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झारखंड : अब किधर?
– हरिवंश – पूत के पांव पालने में. यह लोक कहावत भविष्य का संकेत करती है. इस कसौटी पर लोग झारखंड में राष्ट्रपति शासन परख रहे हैं. 12 दिन हुए , मोटे तौर पर संकेत बेहतर गये हैं. सामान्य जनता के लिए सुकून देनेवाले. राहत पहुंचानेवाले. 1. झारखंड का माइंस विभाग, झारखंड को दुनिया में […]
– हरिवंश –
पूत के पांव पालने में. यह लोक कहावत भविष्य का संकेत करती है. इस कसौटी पर लोग झारखंड में राष्ट्रपति शासन परख रहे हैं. 12 दिन हुए , मोटे तौर पर संकेत बेहतर गये हैं. सामान्य जनता के लिए सुकून देनेवाले. राहत पहुंचानेवाले.
1. झारखंड का माइंस विभाग, झारखंड को दुनिया में बिकाऊ और बदनाम बना चुका है. उसका अतिरिक्त प्रभार एक ईमानदार अफसर को सौंपा गया.
2. सरकार बदलवाने वाले, सफेदपोश मोबाइल दारोगाओं (सफेदपोश डकैत) के खिलाफ कार्रवाई.
3. इसी तरह सड़क विभाग का अतिरिक्त प्रभार एक अच्छे अफसर के हाथ में गया.
4. जेपीएससी की एक परीक्षा में शिकायत पर जांच का आदेश
5. विजिलेंस को मजबूत करने की कोशिश. उसमें आइजी और एसपी दिये गये. दरअसल झारखंड की सफाई या पुनर्जन्म का काम यही विभाग कर सकता है. अगर झारखंड लूटनेवाले कानून के दायरे में आ गये, तो ही झारखंड का पुनर्जन्म संभव है.
6. अन्य काम भी, मसलन डॉक्टरों की हड़ताल खत्म होना या अराजपत्रित कर्मचारियों की हड़ताल खत्म होना.
7. जाजोरिया प्रसंग में हुए अन्याय के खिलाफ जांच का आदेश.
पर ये सारे कदम मरहम हैं. पिछले आठ वर्षों में भ्रष्टाचार ने झारखंड के शरीर पर ऐसे-ऐसे घाव पैदा कर दिये हैं, जो मामूली राहत से नहीं भरनेवाले. पर राष्ट्रपति शासन की एक मर्यादा और सीमा है. वह चमत्कार नहीं कर सकता. पर उसके अंतर्गत, अगर समयबद्ध ठोस कदम उठाये जा सके, तो झारखंड का पटरी पर लौटना संभव है. ये ठोस कदम क्या हो सकते हैं.
1. अब तक ‘रूल्स ऑफ बिजनेस’ नहीं बना. यह तुरंत बनना चाहिए.
2. राज्यपाल के सलाहकारों के विभागों का अविलंब बंटवारा.
इन दोनों कदमों के बाद पहली चुनौती है, झारखंड में रूल ऑफ लॉ (कानून राज की वापसी) सुनिश्चित कराना. यह राज्य संविधान के अनुसार चले, इसकी व्यवस्था. अब तक सरकारों और मंत्रियों ने इसे निजी संपत्ति की तरह चलाया है. इसका परिणाम है कि झारखंड के साथ जो बरताव हुआ, वह विदेशी लुटेरों ने भारत के साथ किया. फर्क यह है कि यह काम झारखंडियों ने झारखंड के साथ किया है. अपने कामों से झारखंड सरकार को अब संदेश देना है कि फाइलें या निर्णय, पैसों और पैरवी से संचालित नहीं होते, संविधान के कानून के तहत होते हैं. मसलन, कुछ विभाग ऐसे हैं, जो भ्रष्टाचार के लिए ही कुख्यात हैं.
