-हरिवंश-
मुख्यमंत्री जी, फिलहाल झारखंड के राजनीतिक आकाश में आंधी या तूफान के संकेत नहीं दिखाई दे रहे. अब आपकी सरकार लगभग स्थिर है. पर महज सरकार बन जाने से, न झारखंड का भविष्य संवरनेवाला है, न आपकी सरकार का भविष्य सुरक्षित रहनेवाला है. दोनों की सुरक्षा और भविष्य, सिर्फ सुशासन में ही निहित है. यह सच कड़वा है कि बिहार से सन 2000 नवंबर में अलग होने के बावजूद ‘झारखंड’ देश में कोई अलग पहचान नहीं बना सका है. देश का सबसे अशासित, अराजक और गरीब राज्य बिहार है, उस बिहार से अलग होकर भी झारखंड ‘बिहार सिंड्रोम (बिहार ग्रंथि) से अलग नहीं हो पाया है.
जिस बिहार में हजारों साल पहले नालंदा और विक्रमशीला विश्वविद्यालय थे, जहां चीन-तिब्बत समेत पूरे भारत व दुनिया के अन्य देशों के विद्यार्थी आते थे, आज इस ग्लोबल विलेज और नॉलेज एरा (ज्ञान युग) के दौर में वहां पाकेटमार, चेनकटर, चोर बनाने के ‘विश्वविद्यालय’ चल रहे हैं, उस आबोहवा-संस्कृति से अलग झारखंड गुजरे चार वर्षों में उल्लेखनीय कुछ नहीं कर पाया, तो इसका श्रेय भी आपको, आपकी पार्टी को, आपकी सरकार को ही है. साथ में एचवाइ शारदा प्रसाद (पूर्व प्रेस सलाहकार श्रीमती गांधी) के शब्दों में कहें, तो देश की सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन नौकरशाही और लगभग रणछोड़ विपक्ष को भी.
पर यह यकीन है कि दोबारा सत्तारूढ़ होने पर आपकी सरकार के पास ‘बेहतर झारखंड’ का सपना होगा, समयबद्ध आश्वासन होंगे. अगर ऐसा कोई ‘विजन’ है, तो उसकी झलक दिखनी चाहिए. लोक-समाज में प्रचलित कहावत है, ‘पूत के पांव पालने’ में ही दिखने लगते हैं. दोबारा सत्तारूढ़ होने के बाद, आपकी सरकार के जो ‘पांव’ झलक रहे हैं, वे ‘बेहतर झारखंड’ के प्रति बहुत उम्मीद नहीं जगाते? तथ्य यह भी है कि आपकी सरकार है, अत: आपकी और आपकी टीम की परिणामोन्मुख कार्यक्षमता (कैपिसिटी टू डेलिवर) पर ही आपका और झारखंड का भविष्य टिका है.
पुलिस आधुनिकीकरण के पैसे से लक्जरी गाड़ियों की खरीद क्यों?
आपकी सरकार ने 28 मार्च (पत्रांक 2/पु.ब-01/2005 गृ) को एक सरकारी आदेश स्वीकृत किया. इस आदेश के तहत लगभग 16 करोड़ की लागत से 89 गाड़ियां खरीदी जा रही हैं. वित्तीय वर्ष 2004-05 के पैसे से ये लक्जरी गाड़ियां (एंबुलेंस छोड़ कर) क्यों खरीदी गयीं? सरकार को इसका जवाब देना चाहिए.
यह मामूली प्रकरण नहीं है. इससे सरकार का मानस, प्राथमिकताएं और कार्यशैली की झलक मिलती है. पहला प्रश्न है कि वित्तीय वर्ष 2004-05 (1 अप्रैल 2004 से 27 मार्च 2005) में, आपकी ही सरकार थी, पर यह फैसला वित्तीय वर्ष खत्म होने के तीन दिनों के अंदर किस दबाव में लिया गया? यह इमरजेंसी खर्च की श्रेणी में नहीं आता. ऐसे खर्च वर्ष में कभी भी हो सकते हैं, फिर मार्च अंत में क्यों? इस शैली से बिहार से सौगात में मिले और झारखंड में फल-फूल रही ‘मशहूर मार्च लूट’ संस्कृति नहीं रुक सकती?
