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झारखंड, समय से पहले तो नहीं बना?
– हरिवंश – सोवियत रूस की विफलता पर गंभीर अध्ययन-शोध हुए हैं. ऐसी ही एक पुस्तक (द राइज एंड फाल ऑफ द सोवियत इंपायर) पढ़ रहा था, तो लेनिन का एक प्रसंग आया. मृत्यु के कुछेक महीने पहले सोवियत कामरेडों के कामकाज-आचरण को देख कर खिन्न लेनिन ने कहा ‘जर्मन लोगों से सीखो! आप अधम […]
– हरिवंश –
सोवियत रूस की विफलता पर गंभीर अध्ययन-शोध हुए हैं. ऐसी ही एक पुस्तक (द राइज एंड फाल ऑफ द सोवियत इंपायर) पढ़ रहा था, तो लेनिन का एक प्रसंग आया. मृत्यु के कुछेक महीने पहले सोवियत कामरेडों के कामकाज-आचरण को देख कर खिन्न लेनिन ने कहा ‘जर्मन लोगों से सीखो! आप अधम रूसी कम्युनिस्टों, आलसी हो. हमें यहां जर्मन लोगों को प्रशिक्षण देने-सीखने के लिए बुलाना चाहिए, अन्यथा यह सब महज शब्द जंजाल है.’
लेनिन ने अपने कामरेडों के लिए ‘लाउजी’ और ‘स्लगर्ड्स’ शब्दों का इस्तेमाल किया था. झारखंड की राजनीति, राजनेताओं के आचरण-बयानबाजी देख कर लेनिन का यह प्रसंग स्मरण आया, तो साथ ही चर्चिल भी याद आये. भारत की आजादी के प्रस्ताव पर बोलते हुए , ब्रिटिश पार्लियामेंट में चर्चिल ने भारत के नेताओं के संबंध में अत्यंत अपमानजनक बातें कहीं.
कहा, आजादी के लिए लड़नेवालों की इस पीढ़ी को गुजर जाने दीजिए, इसके बाद (अत्यंत अपमानजक कई विशेषण लगाये) देखियेगा, कैसे लोग सत्ता में आते हैं! झारखंड आंदोलन के लिए लंबी लड़ाई लड़नेवाले अनेक ईमानदार लोग आज यह सब देख कर कहते हैं कि इससे अच्छा तो बिहार था. ‘झारखंड’ मिल तो गया, पर हमारे नेता इसके काबिल नहीं थे. जो गांव सभा नहीं चला सकते, वे झारखंड में रहनुमा बने हुए हैं.
कैबिनेट के अंदर जो बातचीत-व्यवहार होता है या नेताओं के जो बयान एक-दूसरे के खिलाफ (आजकल ‘सड़क’ उद्घाटन प्रसंग चल रहा है) प्राय: आते रहते हैं, उनसे लगता है कि एक सभ्य समाज के लिए बोझ हैं, हमारे नेता. मामूली शिष्टाचार, मर्यादा, आत्मनियंत्रण और सलीका भी इनमें नहीं है. और ये पौने तीन करोड़ लोगों की रहनुमाई करते हैं.
आज बदलती दुनिया में झारखंड के भविष्य निर्माता हैं, ये राजनीतिज्ञ. झारखंड में रोज हर नेता आदिवासियों की चर्चा करता है, पर आदिवासी संस्कृति की खूबी मालूम है? गरीब से गरीब आदिवासी गांव में चले जाइए, साक्षर नहीं होंगे, संपन्न नहीं होंगे, पर उनकी शिष्टता-मर्यादा शालीनता, व्यवहार कुशलता से आप हतप्रभ रह जायेंगे.
अत्यंत शालीन होकर भी वे कठोर से कठोर तथ्य, बगैर संकोच कह देंगे. आपके सामने, आपकी कठोरतम आलोचना, पर मर्यादित रूप में. झारखंड के अपढ़ लोगों का यह संस्कार है, और पढ़े-लिखे शासकों, मंत्रियों-विधायकों का हाल? भारत का पढ़ा लिखा, कथित आधुनिक, सुसभ्य और सुसंस्कृत नागर समाज, इस आदिवासी समाज से ‘कल्चरलाइजेशन’ का पाठ पढ़ सकता है.
