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बढ़ती नक्सली ताकत!
– हरिवंश – ध्यानार्थ – श्री श्रवण गर्ग, समूह संपादक, दैनिक भास्कर सांसद सुनील महतो की हत्या से देश का शासक वर्ग स्तब्ध है. दिल्ली को भी एहसास हुआ है कि नक्सली चुनौती का समाधान आसान नहीं है. सुनील महतो, झारखंड के जमशेदपुर से सांसद थे. जमशेदपुर, जो देश और दुनिया में टाटा घराने के […]
– हरिवंश –
ध्यानार्थ – श्री श्रवण गर्ग, समूह संपादक, दैनिक भास्कर
सांसद सुनील महतो की हत्या से देश का शासक वर्ग स्तब्ध है. दिल्ली को भी एहसास हुआ है कि नक्सली चुनौती का समाधान आसान नहीं है. सुनील महतो, झारखंड के जमशेदपुर से सांसद थे. जमशेदपुर, जो देश और दुनिया में टाटा घराने के कारण जाना जाता है. यह वही औद्योगिक शहर है, जहां नक्सलवाद, के उदय (1969) के बाद, नक्सलियों ने इसके आसपास संगठन बनाये. जल, जंगल, जमीन के सवाल उठाये, जो आज भी अनसुलझे हैं.
जमशेदपुर के ही जेल में मेरी टायलर (ब्रिटिश महिला, पर नक्सली) बंद रहीं और मशहूर पुस्तक ‘माइ इयर्स इन इंडियन प्रिजंस’ लिखी, जो पेंग्विन से छपी थी. उसी क्षेत्र से सुनील महतो झारखंड मुक्ति मोरचा के टिकट पर चुने गये थे. उनकी हत्या से लोग इसलिए भी हैरान हैं, क्योंकि झामुमो नक्सली समूहों का घोषित दुश्मन कभी नहीं रहा. झामुमो, यूपीए का अंग है. झारखंड में भी यूपीए नेतृत्ववाली सरकार चल रही है.
पिछले लोकसभा चुनावों में नक्सलियों ने झारखंड में यूपीए की मदद की थी. इस कारण भी यह यकीन नहीं हो रहा था कि झामुमो या यूपीए समर्थक सांसद की हत्या नक्सली करेंगे. पर हत्या के बाद लगाये गये नारों से संकेत मिला कि यह पूरा आपरेशन नक्सली कार्रवाई के तहत है. दो दिनों बाद चिपकाये पोस्टर में नक्सलियों ने दावा भी कर दिया कि यह हत्या हमने की है.
सांसद सुनील महतो के साथ पुलिस के प्रशिक्षित कमांडो थे. पर नक्सलियों का आपरेशन, इतना प्रोफेशनल था कि पलक झपकते सबकुछ खत्म. कमांडो मार दिये गये, कुछेक भाग गये. उनके अत्यंत आधुनिक हथियार भी नक्सली ले गये. नक्सलियों या उनके एक भी समर्थक को मामूली खरोंच तक नहीं आयी. राजसत्ता की सुरक्षा व्यवस्था, पलक झपकते गायब हो गयी या खत्म हो गयी. इस पूरे प्रकरण का यह सबसे गंभीर पहलू है.
तथ्य यह है कि शहरी भारत या भारत के रहनुमा ‘नये भारत के उदय’ की दुनिया में डूबे हैं. ‘भारत महाशक्ति बन रहा है’, इसकी चर्चा में लगे हैं. पर भारत के गांव, पहाड़ और जंगल अशांत हैं. ’80 के दशक में मशहूर नक्सली नेता (बाद में भाकपा (माले) के महासचिव) स्वर्गीय विनोद मिश्र ने एक पुस्तक लिखी थी ‘धधकते खेत खलिहानों से’. तब वह भूमिगत थे और किंवदंती के रूप में चर्चित. उन दिनों बिहार के मैदानी इलाकों में खूनी संघर्ष चल रहा था. आज कमोबेश यही स्थिति नक्सल प्रभावित इलाकों में है.
1969 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से जन्मा नक्सलवाद आज भारत के 602 में से 170 जिलों में फैल गया है. इन लोगों ने नेपाल के काठमांडू से उत्तरी कर्नाटक तक ‘रेड कारीडोर बना लिया है. भारत के चौथाई भूभाग पर नक्सली काबिज हैं (द इकानामिस्ट, 19 अगस्त 2006).
उनके पास 25000 हथिायरबंद लोग हैं. (इकानामिक एंड पालिटिकल वीकली 22 जुलाई 2006) और 40,000 पूर्णकालिक कार्यकर्ता हैं (द इकानामिस्ट, 19 अगस्त 2006). इनके गुरिल्ले दस्तों से पुलिस खौफ खाती है. भारत के बेहतरीन, समृद्ध जंगलों के 19 फीसदी हिस्से पर नक्सली राज करते हैं. रिचर्ड महापात्र ने अपने एक शोध (‘ह इज द किंग’) में बताया है कि उड़ीसा में 2007 तक नक्सली 25 जिलों को नियंत्रित करने की योजना पर काम कर रहे हैं.