वित्तीय अनुशासन कायम नहीं हो सकता. इससे बड़ा सवाल है कि देश के किसी अन्य राज्य (जो हमसे कई गुना विकसित हैं) में भी पुलिस आधुनिकीकरण का पैसा, क्या ‘नेताओं की लक्जरी गाड़ियों’ पर खर्च हुआ है? यह उत्तर आपकी सरकार को देना चाहिए? मेरी सूचना के अनुसार ऐसा ‘काम (जहां गांवों-शहरों में पीने का पानी न हो, वहां के राजनेता लक्जरी गाड़ियों में चलें, तो यह क्या है) किसी दूसरे राज्य में नहीं हुआ है, फिर यहां कैसे हुआ? क्या बिहार, ओड़िशा, बंगाल के मंत्री ऐसी गाड़ियों पर चढ़ते हैं? पड़ोस के मुख्यमंत्री बुद्धदेव बाबू एंबेसडर कार व मामूली सुरक्षा के बीच चलते हैं.
फिर झारखंड में मंत्रियों की सुरक्षा में इतनी महंगी गाड़ियां क्यों चलेंगी? झारखंड की स्थापना के बाद ही बड़े पैमाने पर गाड़ियों की खरीद हुई थी, तब मंत्री भी अधिक थे (तब 26 मंत्री थे, अब 12 मंत्री हैं), वे सरकारी गाड़ियां कहां गयीं? उन गाड़ियों के रहते, ये लक्जरी, महंगी, वैभव प्रदर्शित करनेवाली गाड़ियां क्यों ली गयीं? एक मंत्री की सुरक्षा की कीमत 145 इंदिरा आवास के बराबर है. इस गाड़ी खरीद में 10 करोड़ ‘पुलिस समूह शीर्ष जनजातीय उपयोजना, जनजातीय क्षेत्रीय उपयोजना, पुलिस आधुनिकीकरण एवं भवन निर्माण’ मद से लिया गया है और लगभग छह करोड़ ‘अन्य क्षेत्रीय उपयोजना, लघु शीर्ष अन्य व्यय, उप शीर्ष पुलिस आधुनिकीकरण’ मद से.
झारखंड की जनता को यह जानने का अधिकार है कि किन जनजातीय-क्षेत्रीय योजनाओं की बलि देकर, इन गाड़ियों की खरीद हई और हमारे नेता किस कीमत पर आरामदेह और शान की जिंदगी जी रहे हैं?यह प्रश्न सिर्फ गाड़ियों का ही नहीं है, मनोवृत्ति-मानस का है. पहले राजशाही थी, जमींदारी थी, तो वे शासक ठाटबाट से रहते थे. पर प्रजातंत्र के गर्भ से चुने गये शासक ‘नये राजा, नये जमींदार, नये हक्मरान’ बन रहे हैं, इसलिए आज राजनीतिज्ञ और राजनीति के प्रति लोगों के मन में नफरत और घृणा फैल रही है. लोकतंत्र की जड़ें कमजोर हो रही हैं. झारखंड में भी लोकतंत्र की जड़ें कमजोर न होने दें, मुख्यमंत्री जी!
मुख्यमंत्री जी! आपको याद न हो! ‘इंडिया शाइनिंग’ नारे की छत्रछाया में जब एनडीए चुनाव लड़ रहा था, उसी समय अटल जी की सरकार ने पांच महंगी बीएमडब्ल्यू गाड़ियां विदेश से मंगवायी थी. पर पासा पलट गया. यूपीए की सरकार बन गयी. यूपीए ने सार्वजनिक रूप से इन गाड़ियों की तसवीरें-कीमत प्रचारित करायी, कहा हम इन गाड़ियों का इस्तेमाल नहीं करेंगे, क्योंकि ये पुराने ‘शहंशाह हक्मरानों’ ने मंगवायी थी. अब एक साल बाद वही यूपीए सरकार (प्रधानमंत्री को छोड़ कर) उन गाड़ियों का इस्तेमाल कर रही है.