जैसे जेएसएमडीसी (झारखंड मिनरल डेवलपमेंट कारपोरेशन). बाबूलाल मरांडी जब पहली बार मुख्यमंत्री हुए , तभी यह बात सार्वजनिक हुई कि वहां से नियमित पैसा ऊपर के अफसरों और मंत्रियों तक पहुं चता है. तब एनडीए के कुछ लोगों ने ईमानदार कोशिश की कि यह सब बंद हो. पर बंद नहीं हुआ. वह धारा लगातार फलती-फूलती और पसरती गयी. ऐसी अनेक धाराएं हैं, जो झारखंड बनने के साथ ही विरासत में मिली. इन धाराओं पर राष्ट्रपति शासन में ही अंकुश संभव है.
इनकी जड़ों पर कठोर प्रहार हुए, इन्हें रोकने में कामयाबी मिली, तो झारखंड में स्वत: एक बड़ा संकेत जायेगा. अर्थशास्त्र में एक अवधारणा है, डिमांस्ट्रेटिव इफेक्ट (देखने का प्रभाव). इसके तहत ऐसे कठोर कदमों का असर स्वत: अन्य विभागों पर जायेगा. इसी तरह एक्साइज विभाग.
वहां शराब कांट्रेक्टर माफिया ऊपर तक दो करोड़ प्रतिमाह पहुं चाते थे. 15 महीने से शराब बेचने की एडहाक व्यवस्था को एक्सटेंशन मिल रहा है. टेंडर करा कर साफ सुथरे ढंग से काम कराने के प्रयास को असंभव बना दिया गया. राज्य को कई सौ करोड़ का नुकसान हुआ. मंत्री ही सरकार को लूटे, यह हाल! ऐसे अपराधों पर जांच होनी ही चाहिए.
कुपात्र अफसर : अर्थशास्त्र में ही ग्रेसम लॉ है. लोक जीवन में भी मशहूर और चर्चित. खोटे सिक्के, अच्छे सिक्कों को चलन से बाहर कर देते हैं. झारखंड के अच्छे नौकरशाह आज या तो हाशिए पर हैं या झारखंड से बाहर हैं. जो थोड़े-बहुत अच्छे अफसर महत्वपूर्ण पदों पर हैं, वे दिन रात टेंशन और मुसीबत में हैं. झारखंड की दुर्दशा का मूल कारण है, नौकरशाही का बड़ी तादाद में बिकना. अगर नौकरशाह कानून और संविधान के अनुसार चलते, अपने मुद्दों पर अडिग रहते, आत्मस्वाभिमान से सौदा नहीं करते, तो झारखंड की यह स्थिति न होती. मंत्री और सरकार क्या कर लेते? ब्यूरोक्रेसी अगर नहीं बिकती, तो झारखंड के मंत्री लुटेरे बनते? क्यों ईमानदार नौकरशाह भागने पर या बार-बार स्थानांतरण के शिकार हुए ? क्यों झारखंड में एक मंत्री नहीं हुआ, जो ईमानदार नौकरशाहों के साथ खड़ा हो और कहे कि ये लोग संविधान और कानून के प्रहरी हैं. राज्य के हित में काम कर रहे हैं.
हालांकि राष्ट्रपति शासन की सीमाएं हैं. पर बड़े स्तर पर एकाध चेंज करके यह संदेश तो नीचे जा ही सकता है कि अब कानून का राज है. ‘नो नॉनसेंस’ का मैसेज एकाध तबादलों से नीचे तक पहुं च सकता है. राज्यपाल, राष्ट्रपति शासन में सवेसर्वा हैं. वह संविधान के प्रहरी हैं. झारखंड में संविधान का चेहरा एक बार लोग जाने, आज इसकी जरूरत है. राष्ट्रपति शासन में अगर लोगों ने कानून के राज की झलक पा ली, तब वे नेताओं के गैरकानूनी चेहरे को पहचानने और उसके खिलाफ खड़े होने की स्थिति में होंगे. कौन सा कानून यह कहता है कि मंत्री अपने ही शासन में, अपने ही विभाग में, अपनी पत्नियों को कांट्रेक्टर बना दे? झारखंड में ऐसा एक नहीं, कई घटनाएं हैं.