फिलहाल उड़ीसा सरकार मानती है कि 10 जिलों में नक्सली ताकतवर हैं. इस अध्ययन का यह भी निष्कर्ष है कि आगामी कुछ वर्षों में भारत के 50 फीसदी जंगल नक्सलियों के प्रभाव क्षेत्र में होंगे. छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, आंध्रप्रदेश और झारखंड के जंगलों में, वन विभाग के अफसरों-कामगारों का आना-जाना 40 फीसदी घट गया है.
देश के 7000 गांवों के 30 करोड़ लोग इस समस्या से प्रभावित हैं. सीएनएन-आइबीएन अध्ययन के अनुसार भी देश के कुल 602 जिलों में से 170 जिले इस समस्या से प्रभावित हैं. 51 जिलों में गंभीर स्थिति है. 62 जिले आंशिक रूप से प्रभावित हैं. 18 जिलों में नक्सली उपस्थिति दर्ज की गयी है. नये 34 जिलों पर नक्सली नेताओं की निगाह है.
एक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान (सिटी ग्रुप इन कारपोरेटेड) ने हाल में अध्ययन कर बताया है कि इन नक्सल प्रभावित इलाकों में 2639 बिलियन डॉलर के निवेश, बड़ी परियोजनाओं में होने हैं. पर सब ठप हैं. उड़ीसा में 2509 बिलियन डॉलर और छत्तीसगढ़ में 130 बिलियन डॉलर. इस रिपोर्ट के अनुसार भारत की सबसे बड़ी भावी चुनौती नक्सलवाद ही है.
प्रधानमंत्री इस स्थिति से वाकिफ हैं. इसलिए 13 अप्रैल 2006 को उन्होंने मुख्यमंत्रियों को संबोधित करते हए कहा कि नक्सलवाद, देश के लिए अकेले अब तक की सबसे बड़ी आंतरिक चुनौती है. झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक के आदिवासी इलाके नक्सली प्रभाव में हैं.
गौर से देखने पर पता चलेगा कि ये देश के सबसे समृद्ध खनिज संपदा क्षेत्र हैं. साथ ही विकास की दृष्टि से उपेक्षित. स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी संरचना, जहां खराब और कमजोर है. इन इलाकों में खुला प्रशासनिक भ्रष्टाचार है.
इन इलाकों में विकास के लिए अपार धनराशि आ रही है. पर उसका आंशिक अंश भी धरातल पर नहीं पहुंच रहा है. बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं से लाखों की संख्या में विस्थापित लोग इन इलाकों में हैं. राजनीतिक दलों की रुचि ‘ग्रासरूट पालिटिक्स’ में रही नहीं, इसलिए गरीबों-वंचितों-पीड़ितों के बीच ही नक्सली रहते हैं. किसी राजनीतिक दल के नेता या कार्यकर्ता अब गांवों तक नहीं जाते. वहां बेरोजगार युवक नक्सली काडर बन रहे हैं.
सारांश यह है कि राजनीति ने नक्सल प्रभावित इलाकों में मैदान खाली कर दिया है, जिसे नक्सली ताकतें भर रही हैं. देश की अर्थ समृद्धि में जिन प्राकृतिक संसाधनों (लकड़ी, जल, कोयला, लौह अयस्क वगैरह) की महत्वपूर्ण भूमिका है, वे इन्हीं आदिवासी इलाकों से आते हैं. पर इन समृद्ध इलाकों के आदिवासी लगातार गरीब होते जा रहे हैं.
नक्सलियों की ताकत छिपी है गांवों में, गरीबों में, वंचितों में, शोषितों में. व्यवस्थागत अन्याय और भ्रष्टाचार उन्हें ऊर्जा देते हैं. उनके रहनुमा अपने कामकाज, दृष्टि और विचारधारा में स्पष्ट हैं. वे जानते हैं कि उनकी ताकत का स्रोत है- गहराती, फैलती सामाजिक-आर्थिक विषमता.पर नक्सली सबसे बड़ी भूल कर रहे हैं कि वे हिंसा से बदलाव चाहते हैं.
अब तक दुनिया के इतिहास में ऐसा कहीं नहीं हुआ है. उनकी इस सैद्धांतिक प्रतिबद्धता का उत्तर, प्रखर अहिंसक राजनीति, विचारपरक राजनीति, नैतिक राजनीति, ईमानदार व पारदर्शी प्रशासन, गरीबों-वंचितों के प्रति संवेदनशील दृष्टि ही दे सकती है. इस तरह की राजनीति का झारखंड या नक्सलवाद से प्रभावित इलाकों में क्या स्कोप (जगह) है?
कहीं भी इस तरह की भिन्न राजनीति के तीन स्रोत हो सकते हैं-(1) राजनीतिक दल (2) सरकार, मंत्री, विधायक, नौकरशाही यानी रूलिंग इलीट (पूरी व्यवस्था) और (3) विधायिका. झारखंड में इन तीनों से आप कोई उम्मीद कर सकते हैं? राजनीतिक दल, आधुनिक भाषा में ‘माल’ (अमेरिकी तर्ज पर भारतीय बाजारों में बड़े-बड़े माल बन रहे हैं, जहां तरह-तरह की दुकानें हैं) बन गये हैं.