यह स्पष्ट संकेत है कि राजनीतिज्ञ चाहे एनडीए के हों या यूपीए के, वे लोकतंत्र का नकाब लगा कर ‘नये जमींदार, नये राजा, नये शहंशाह और नये बादशाह’ के रूप में सामने हैं. और यह लक्जरी, ऐशोआराम और वैभव कहां से? हम जनता से वसूले गये प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कर से? राजकोष से? क्या इसी रास्ते झारखंड बनेगा? जो अजीम प्रेम जी भारत के सबसे समृद्ध इंसान हैं, दुनिया के धनाढ्यों में जिनका नाम है, वे अपनी बीस वर्ष पुरानी गाड़ी पर चलते हैं. उसी तरह नारायणमूर्ति! इन लोगों ने अपनी प्रतिभा, श्रम, निष्ठा और विजन से दुनिया में शोहरत अर्जित की है, संपदा कमायी है, लाखों लोगों को रोजगार दिया है, समृद्ध जिंदगी की है, सपना दिया है, कर्नाटक-बेंगलूर को दुनिया के शिखर पर पहुंचा दिया है, भारत का सिर दुनिया में ऊंचा किया है, अमेरिका, चीन, रूस, सिंगापुर वगैरह के राष्ट्राध्यक्ष सीधे पहले उनके यहां बेंगलूर आते हैं, तब दिल्ली. वे अजीम प्रेम जी, नारायणमूर्ति फ्लैटों में मध्यवर्गीय जीवन जीते हैं, मामूली कारों पर चढ़ते हैं.
आपकी सरकार ने ‘झारखंड’ को ‘विप्रो’, ’इनफोसिस‘ की तरह समृद्ध, दुनिया में मशहूर बना दिया होता, जैसे अपने कर्मचारियों को उन्होंने समृद्ध-खुशहाल किया, वैसे झारखंड की जनता की तकदीर आपकी सरकार ने बदल दी होती, तो आप सब ऐसी गाड़ियों पर चलते, तो हमें फख्र होता. आप सबकी हुनर, योग्यता, क्षमता, उपलब्धि, कौशल और यश का हम गीत गाते.
आपकी सरकार इन आंकड़ों को याद रखे
लक्जरी गाड़ियों में आरामदेह सफर करती हुई आपकी सरकार, इन तथ्यों को याद रखें, यह हमारी ख्वाहिश है. ये तथ्य आंकड़ों पर आधारित हैं. सिर्फ आंकड़े, इसलिए नहीं दे रहे हैं, क्योंकि आंकड़ों के जाल में तथ्य न भूल जायें.
*बिहार के बाद झारखंड में दशक 91-2001 के बीच जनसंख्या सबसे अधिक गति से बढ़ी है.
*देश में सबसे अधिक बेरोजगार मजदूर, बिहार में हैं (66.3), उसके बाद झारखंड में (62.5).
*गरीबी रेखा के नीचे सबसे अधिक लोग ओड़िशा (47.2) में हैं, इसके बाद झारखंड में (44). बिहार इस मामले में झारखंड से बेहतर है (40.9)
*हर पांच में से दो लोग झारखंड में अपनी बुनियादी जरूरतें (खाना, कपड़ा) नहीं पूरा कर पा रहे.
*खाद्य उपलब्धता यानी भोजन का प्रबंध. झारखंड की स्थिति इस मामले में देश में सबसे खराब है. 12.5 फीसदी घरों में खाने का प्रबंध नहीं है. आठ में से एक झारखंडी प्रतिदिन भूखे सोने को विवश है. बिहार में महज 3.5 फीसदी घरों की यह स्थिति है और देश में 2.3 फीसदी.
*पेयजल की दृष्टि से भी देश का सबसे बदतर राज्य है, झारखंड. झारखंड के कुल घरों में से आधे से अधिक घरों में पीने का सुरक्षित पानी नहीं है. जबकि छत्तीसगढ़ और उत्तरांचल के 70 फीसदी घरों में सुरक्षित पेयजल उपलब्ध है. पूरे देश में 77.9 फीसदी लोग सुरक्षित जल पीते हैं.
*शिक्षा की स्थित बिहार से आंशिक बेहतर है, झारखंड में. पर उत्तरांचल और छत्तीसगढ़ काफी आगे हैं. वर्ल्ड बैंक ने वर्ष 2004 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सबसे अधिक शिक्षक झारखंड-बिहार के सरकारी प्राइमरी स्कूलों में उपस्थित ही नहीं होते.
