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दिल्ली यानी देश का ””झारखंडीकरण””

– हरिवंश – एक मित्र ने दिल्ली की राजनीति को देख कर कहा, दिल्ली यानी देश का झारखंडीकरण हो गया है. मित्र हैं, तो मुंबई के, पर इन दिनों दिल्ली का नजारा देख रहे हैं, देश की राजधानी से. ‘झारखंडीकरण’ से उनका आशय था, नरसिंह राव जमाने में हुआ सांसद रिश्वतकांड, जिसने झारखंड को चर्चित […]

– हरिवंश –
एक मित्र ने दिल्ली की राजनीति को देख कर कहा, दिल्ली यानी देश का झारखंडीकरण हो गया है. मित्र हैं, तो मुंबई के, पर इन दिनों दिल्ली का नजारा देख रहे हैं, देश की राजधानी से. ‘झारखंडीकरण’ से उनका आशय था, नरसिंह राव जमाने में हुआ सांसद रिश्वतकांड, जिसने झारखंड को चर्चित बना दिया. इतना ही नहीं, उन्होंने याद दिलाया कि झारखंड बनने के बाद झारखंड की सरकारों के गठन की प्रक्रिया ने झारखंड को और ख्यात (या कुख्यात) कर दिया.
शिबू सोरेन सरकार का गठन, फिर तुरंत पतन की यादगार घटनाएं. पुन: एनडीए की सरकार गठन में विधायकों की देशव्यापी यात्राएं. फिर कुछेक दिनों बाद अचानक यूपीए सरकार बनने के दौरान झारखंडी विधायकों की देशव्यापी यात्राएं और सौदेबाजी की चर्चाएं. निर्दलीयों की भूमिकाएं. पाला पलटने और लेनदेन की बातें.
फिर झारखंड से रिलायंस ग्रुप के राज्यसभा प्रत्याशी बने नाथवाणी जी के चुनाव के दौरान तो झारखंडी विधायकों ने देश में विशिष्ट ‘शोहरत’ अर्जित कर ली. इस तरह, उक्त पत्रकार मित्र की नजर में झारखंड की राजनीतिक संस्कृति, खरीद-फरोख्त, पाला-पलटने, आयाराम-गयाराम की पहचान बन गयी है. यानी भारतीय राजनीति के हरसंभव दुर्गुण, सड़ांध और पतन की प्रतीक. और अब दिल्ली में यही ‘झारखंडी राजनीतिक संस्कृति’ आदर्श बन गयी है.
दिल्ली की इस राजनीतिक हलचल को राजनीतिक टीकाकारों-टीवी के विश्लेषकों ने ‘सांसदों का घोड़ामंडी’ बताया है. ऐसे अन्य कई विशेषण दिये जा रहे हैं. पर वरिष्ठ पत्रकार मित्र ने एक नयी बात बतायी. दिल्ली में सुबह कोई कहीं होता है, दोपहर में दूसरे खेमे में और शाम या रात में तीसरे खेमे में. झारखंड में यह होता रहा है कि दिन में कहीं और रात में कहीं और. इस विश्वासमत परीक्षा में सरकार रहे या जाये, पर एक असाधारण घटना तो हो चुकी है.
सांसद अविश्वसनीय हो चुके हैं. वर्ष 1993 में झारखंड के सांसद (झामुमो) बदनाम हुए. अब तो लगभग सभी दल और देश के अलग-अलग हिस्सों के सांसद उसी रास्ते पर चल पड़े हैं. खुद बर्द्धन या मुलायम या अन्य बड़े नेता सौदेबाजी की बात (25 से 30 करोड़) कह चुके हैं.
मायावती ने भी पूछा है कि यूपीए ने ‘कितने सांसद खरीदे, साफ करे’ ? कांग्रेस के बड़े नेता सार्वजनिक बयान दे रहे हैं कि भाजपा, जदयू और शिवसेना के कुछ सांसदों पर उन्हें भरोसा है और इन ‘विपक्षी’ सांसदों के बल यूपीए सरकार बच जायेगी. पर कांग्रेस यह नहीं खुलासा कर रही कि धुर दक्षिण से या मध्य मार्ग से अचानक इन सांसदों का कांग्रेस-प्रेम कैसे उमड़ गया. इनके पीछे की शर्तें क्या हैं? सौदेबाजी का यह राज भले छुपाया जाये, पर देश देख रहा है.
शाहिद सिद्दिकी हैं, तो राज्यसभा के सदस्य. पर समाजवादी पार्टी ने उन्हें पत्रकार से सांसद बनाया. शाम तक टीवी पर समाजवादी पार्टी और मुलायम सिंह के गुण गा रहे थे. उसी दिन मायावती से मिले. फिर कहा, समाजवादी पार्टी में दम घुट रहा था, अब बसपा में चला गया हूं. अजीत सिंह की शर्तों में से एक को तो कांग्रेस ने ‘जेट गति’ से लागू किया.
उनके पिता चौधरी चरण सिंह के नाम से एयरपोर्ट का नामकरण. फिर वह मायावती से मिले और पाला बदल लिये. ‘किस-किस को गिनायें, कहां-कहां तक गिनायें’ , दिल्ली के इस सांसद मंडी या घोड़ामंडी की बातें?