ईमानदार और काम करनेवाले अफसरों के साथ झारखंड में जो सुलूक हआ है, वह अनकही व्यथा है. पुरानी बातें छोड़ दें. दो हाल के उदाहरण. जिस तरह हाड़ी से सिझते चावल के एक दाने को निकाल कर परखा जाता है कि चावल तैयार है या नहीं, उसी तरह.
देश ने झारखंड के दो आइएएस को ‘नरेगा एक्सेलेंस अवार्ड’ से नवाजा है. उधर झारखंड की राजनीति ने झारखंड को बिकाऊ और दलालों का अड्डा बनने का संदेश देश को दिया है. पर ऐसे अफसरों के काम से ही झारखंड को कभी कभार प्रतिष्ठा मिलती है. पर उनके साथ क्या हुआ? पूजा सिंघल, गोड्डा में अच्छा काम की, देश ने पुरस्कृत किया. झारखंड की सरकार ने उन्हें राजनीतिक कारणों से गोड्डा से हटाया. इतना ही नहीं, सात बार स्थानांतरित किया. अब वह डायरेक्टर सेकेंडरी स्कूल हैं. यह काडर पोस्ट नहीं है.
डायरेक्टर प्राइमरी स्कूल काडर पोस्ट है. वहां एक फारेस्ट अफसर हैं. नीतीन कुलकर्णी झारखंड के अच्छे अफसरों में से हैं. पर क्या हआ था उनके साथ? आधी रात में ट्रांसफर. राजनीतिक हुडदंग और कानून तोड़नेवालों के कारण. ये बानगी है. अच्छे अफसरों के पीछे कोई है नहीं. राष्ट्रपति शासन एकाध बड़े बदलाव कर इस दिशा में स्वस्थ मेसेज दे सकता है.
भ्रष्टाचार : झारखंड का उपनाम है, भ्रष्टाचार. यह बड़ी चुनौती है. भ्रष्टाचार के इस दुर्ग में सुराख बने या न बने, पर एक ईमानदार कोशिश संभव है. राष्ट्रपति शासन में विजिलेंस डिपार्टमेंट को सशक्त बनाने की कोशिश हुई है. इस विभाग को सक्षम बनाने के लिए जो भी संसाधन जरूरी हैं, उन्हें तत्काल उपलब्ध कराना चाहिए. प्राथमिकता के आधार पर. अच्छे अफसर, अच्छे जांचकर्ता, साफ-सुथरे रिकार्ड के डीएसपी, इंस्पेक्टर वगैरह. इस विभाग को समयबद्ध जांच का आदेश देना चाहिए.
सड़क चुरानेवाले, झारखंड में बड़े कारगर और प्रभावी हैं. मंत्रियों के सहयोग से, कांट्रेक्टरों के सौजन्य से झारखंड के माफिया इंजीनियरों ने राज्य बेचने का काम किया है. 19 जनवरी 2009 को झारखंड अभियंत्रण सेवा संघ ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की है. उसमें कई मामलों का उल्लेख किया गया है.
अत्यंत गंभीर और आपराधिक. मसलन, नारायण खां जल संसाधन विभाग के सहायक अभियंता हैं. उन्हें सहायक अभियंता, कार्यपालक अभियंता, अधीक्षण अभियंता और मुख्य अभियंता के काम सौंपे गये हैं. एक ही व्यक्ति को चार पद? यानी वह खुद अपने काम का मूल्यांकन कर सकता है. जांच कर सकता है. भुगतान कर सकता है.
शायद प्रशासनिक इतिहास में ऐसे आपराधिक काम न मिलते हों. इसी तरह सिद्धिनाथ शर्मा हैं, अधीक्षण अभियंता. दुमका का प्रभार उनके पास है. लघु सिंचाई का अतिरिक्त प्रभार है. मुख्य अभियंता का प्रभार है. थ्री इन वन. ब्रजमोहन कुमार ग्रामीण विशेष विभाग के कार्यपालक अभियंता हैं. अधीक्षण अभियंता का भी अतिरिक्त प्रभार उनके पास है.