*सबसे कम सिंचित खेती भूमि झारखंड (नौ फीसदी) में ही है. प्रति एकड़ उपज भी कम है.
*नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (2001) के अनुसार कानून-व्यवस्था की दृष्टि से सबसे खराब राज्य झारखंड है. कई मामलों में बिहार से भी बदतर.
*अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि झारखंड में आर्थिक विकास दर की गति यही रही, तो 20 वर्षों बाद झारखंड, आज के जिंबाब्वे जैसा होगा. जिंब्बावे की हालत रोंगटे खड़े करनेवाली है. 20 वर्षों में देश के कुछ राज्य आज के अमेरिका, सऊदी अरब, ब्राजील, वगैरह के समकक्ष पहुंचेंगे, तो हम आज के जिंब्बावे के बराबर.
*‘इंडिया टुडे स्टेट रैंकिंग’ अध्ययन 2004 के अनुसार देश के 20 राज्यों में से आर्थिक दृष्टि से सबसे पिछड़ा राज्य बिहार (20वां) है, इसके बाद झारखंड (19वां) है. यह अध्ययन ‘इंडिया टुडे’ के लिए मशहूर अर्थशास्त्री प्रोफेसर विवेक देबरॉय और इंडिया इंडिक्स के लवलीश भंडारी ने किया था.
*प्रतिव्यक्ति आमद की दृष्टि से भी झारखंड बदतर हालत में है.
(ये निष्कर्ष या आंकड़े मशहूर संस्था ‘इंडिक्स एनालिस्ट’ द्वारा तैयार आंकड़ों पर आधारित हैं. इस संस्था से जाने माने अर्थशास्त्री जुड़े हैं. ये आंकड़े 15 नवंबर 2004 के प्रभात खबर परिशिष्ट झारखंड 2020 में विस्तार से छपे हैं.)
ऐसे अनेक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य हैं, जो झारखंडी शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी, पेयजल संकट, सड़क दुर्दशा, यातायात संकट वगैरह के बारे में बताते हैं पर आंकड़ों की गहराई में न जा कर नयी सरकार को यह याद रखना चाहिए कि उसके सामने कितनी बड़ी चुनौतियां हैं? झारखंड कहां खड़ा है?
पंचायत चुनाव न होने से नुकसान
झारखंड में आज गहरा संकट है, किस पर भरोसा करें? पहले धर्म, आस्था का केंद्र था, पर धार्मिक लोगों के चरित्र से यह विश्वास डिग गया. संस्थाएं खत्म हो गयीं. समाज में कोई रोल माडल नहीं बचा. मूल्य और नैतिक बोध, बोझ बन गये हैं. ऐसी स्थिति में सरकार (जो सबसे बड़ी लोकतांत्रिक संस्था है) अपनी बात पर कायम न रहे, तो आप समझ सकते हैं कि हालात क्या-कैसे होंगे? समाज के भविष्य और भावी पीढ़ी के लिए कम से कम हम विश्वसनीय संस्थाएं कायम रखें, यह हमारा पवित्र फर्ज है. इसलिए सरकार वही बोले, जो कर सकती है, या मौन रहे.
झारखंड में पंचायत चुनावों के संदर्भ में राज्य सरकार ने उच्च न्यायालय में वायदा किया था. न्यायपालिका, हमारे समाज का सबसे पवित्र अंग है. न्याय का केंद्र. खासतौर से आपकी झारखंड सरकार को न्यायपालिका का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उच्चतम न्यायालय के प्रभावी हस्तक्षेप से आपकी सरकार पदारूढ़ हुई. उसी न्यायतंत्र के महत्वपूर्ण अंग, झारखंड उच्च न्यायालय ने 18 सितंबर ‘03 को 31 मार्च 2004 तक पंचायत चुनाव संपन्न कराने का आदेश दिया था. इसके बाद भी उच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर कई आदेश दिये. पर सरकार पर अब असर हुआ है और आपने शीघ्र पंचायत चुनाव कराने की बात कही है. इस बार आपका यह बयान तत्काल क्रियान्वित हो, यह सुनिश्चित करायें.