सरकार जीते या हारे, पर संसद हार चुकी है. सांसद भरोसा खो चुके हैं. भारतीय संघ का प्रतिनिधित्व करनेवाली सबसे ताकतवर संस्था है, ‘संसद’ . संसद की मर्यादा, गरिमा और नैतिक ताकत अक्षुण्ण है, तो लोकतंत्र सुरक्षित है.
पर जब संसद के प्रति लोकविश्वास में कमी होगी, तो अराजकता या माओवादियों को कौन रोक पायेगा? अमेरिका के महान जजों में से एक ‘जस्टिस लर्नेड हैंड’ ने आजादी के बारे में एक ऐतिहासिक वाक्य कहा था, ‘आजादी तो औरत-मर्द के जेहन में होती है. दिलों में होती है. जब यह आजादी लोगों के जेहन और दिलों में मर जाती है, तो कोई संविधान, कोई कानून, कोई अदालत इसकी रक्षा नहीं कर सकता. पर जब तक यह आजादी लोगों के दिलों-दिमाग और जेहन में जीवित है, तब तक न कोई संविधान चाहिए, न कानून व अदालत, ताकि इसकी रक्षा हो?
यह बात ‘पालिटिकल मारिलिटी’ (राजनीतिक नैतिकता) पर हूबहू लागू होती है. अगर पालिटिकल मारिलिटी है, तो कोई कानून संविधान या अदालत न भी हो, तो सर्वश्रेष्ठ समाज बन सकता है. पर दिल्ली के सांसद घोड़ामंडी में यह पालिटिकल मारिलिटी खुलेआम नीलाम हो रही है.
बिक रही है. ब्रिटेन में सिर्फ परंपराएं ही तो हैं, लिखित संविधान नहीं. पर सार्वजनिक जीवन में मूल्य हैं. नैतिकता है. बात की साख है. वहां सिद्धांत या आस्था, पैसे से नहीं खरीदे बेचे-जाते. मंडी और बाजार में बोली लगती है, वहां पैसों के गुलाम खरीदे-बेचे जाते हैं. जो खुद को बेचते-खरीदते हैं, उनकी आत्मा नहीं होती. वे बंधक होते हैं. गुलाम बन चुके, आत्मा गिरवी रख चुके ऐसे सौदागारों से सरकारें बच सकती हैं या गिरायी जा सकती हैं, पर देश या लोकतंत्र की हिफाजत नहीं हो सकती.
विंस्टन चर्चिल ने कहा था, ‘इस सच या तथ्य का इतिहास गवाह है कि जब भी सभ्यताओं ने आराम या सुमीता (कनवीनयंस) को विश्वास या आस्था (कनविक्शन) की जगह प्राथमिकता दी, उन्होंने अपने पतन-मौत की इबारत तैयार कर ली.
दिल्ली की सांसद मंडी में विचारों और आस्था का जो मोल-भाव, सत्ता लोभ या अन्य तौर तरीके से हो रहा है (तत्काल लाभ के लिए), वह आजादी के 60 साल बाद ही भारत की बरबादी का अध्याय तैयार कर रहा है.
यह क्यों नहीं हो सकता कि ‘न्यूक्लीयर डील’ के लाभ या हानि पर देशव्यापी चर्चा हो. हर दल अपने सांसदों को मुक्त कर दें कि वे अपने विचारों के आधार पर वोट डालें. अंतरात्मा की आवाज सुनें. इस देश की मिट्टी की फरियाद सुनें. आजादी की लड़ाई में कुरबान हुए उन पूर्वजों का ऋण, विवेक से, पवित्रता से और नैतिकता से चुकायें.
यूपीए-एनडीए और तीसरे मोरचे के बड़े नेता बैठ कर ऐसा निर्णय लें. फिर सरकार को अधिकार दें कि खरीद-फरोख्त पर निगाह रखने के लिए जांच एजेंसियां स्वतंत्र ढंग से काम करेंगी.
देश के जानेमाने लोग वाच डॉग की तरह काम करेंगे. किसी को कोई प्रलोभन नहीं. न गद्दी का, न भविष्य में टिकट का. न भौतिक लेनदेन का. कोई दागी बना, तो हर दल शपथ ले कि वह उसे कभी दल में नहीं रखेगा. और उसके खिलाफ कानून सख्त कार्रवाई करेगा.
पर ऐसा होगा नहीं? क्यों? क्योंकि राजनीति में खरे सिक्के तो अब रहे नहीं. खोटे सिक्के हैं. ग्रेशम नियम के अनुसार खोटे नेताओं ने खरे नेताओं को घर भेज दिया है. वनवास में. तब क्या रास्ता है? जान एफ केनेडी ने कहा था, जब तक राजनीति में अच्छे लोग नहीं आयेंगे, तब तक कुछ नहीं होनेवाला? क्या घरों में बैठे लोग, देश और समाज के बारे में सोचनेवाले लोग इस मुल्क की इस स्थिति पर गौर करेंगे?
दिनांक : 21-07-08

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