हर दल के राजनीतिक माल में हजारों दुकानें हैं. यानी एक दल में ही हजार खंड, हर व्यक्ति की अकेली दुकान. व्यक्तिवाद, अहं दलों में प्रमुख हो गये हैं. विचारधारा की कोई जगह नहीं रही. इन दलों को राजनीतिक दुश्मनों से कोई खतरा नहीं है. हर दल के अंदर ही महाभारत मचा हुआ है.
जब संस्थागत दलों की यह स्थिति है, तो झारखंड में निर्दलीयों का कमाल दुनिया देख रही है. न किसी दल में कोई विचारधारा है, न चरित्र. झारखंड की राजनीति समय से 100 वर्ष पहले की पटरी पर दौड़ रही है, जिसका संबंध अपने समय की चुनौतियों, सवालों और घटनाओं से नहीं है. यह राजनीति, नक्सली चुनौतियों को कैसे ‘फेस’ (सामना) कर सकती है? झारखंड के राजनेताओं की राजनीति, तीन-तिकड़म और आत्मकेंद्रित व्यवहार, आम जनता को राजनीति के प्रति निरपेक्ष और उदासीन बना रहा है. सरकार, मंत्रियों और विधायकों की स्थिति देख कर नफरत होती है.
नक्सली समूहों में तेज-तर्रार अपने वसूलों के प्रति समर्पित लोग हैं, जो ऐसे सवालों को लेकर जनता के बीच जाते हैं. परचे लिखते हैं, पोस्टर लगाते हैं, लेखों में दमदार तर्क देते हैं. वे बताते हैं कि जनता से वसूले गये कर से कैसे शासक वर्ग आराम की जिंदगी जी रहा है. कैसे गरीब आदमी भी हर चीज पर अप्रत्यक्ष कर देता है, जिससे राजकोष समृद्ध होता है. उस राजकोष का सरासर दुरुपयोग? ये तर्क लोगों को प्रभावित करते हैं.
यह सही है कि आज की व्यवस्था में भ्रष्टाचार अब मुद्दा नहीं रहा, नैतिक सवाल नहीं रहा. पर दुनिया के विशेषज्ञ एक स्वर में कह रहे हैं कि विकास के रास्ते में भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा है. झारखंड में भ्रष्टाचार की स्थिति स्तब्धकारी है. नक्सली इस नाजुक मुद्दे को उठाते हैं.
वे तर्क देते हैं कि हम लेवी वसूलते हैं, तो बदलाव के संघर्ष की फंडिंग करते हैं. प्रत्येक कार्यकर्ता को हर माह पैसा देते हैं. पर नेता या अफसर पैसा कमा कर परिवार भरते हैं. नक्सलियों के ये तर्क लोगों के दिलो दिमाग में जगह बनाते हैं. अगर सरकार सचमुच नक्सलियों के खिलाफ कारगर लोकतांत्रिक अभियान चलाना चाहती है, तो चाल-चरित्र और सोच में उसे गुणात्मक परिवर्तन करना होगा.
जिस विधायिका में इस विषय पर गंभीर ‘डिबेट’ (पूरी बहस) होनी चाहिए थी, वहां क्या हो रहा है? झारखंड बनने के बाद से, राज्य के इस सबसे गंभीर मुद्दे पर शायद ही गंभीर विमर्श हुआ हो. एक नयी लोकतांत्रिक राजनीति के लिए आम सहमति बनी हो. जिस विधानसभा में एक ही दल का एक आदमी ट्रेजरी में बैठता है, दूसरा विपक्ष में. आजसू दल के एक प्रतिनिधि ट्रेजरी पक्ष में हैं, दूसरे विपक्ष में.
इसके पहले एनडीए राज में दो विधायकों के खिलाफ शिकायत दर्ज की गयी थी. मामले लंबित रहे. जब सरकार जाने को हुई, तो ताबड़तोड़ सुनवाई की तैयारी होने लगी. क्या यह विधानसभा, झारखंड की राजनीति को एक नयी रोशनी दे सकती है?
दरअसल नक्सली समस्या से निबटने के लिए आज एक नयी, नैतिक, पारदर्शी, जनता के प्रति प्रतिबद्ध, ईमानदार, लोकतांत्रिक राजनीति चाहिए और यह काम राजनीतिक दल ही कर सकते हैं, पर मौजूदा तौर-तरीके से नहीं. राजनीतिक दलों का कायाकल्प हो, तो यह शायद एक नयी शुरुआत संभव है.
राजनीति में एकमात्र जयप्रकाश नारायण थे, जो नक्सल प्रभावित इलाकों में गये, वहीं रहे और काम किया. उन्होंने पुस्तक भी लिखी ‘आमने-सामने’. क्या आज के राजनीतिज्ञ उनसे कुछ सीखेंगे?
दिनांक : 09-03-07
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