वह मुख्य अभियंता विशेष ग्रामीण विकास (रांची) भी हैं. थ्री इन वन. अरुण कुमार यांत्रिक अभियंता हैं. वह लघु सिंचाई (यांत्रिक) के अधिक्षण अभियंता भी हैं. ऐसे अनेक उदाहरण झारखंड अभियंत्रण सेवा संघ की प्रेस विज्ञप्ति में है. ऐसे लोगों को तत्काल एक -एक पद तक सीमित करना जरूरी है. साथ ही कई विभागों का दायित्व एक व्यक्ति को सौंपने के पीछे लूट और भ्रष्ट मानस की जांच जरूरी है. एजी की रिपोर्ट है कि झाखंड में विभिन्न मदों में 6000 करोड़ रुपये बतौर अग्रिम निकाले गये हैं.
ये पैसे कहां हैं? किसने एडवांस लिए? किसने इसकी मंजूरी दी? 15-20 दिनों के अंदर इसकी जांच का आदेश देकर झारखंड में एक नयी शुरुआत हो सकती है. इस तरह के किसी एक गंभीर मामले को राज्यपाल के सलाहकार चाहें, तो सीबीआइ जांच के लिए रेफर करें. यह दुखद है, पर है सच कि झारखंड की मुक्ति या पुनर्जन्म या सफाई का रास्ता सीबीआइ जांच प्रक्रिया से होकर गुजरता है.
झारखंड में मूल चुनौती है, सिस्टम की बहाली. सिस्टम काम करे. दलाल, पैसे से निर्णय प्रभावित करनेवाले या सरकारी निर्णय खरीदनेवाले तत्व सरकारी कारीडोर में न दिखें, यह जरूरी है. हाइकोर्ट में हेलीकाप्टर के दुरुपयोग से संबंधित मामला चल रहा है. यह पढ़ कर रूस के जार और फ्रांस के सम्राट भी लिप्त हो जायेंगे.
उन्होंने भी कभी गरीब राज्य के पैसों का इस निर्ममता से दुरूपयोग नहीं किया होगा. राज-महाराजे, सामंत या विलासी तानाशाह भी इन कारगुजारियों के सामने शर्मिंदा होंगे?. गांव की एक कहावत है, अबर की लुगाई, गांव की भौजाई. कमजोर आदमी की पत्नी पूरे गांव में मजाक और ठिठोली का पात्र बन जाती है. झारखंड को इन नेताओं ने ऐसा ही बना दिया है. कोई लोक लाज और शर्म है ही नहीं. जिस राज्य में लोग भूखे मर रहे हैं, वहां के लोकतांत्रिक शासक हेलीकाप्टर के दुरुपयोग में कई-कई करोड़ खर्चते हैं.
कहां उड़ते हैं? किसे ले जाते हैं? क्या ढोते हैं? किसी नियम का पालन नहीं करते? जब यह सब चल रहा था, तो झारखंड के नौकरशाह क्या कर रहे थे? क्या उन्होंने यह सब बंद कराने की पहल की? फाइल में लिखा? सूचना है कि ऐसी कुछ उड़ानों में ब्लैकमनी ढोये गये. क्या मजाक बना दिया है कानून और व्यवस्था का? सरकार का हेलीकाप्टर और उसका यह गैर कानूनी दुरुपयोग? अपराधी चोरी छुपे उड़ते हैं, ब्लैकमनी ढोते हैं. यहां तो सरकार के लोग इस काम में लगे थे. यह अक्षम्य अपराध है.
सरकार बनेगी या नहीं?
झारखंड में यह कयास लगाया जाने लगा है कि राष्ट्रपति शासन कितने दिन? नयी सरकार बनाने की कोशिश चल रही है. यह प्रक्रिया चलती रहेगी. पर इससे निरपेक्ष राष्ट्रपति शासन में काम होना चाहिए. सवाल यह नहीं है कि किसका शासन कितने दिन? एक कहावत है, जीवन कितना लंबा है, यह बड़ा सवाल नहीं है. बड़ा सवाल यह है कि वह कितना अच्छा और कितना प्रभावी है.