अगर उच्च न्यायालय के आदेशों का पालन, राज्य सरकार (राजसत्ता) नहीं करती, तो इसका समाज पर क्या असर पड़ता है? संस्थाओं की मर्यादा-साख बनाने का काम सरकार का है. अगर सरकार, न्यायपालिका को गुमराह करेगी या संवैधानिक मामलों में इसके आदेश का अनुपालन नहीं करेगी, तो कैसा संकट पैदा होगा? झारखंड देश में एकमात्र राज्य है, जहां अब तक पंचायत चुनाव नहीं हुए हैं.
यह चुनाव न होने का प्रत्यक्ष नुकसान क्या है? लगभग साढ़े चार वर्षों में झारखंड, केंद्रीय मदद में 200 करोड़ रुपये की सहायता से वंचित हुआ है. 12वें वित्त आयोग के अनुसार हर राज्य के पंचायतों को सालाना 50 करोड़ सड़क, पानी वगैरह बुनियादी सुविधाओं के लिए केंद्र मदद (ग्रांट) देता है. इस राशि का सीधे इस्तेमाल पंचायतें करती हैं. झारखंड बने चार वर्ष हो गये हैं, पंचायत चुनाव न होने के कारण अब तक केंद्र से पंचायतों को सीधे मिलनेवाले ग्रांट 200 करोड़ से यह राज्य वंचित हो चुका है. (द इकानामिक टाइम्स, 20 अप्रैल 2005) कम से कम, आगे ऐसा न हो, यह सुनिश्चित करायें.
सिस्टम विकसित हो! पैसा सरेंडर बंद हो
नॉलेज एरा (ज्ञान युग) की यह दुनिया ‘इफीशिएंट एंड रिजल्ट ओरियेंटेड’ (सक्षम और रिजल्ट देनेवाली व्यवस्था) सिस्टम से चल रही है. झारखंड की नौकरशाही को ‘नॉलेज एरा’ की नौकरशाही बनना होगा, ‘लाइसेंस कोटा, परमिट राज्य’ (लाइसेंस व कंट्रोल इकानामी) की नौकरशाही का मानस राज्य को आगे नहीं ले जा सकता. बगल का बंगाल, वामपंथ का गढ़ बदल सकता है, तो झारखंड क्यों नहीं?
पिछले चार वर्षों में योजना मद से सरेंडर राशि को जोड़ा जाये, तो यह लगभग 3600 करोड़ से अधिक बैठती है. लगभग एक वित्तीय वर्ष का पैसा सरेंडर करना पड़ा है, झारखंड को गुजरे चार वर्ष में. एक गरीब राज्य, जहां से लोग पलायन करते हैं, जहां सिंचित भूमि की कमी है, पीने के पानी का संकट है. लोगों के भूख से मरने की खबर आती है, वहां इतना पैसा बिना खर्च हुए ‘सरेंडर’ (लौट जाये) हो, यह पूरी व्यवस्था पर गंभीर टिप्पणी है.
योजना मद में सरेंडर का ब्योरा (करोड़ में)
वर्ष योजना-बजट खर्च सरेंडर
2001-022651.002031.60619.4
2002-032651.941604.881047.06
2003-042935.852083.09852.76
2004-0541110.192800 करोड़1340 करोड़
अनुमानितसे अधिक (अनुमानित)
नौकरशाही का मानस बदलना जरूरी है. स्वर्गीय राजीव गांधी ने युवा सांसदों और नौकरशाही की प्रशिक्षण का अनोखा कार्यक्रम चलाया था. बाद में पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने उदारीकरण के बाद सिंगापुर के प्रथम प्रधानमंत्री ली यूआन को भारत निमंत्रित किया था. इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में. सचिव एवं उससे ऊपर के अफसरों को उन्होंने संबोधित किया. बताया कि बदलती दुनिया में नया मानस बनाना क्यों जरूरी है? झारखंड में नौकरशाहों के ‘माइंडसेट’ को बदलने का बड़े पैमाने पर प्रयास होना चाहिए. इससे एक नयी शुरुआत हो सकती है.
