते-हरे डाल तोड़े जा चुके हैं. बाहर से चारा मार्गों का प्रयास चल रहा है. जल संकट में पशु सबसे अधिक प्रभावित है. प्रकृति का रहस्य सचमुच अजीब है. पलामू के लोगों की वेदना-पीड़ा के साझीदार और मूक साथी इन पशुओं की पीड़ा की चर्चा सुन-देख कर बरसों पहले (लगभग 22 वर्ष पूर्व छोड़े) छोड़े गये अपने गांव की याद आ गयी.

‘भिखारी भाई! इसी नाम से लोग उन्हें पुकारते थे. अपढ़-नितांत गरीब, पर चरित्र और संवेदनाके स्तर पर शायद ही आज 80 करोड़ के देस में वैसे लोग हों. उनकी चर्चा फिर कभी. पर तबके भारत के गांवों में ‘भिखारी भाई’ जैसे लोगों की ही बहुतायत थी. अपढ़-गरीब पर चरित्र, ईमानदारी और मानवीय दृष्टि से अदभुत. वह अनेक मवेशियों को खिलाते थे. तड़के चार बजे सुबह से ही. खिलाते-बोलते, मानो उन पशुओं से बतिया रहे हों. कभी कोई पशु बीमार हो और भिखारी भाई खाना खा लें या सो लें, यह संभव नहीं था. कभी भिखारी भाई बीमार पड़ जायें, तो मवेशी खाने के पास न फटकते. भारत के गांवों के किसानों की यही आत्मा रही है. पशु-पक्षी से उनकी जीवंतता इसी मानवीय स्तर पर रही है.

आज पलामू के सूखे की जहां-तहां चर्चा हो भी जाती है, पर उन मूक पशुओं और बेतला जंगल के जानवरों की सुध किसे है? बेतला जंगल के दौड़ते-फांदते बंदल कम दिखने लगे हैं. हिरणों की उन्मुक्त छलागें नहीं लग रहीं. जगल में पेयजल स्रोत सूख रहे हैं. मई-जून में क्या होगा, यह अटकलबाजी और कयास लग रहा है. यह वसंत ॠतु है. जंगल और पलामू के पठार इस वसंत में रौनक से भर जाते थे. पुटूस के लाल फूलों के आकर्षण की चौतरफा चर्चा होती थी. पलामू में शायद 1967 के बाद यह सब उदास वसंत है.

जिन पेड़ों-जंगलों पर वसंत की शोभा थिरकती थी, आज पलामू में वे सिकुड़ रहे हैं. 1926 में पलामू में 3200 वर्ग मील में जंगल पसरा था. कुल भूमि के 65.3 फीसदी में जंगल था.

40 वर्षों बाद 1966 में 65.3 से घट कर जंगल क्षेत्र 45.99 रह गया. अब शायद 20 फीसदी भूमि में जंगल हो. वह भी समृद्ध जंगल नहीं. शोभा विहीन और श्रीहीन जंगल. महज झाड़ी और कमजोर पेड़ों से आच्छादित, ठेकेदारों, अफसरों और राजनेताओं के रातोंरात समृद्ध होने की आकांक्षा के शिकार, इस जंगल क्षरण से बड़े पैमाने पर भूमि क्षरण (सॉयल इरोजन) हुआ. जब जंगल समृद्ध थे, तो लगभग 50,000 लोग फरवरी-मार्च में जंगल महकमा में काम करते थे. तरह-तरह के. अब जंगल सिमट रहे हैं, तो जंगल पर निर्भर लोगों की यातना बढ़ रही है. उधर कटवानेवालों की भूख भी बढ़ रही है.

गीता के अनुसार भोग से भोग की वृद्धि बढ़ती है. सार्वजनिक संपत्ति लूटनेवाले शायद यह नहीं जानते कि उनके द्वारा एकत्र वैभव से उनके वंशज सुख भोज नहीं कर पायेंगे. अगर समाज ही तितर-बितर और अस्थिर हो जाये, अपराध और अराजकता का माहौल बढ़े, तो उस एकत्र वैभव का उपयोग कौन कर पायेगा. अपनी भावी पीढ़ी के लिए अनिश्चत और अंधकारमय भविष्य को छोड़ने वाले नहीं जानते कि वैभव-समृद्धि से वर्तमान या भविष्य नहीं निखरता, फ्रांस के लुई सोलहवें (1789) से समृद्ध और सुखी कौन परिवार था? (क्रमश:)

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