झारखंड की राजनीति के रग-रग से वाकिफ लोग बताते हैं कि विधायक किसी कीमत पर सरकार चाहते हैं. एक जानकार का यह भी कहना है कि पक्ष और विपक्ष के विधायक इस सवाल पर एकमत हैं. हां, कुछ विधायक अपवाद हैं, जो विधानसभा को भंग करने की बात करते हैं. मसलन भाकपा माले. इस पार्टी का स्पष्ट मत है विधानसभा भंग हो. शुरू से ही.
झारखंड विकास मोरचा ने भी विधानसभा भंग करने की मांग की है. झाविमो 18 फरवरी को पचास हजार लोगों के साथ ‘घेरा डालो डेरा डालो’ कार्यक्रम भी कर रहा है. इसी तरह भाजपा भी 12 तारीख को ‘घेरा डालो डेरा डालो’ का आवाह्वन कर चुकी है. इन दोनो आंदोलनों के पीछे उद्देश्य है, विधानसभा भंग करने की मांग. पर इन दोनों दलों को खुद पर आत्मविश्वास नहीं दिखता. इन दोनों के विधायक, अगर इस्तीफा दे दें, तो विधानसभा भंग की स्थिति स्वत: बनने लगेगी. बाबूलाल मरांडी की पार्टी में तो दल के लोगों ने कहा भी कि हमारे विधायकों को इस्तीफा देना चाहिए. पर इस्तीफा के लिए कोई तैयार नहीं है. इसके पीछे क्या कारण हैं?
झारखंड की राजनीति के एक जानकार को मानें, तो एक-एक विधायक को साल में तीन करोड़ विधायक फंड मिलता है. इस विधायक फंड पर सामान्य कमीशन है 20 फीसदी. यानी 60 लाख. इस जानकार का कहना है कि झारखंड में अनेक ईमानदार विधायक हैं, जो ऐसी चीजों में हिस्सेदार नहीं हैं.
ऐसे विधायक हर दल-पक्ष में हैं. पर अनेक हैं, जो यही करते हैं. 20 फीसदी तो तय कमीशन है. जो अधिक धर्नाजन के आकांक्षी हैं, वे 30-40 परसेंट या 50 परसेंट तक कमीशन वसूलते या लूटते हैं. भला वे यह राशि कैसे छोड़ सकते हैं? जो सरकार में चले जाते हैं, उनकी चांदी ही चांदी है.
जिन मंत्रियों के रहस्य सामने आये हैं, उनसे लगता है कि चार-छह सौ करोड़ कमाना मंत्रियों के दाएं-बाएं हाथ का खेल है. भला यह लाभ छोड़ कर सरकार से कौन बाहर रह सकता है?
पर सरकार बनने में पेंच है. अब एक नयी बात हो गयी है. लोकसभा चुनाव. यह चुनाव अप्रैल-मई में संभावित हैं. फरवरी या मार्च से आचार संहिता भी लग जायेगी. लोकसभा के बाद क्या दृश्य होंगे, यह ईश्वर जाने. तब तक कमाई का बहुत मौका हाथ में नहीं है. हां, सरकार बन जाने पर मंत्रियों को लाल बत्ती और सुरक्षा जरूर मिल जायेगी और विधायकों को फंड.
पर झारखंड में राजनीतिक विवाद अभी कायम है. शिबू सोरेन ने दो नये नाम देकर कांग्रेस और राजद को पशोपेश में डाल दिया है. पहले यूपीए के घटक और निर्दलीय चंपई सोरेन के नाम पर असहमत थे. अब झामुमो ने दो नये नाम दिये हैं. इन दोनों पर भी अगर यूपीए के घटक राजी नहीं होते, तो झामुमो यह मेसेज देने में सफल होगा कि यूपीए सबसे बड़ी पार्टी को अनदेखा कर रहा है.
अब झामुमो के लिए झामुमो के बाहर किसी नाम पर सहमत होना मुमकिन नहीं है. वैसे भी पार्टी में कई सवालों पर असहमति बाहर दिखाई दे रही है. मसलन महतो समुदाय की यह मांग कि सुधीर महतो मुख्यमंत्री क्यों नहीं? इस प्रसंग को भी यूपीए के अन्य घटक दल हवा दे रहे हैं. इस तरह झामुमो में नया तनाव पैदा हो रहा है.