यहां भी अच्छे नौकरशाह हैं, पर राजनीति की तरह नौकरशाही में भी ग्रेशम ला (अर्थशास्त्री ग्रेशम की अवधारणा थी कि बाजार में खोटे सिक्के अच्छे सिक्कों को चलन से बाहर कर देते हैं) लागू है. अच्छे, ईमानदार और दृष्टिवाले लोग पीछे छूट गये हैं, ड्राइविंग सीट पर नहीं हैं, उन्हें आगे करना होगा. नौकरशाही के लिए आचार संहिता चाहिए. सरकार उन्हें स्वतंत्रता, सम्मान और कार्य करने का अवसर दे, साथ में एकाउंटिबिलिटी भी तय करे. एक महत्वपूर्ण प्रसंग है, सरकारी मानस समझने की दृष्टि से.
जमशेदपुर में भारत-पाक मैच हुआ. बड़े पैमाने पर मुफ्त पास (लगभग 6000) बांटे गये. नेताओं-अफसरों और उनके चहेतों के बीच.
अगर पाकिस्तान में मुशर्रफ टिकट खरीद कर मैच देख सकते हैं, तो झारखंडी अफसर-नेता मुफ्तखोर क्यों बन रहे हैं? जमशेदपुर स्टेडियम में बड़े-बड़े अफसरों के नाम चिपका कर कुरसियां आरक्षित की गयी थीं. उनके परिवारवाले भी थे. राजकोष से इतनी तनख्वाह-सुविधाएं पानेवाला यह शक्ति संपन्न वर्ग ‘रेंटियर क्लास’ (भोगी वर्ग) क्यों बनता जा रहा है? इनकी शिष्टता की खबर आपको जरूर होनी चाहिए. जमशेदपुर स्टेडियम मैच के दौरान राज्यपाल के परिवार को बैठने के लिए अच्छी जगह नहीं मिली, उन्हें मुसीबतें उठानी पड़ीं, पर झारखंड सरकार के अफसरों के परिवार मौज में क्रिकेट का आनंद उठाते रहे.
यह अशिष्टता की पराकाष्ठा है. निश्चित रूप से नौकरशाही मर्यादित होकर आत्मअनुशासन में रहे, तो ऐसा नहीं होगा. इसके लिए मुख्यमंत्री के रूप में आपको पहल करनी होगी. राज्य में अच्छे नौकरशाह हैं, तो बुरे भी. अच्छों को प्रोत्साहन, बुरों को दंड, शासन का प्रताप पदस्थापित करने के लिए यह पुराना और शाश्वत नियम है. इसका पालन हो, तो अच्छी बुनियाद पड़ेगी.
राज्य में साक्षरता के क्षेत्र में जिस तरह से नौकरशाही काम कर रही है, वह अक्षम्य है. पर कोई एकाउंटिबिलिटी तय करनेवाला नहीं है, न दंडित करनेवाला.
ठप साक्षरता अभियान
1. हर जिले में साक्षरता अभियान का संचालन सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के द्वारा निबंधित ‘जिला साक्षरता समिति’ के माध्यम से होता है. इसके अध्यक्ष उपायुक्त होते हैं, तथा सामान्यत: उप-विकास आयुक्त उपाध्यक्ष होते हैं. सचिव का पद या तो किसी शिक्षा पदाधिकारी को दिया जाता है, अथवा किसी महाविद्यालय के शिक्षक अथवा स्वयंसेवी संस्था के व्यक्ति को सौंपा जाता है. कार्यक्रम के दो प्रमुख धुरी हैं : उपायुक्त एवं सचिव. पर इस कार्यक्रम में उपायुक्तों की रुचि कम है. अनेक उपायुक्त ऐसे हैं, जिन्होंने रुचि ली है, वहां बेहतर काम हुए हैं.
2. अक्सर उपायुक्त, फंड के अभाव का रोना रोते हैं. पर फंड के अभाव का मुख्य कारण है, भारत सरकार को समय पर अंकेक्षण रिपोर्ट नहीं भेजना. भारत सरकार के द्वारा जिले को प्रथम किस्त की राशि मिलने के बाद जिले को राज्य का हिस्सा प्राप्त करना होता है. राज्यांश प्राप्त होने के पश्चात ही भारत सरकार दूसरी किस्त भुगतान करती है.
