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परपीड़ा से आत्मसुख

-हरिवंश- रांची वीमेंस कॉलेज के जिन छात्राओं ने रैगिंग के समय इंटर की एक गर्भवती छात्रा को पांच मिनट तक सीढ़ियां चढ़ने-उतरने का आदेश दिया, उन्हें इसका अंजाम अवश्य पता होगा, फिर भी इस परपीड़ा सुख के पीछे क्या मनोवृत्ति हो सकती है? दरअसल रैगिंग की यह प्रक्रिया ही परपीड़ा से जुड़ी है. दिल्ली विश्वविद्यालय […]

-हरिवंश-

रांची वीमेंस कॉलेज के जिन छात्राओं ने रैगिंग के समय इंटर की एक गर्भवती छात्रा को पांच मिनट तक सीढ़ियां चढ़ने-उतरने का आदेश दिया, उन्हें इसका अंजाम अवश्य पता होगा, फिर भी इस परपीड़ा सुख के पीछे क्या मनोवृत्ति हो सकती है? दरअसल रैगिंग की यह प्रक्रिया ही परपीड़ा से जुड़ी है. दिल्ली विश्वविद्यालय के कालेजों, खासतौर से मिरांडा हाऊस, लेडीश्रीराम कालेज और दिल्ली विश्वविद्यालय में रैगिंग के जो फूहड़ और कृत्सित रूप सामने आये वे किसी भी सभ्य और समझदार समाज के लिए शर्मनाक है.

इस बार संसद में दिल्ली में फूहड़ ढंग से हो रही रैगिंग के विरोध में सार्थक बहस हुई, कानून बनाकर पाबंदी लगाने की भी चर्चा हुई. वहां छात्राओं ने छात्राओं को नंगा कर अश्लील हरकतें की थीं. यह अजीब तथ्य है कि विकृति के प्रसार की गति तेज होती है. बंबई, दिल्ली में जो फूहड़ता होती है, वह गांवों-कस्बों में कब आ धमकती है यह हम घटना के बाद ही गौर करते हैं.

रांची भी उस अश्लील और फूहड़ मनोवृत्ति की शिकार हो चुकी है. रांची वीमेंस कालेज की यह घटना प्रमाणित करती है, लेकिन क्या संसद के कानून फूहड़ता की इस तेज धार को बांध पायेंगे? दरअसल पूरे सांस्कृतिक क्षय का यह परिणाम है. देश में जिस उपभोक्तावादी-भौतिक संस्कृति का दौर है, उसमें आनंद का सृजन इन्हीं हरकतों से होता है. क्या कारण है कि आज अधिकांश छात्राओं के बीच चर्चा के विषय फिल्मी नायक -नायिकाएं हैं? फिल्मों के अश्लील दृश्य या अपुष्ट कानाफूसी में रससिक्त होकर कैशोर्य आनंद उठाते हैं.

दरअसल यह उपभोक्तावादी संस्कृति के पतन की तेजधार है. इसी कारण कपड़ों से सज-धज कर, महंगी चीजों से लक -दक होकर, भौतिक सुविधाओं से घिरे रह कर छात्राएं-महिलाएं, पश्चिम की उस चमक -दमक से आकर्षित हो चुकी है, जिससे मुक्ति के लिए पश्चिम का समाज बेचैन है. दरिद्र, गरीब और बेचैन मन नवनिर्माण नहीं करते, क्या कारण है कि अब हमारे समाज में कमलादेवी चट्टोपाध्याय, प्रीति वाडेकर, सरोजनी नायडू जैसी महिलाएं अब दुर्लभ होती जा रही है? शायद आज की अधिकांश छात्राएं इन्हें जानती भी नहीं होगी. उच्च नैतिक आदर्श और बौद्धिक प्रतिभा की महिलाएं आज क्यों सामने नहीं आ रही हैं?

भारतीय मूल्यों का विखंडन हो चुका है, क्योंकि यहां अब महानता की बराबरी प्रदर्शन, दिखावे, आधुनिकता के पतित लक्षण से की जाती है. प्रतिभा की जगह चापलूसी ने ले ली है. वे महिलाएं अब विलुप्त हो गयीं, जिन्होंने निजी दुख-संघर्ष झेल कर समाज-देश को सींचा. उन्हें अपने आत्मबलिदान के बावजूद जिंदगी के प्रति कोई शिकवा नहीं था. कोई मलाल नहीं था. कोई पश्चाताप नहीं था. जिंदगी की उदासी और त्रासदी को अपने तक सीमित रखा, पर समाज को समृद्ध बनाया. आंतरिक समृद्धि से मन निखरता है.

भारतीय सांस्कृतिक अवधारणा में तो महिलाएं उस मातृत्व भाव की सृजनकर्ता हैं, जिसे लौकिक परिभाषा में शब्दबद्ध नहीं किया जा सकता. उदारता, संवेदनशीलता का स्त्रोत ही सूख जाये, तो समाज कब तक बर्बर होने से बचता रहेगा? महिलाओं-नवयुवतियों के इस बदलाव को इस संदर्भ में आंकना यथार्थपरक होगा. पूरे देश में इस पतन को निरखने-परखने वाले बेचैन मन हैं, रांची में भी अवश्य हैं, पर समय उनके विरुद्ध है, आखिर बनी बनायी पगडंडी से चल कर तो नयी राह नहीं मिलेगी न?

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