कांग्रेस पशोपेश में होगी. अब तक सरकारों और मंत्रियों के कुकर्म जगजाहिर हो चुके हैं. बड़े पैमाने पर जनता राष्ट्रपति शासन के पक्ष में है. अगर राष्ट्रपति शासन में सुशासन का संकेत जाता है, तो कांग्रेसी मानते हैं, यह उनके हक में होगा. क्या कांग्रेस यह लोभ छोड़ने की स्थिति में है? यह दोधारी तलवार है. अगर कांग्रेस सरकार बनवा देती है, तो वह अपने पैर में कुल्हाड़ी मारेगी.
सरकार बनने से अब यह संदेश जायेगा कि जोड़-तोड़ करा कर कांग्रेस ने फिर कुशासन, भ्रष्टाचार और लूट का राज वापस करा दिया. मंत्रियों और सरकार के भ्रष्टाचार और पाप दुर्गंध देने लगे हैं. इस दुर्गंध को वापस करा कर क्या कांग्रेस, अपने लिए कब्र तैयार करेगी? क्या लोकसभा चुनाव की पृष्ठभूमि में कांग्रेस यह काम करेगी? इस बार भाजपा, झाविमो या भाकपा माले जैसे दल चुप नहीं बैठने वाले. भाकपा भी खिलाफ में खड़ी हो सकती है. वजह लोकसभा चुनाव हैं. राज्य सरकार के मंत्रियों के पाप इस कदर लोक मानस में दुर्गंध देने लगे हैं कि खुद राजद चुनावों के समय, यह गंदा बोझ उठाने को तैयार होगा? यही कारण है कि झामुमो, सत्ता अपने हाथ में चाहता है.
वह किसी निर्दलीय की बदनामी या पाप की गठरी उठा कर, इस लोकसभा चुनाव में डूबना नहीं चाहता. कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों में अकेले चलने का निर्णय लेकर दूरगामी संदेश दिया है. झारखंड के लिए कांग्रेस के इस निर्णय का संकेत है, कांग्रेस, झारखंड में सरकार बनवाने में या नये प्रयोग में अब दिलचस्पी नहीं लेनेवाली.
पर असल चुनौती मिलेगी विपक्ष से. बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा-रघुवर दास से. यह सही है कि झारखंड अगर भ्रष्टाचार और कुशासन का पर्याय बना, तो इसके लिए विपक्ष समान दोषी है.
जिस राज्य में इस तरह अराजकता, भ्रष्टाचार और गैरकानूनी काम हुए हों, वहां कोई विरोध में एक बड़ा आंदोलन नहीं चला? यह असाधारण घटना है. पर चुनावों की इस पृष्ठभूमि में यह स्पर्धात्मक राजनीति का दौर है. लोकसभा चुनाव होनेवाले हैं.
इसलिए सरकार गठन की पहल या विधानसभा को निलंबित रखने के खिलाफ ये दल ‘घेरा डालो डेरा डालो’ कार्यक्रम के लिए तैयार हैं. कारण लोकसभा चुनावों की पृष्ठभूमि में यह आंदोलन इन दलों को ऑक्सीजन देंगे. बाबूलाल मरांडी सचमुच अगर 50000 लोगों के साथ विधानसभा भंग करने के लिए घेरा डालो डेरा डालो कार्यक्रम चलाते हैं, तो वह अपना राजनीतिक आधार ठोस बनायेंगे.
यही स्थिति भाजपा के साथ भी होगी. पर क्या यूपीए घटक, यह राजनीतिक अवसर एनडीए को देना चाहेंगे? इसलिए सरकार बनाने की बेचैनी निर्दलीयों को ज्यादा होगी, दलों को कम. हां, लोकसभा चुनाव के बाद बदले दृश्य में अनेक नयी संभावनाएं बनेंगी. पनपेंगी.
दिनांक : 31-01-09
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