3. साक्षरता के क्षेत्र में कुछ जिलों के तथ्य पाकर आप खुद चौकेंगे. नियमानुसार संपूर्ण साक्षरता अभियान सामान्यत: 18 से 24 महीनों में पूरा किया जाता है. पर यहां 8-9 वर्षों से यह सब चल रहा है, कोई देखनेवाला नहीं है. आपकी सरकार अगर झारखंड का भविष्य निखारना चाहती है, तो शिक्षा के क्षेत्र में साहसिक पहल करनी होगी.
पश्चिमी सिंहभूम में संपूर्ण साक्षरता अभियान की मंजूरी झारखंड बनने के पहले 3.11.1997 को मिली थी. यह अभियान दो वर्षों में खत्म होना था. कुल स्वीकृत बजट रु 37,50,000/- में से भारत सरकार के द्वारा रु 25,00,000/- और राज्य सरकार द्वारा रु 6,25,000/- की राशि रिलीज हो चुकी है.
आरंभ में यहां कुछ काम हुआ. इसके बाद से काम पूरी तरह ठप है. जिले में लगभग रु 2,00,000/- की राशि खर्च हुई. झारखंड बनने के बाद शिक्षा की रोशनी जलाना सबसे महत्वपूर्ण काम था. यह नॉलेज एरा है. हम देश के सबसे अशिक्षित राज्यों में से हैं. यह काम तो युद्ध स्तर पर होना चाहिए, क्योंकि 21वीं सदी में शिक्षा को ही मुक्ति द्वार माना गया है. पर पैसा रहते हुए शिक्षित करने का अभियान नहीं चल रहा. यही हाल अन्य जिलों का भी है.
पलामू : राष्ट्रीयता साक्षरता मिशन प्राधिकरण के द्वारा पलामू जिले में ‘संपूर्णता साक्षरता अभियान’ चलाने की स्वीकृत 16.10.1996 को मिली. इस अभियान को भी दो वर्षों में समाप्त कर लिया जाना था. कुल स्वीकृत बजट रु 2,43,38,000/- में से भारत सरकार द्वारा अक्तूबर 1996 में 40,00,000/- तथा जुलाई 1997 में 50,00,000/- एवं राज्य सरकार द्वारा मार्च में 10,00,000/- तथा अगस्त 1997 में 12,50,000/- भुगतान किया गया. पर जनवरी 2004 तक रु 1,09,35,317/- रु की राशि ही खर्च हो पायी. क्यों इस गति से काम हो रहा है? इसकी मॉनिटरिग जरूरी है. देवघर और बोकारो के आंकड़े भी यही बताते हैं.
यह शिक्षा में भी महज एक अंश (राष्ट्रीय साक्षरता मिशन) का तथ्यात्मक ब्योरा है. इसी तरह सरकार की अन्य योजनाओं का जिलेवार मूल्यांकन जरूरी है, ताकि तथ्य पता चले. सिर्फ तथ्य ही मालूम न हों, बल्कि दोषी अफसर जब तक दंडित नहीं होंगे, काम तेज नहीं होगा.
पंचायत चुनावों के संदर्भ में उच्च न्यायालय के महत्वपूर्ण आदेश
18 सितंबर ‘03राज्य सरकार व चुनाव आयोग को 31 मार्च 2004 तक पंचायत चुनाव संपन्न करा लेने का निर्देश.
7 दिसंबर ‘04सरकार के जवाब से कोर्ट नाराज. शपथ पत्र दाखिल करने के लिए दो दिन का समय, पंचायत चुनाव कराने के लिए.
9 दिसंबर ‘04दस्तावेज उपलब्ध नहीं रहने के कारण सुनवाई 13 दिसंबर के लिए स्थगित.
13 दिसंबर ‘04अप्रैल ‘05 में पंचायत चुनाव कराने का निर्देश, विधानसभा चुनाव के लिए लागू होनेवाली आदर्श आचार संहिता से पंचायत चुनाव प्रभावित नहीं होगी, फरवरी ‘05 तक चुनाव प्रक्रिया पूरी कर लेने का निर्देश
9 मार्च ‘05सभी जिलों में उपायुक्तों को दो सप्ताह के अंदर परिसीमन कर मतदाता सूची तैयार करने का निर्देश.
30 मार्च ‘05मामले की सुनवाई के लिए 29 अप्रैल की तिथि निर्धारित
29 अप्रैल ‘05सुनवाई नहीं हो पायी.