कैबिनेट के अंदर अशोभनीय दृश्य या मंत्रियों-विधायकों के सार्वजनिक वाकयुद्ध के पीछे कारण, क्या हैं? निजी अहं का टकराव! कोई मसला ऐसा नहीं है, जो ‘डायलाग-डिबेट या डिस्कशन’ (संवाद-बहस-बातचीत) से नहीं सुलझ सकता. इससे भी नहीं सुलझता, तो एक्सपर्ट्स एडवाइजर हैं, लीगल एडवाइजर हैं, कोर्ट है, विधानसभा है, परंपराएं हैं, मान्यताएं हैं. कहीं-न-कहीं समाधान जरूर होगा. भारत-पाकिस्तान और चीन-ताइवान … भी बातचीत से समाधान ढूंढ़ते हैं, तो क्या एक सरकार या एक ही सरकारी गिरोह के मंत्री-विधायक किसी उलझन को सुलझा नहीं सकते?
दरअसल यह दंभ-अहं की लड़ाई है, कौन बड़ा है? लोक किसे प्रभुत्वशाली मानें? किसे बड़ा कहें? ये ‘शासक’ या स्वघोषित ताकतवर लोग यह भूल जाते हैं कि इतिहास के कूड़ेदानों में दिग्विजयी लोगों के नाम भी मिट जाते हैं, तो इनका वजूद क्या है?
विधानसभा हो या कैबिनेट या विधायकों-मंत्रियों (हर दल में विवाद की जड़ में निजी अहं-दंभ है) की बयानबाजी का मंच मीडिया हो, एक सामान्य बात गौर करने लायक है. राज्य में बढ़ते भ्रष्टाचार पर कभी ये लोग आपस में नहीं लड़ते, एक-दूसरे की फजीहत नहीं करते. यह कैबिनेट झूठे आश्वासन देती है, तो उस पर कोई नहीं लड़ता कि कैबिनेट की साख घट रही है.
अकाल और पानी संकट से लड़ने के लिए एक लाख तालाब बनवाने की घोषणा इसी झारखंड सरकार ने की थी, पर उसका क्या हुआ? ऐसे अनंत मुद्दे हैं, जिनसे सरकार या मंत्रियों की कार्यक्षमता, एकाउंटबिलिटी योग्यता पर सवाल उठते हैं, पर इस पर कोई नहीं लड़ता. जो सरकार पांच वर्षों बाद भी रांची की ट्रैफिक व्यवस्था (जिस पर अक्सर हाईकोर्ट निर्देश देता है) ठीक नहीं कर सकती, उसका क्या इकबाल है? झारखंड के सांसद-विधायक किसलिए लड़ते हैं?
17 अप्रैल को एक खबर आयी कि पाटलिपुत्र एक्सप्रेस में कैसे झारखंड के एक सांसद और विधायक समर्थकों समेत घुसे और समर्थकों के लिए जबरन आरक्षण मांगने लगे. कोई जगह नहीं थी. टीटी को ट्रेन से बाहर फेंकने की धमकी दी. ट्रेन में उत्पात मचाया. ये आपराधिक प्रवृत्ति के लोग पूरे समाज को वही ट्रेन की बोगी समझ रहे हैं, जहां मूक यात्री यह उत्पात सहने को विवश थे.
राज्य में बिजली संकट है, जल संकट है, पलायन है, पर घोषणावीर राजनेता, इन सवालों पर टकरा रहे हैं? पांच वर्षों में 1000 करोड़ की बिजली खरीद हुई है. 800 करोड़ प्रतिवर्ष बिजली बोर्ड को नुकसान हो रहा है. पांच वर्षों में 1000 करोड़ की बिजली चोरी हुई है.
इन सवालों को लेकर कौन चिंतित है या झगड़ रहा है? बिजली बोर्ड जैसी ही कार्य संस्कृति अन्य सरकारी महकमों में हैं. प्रतिवर्ष कई सौ करोड़ रुपये सरेंडर हो रहे हैं, क्या अपनी इस कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए कभी इनमें लड़ाई होती है? नक्सली प्रभाव लगातार बढ़ रहा है, पर राजनीतिक दल, सरकार या विधायक (पक्ष-विपक्ष) इस सवाल पर मौन रहते हैं. विश्व की मशहूर पत्रिका द इकानामिस्ट (अप्रैल 15-21) में रिपोर्ट छपी है ‘द इस्ट इज रेड’ कि कैसे झारखंड में नक्सलवादियों ने खनिज इलाकों में अपना प्रभुत्व बढ़ाया है? पर यहां के शासक-नेता-राजनीतिक दल बेफिक्र हैं.
पर जब अपना स्वार्थ हो, तो देखिए? सिद्धांत, मतभेद, विचार भूल कर सब एक हो जाते हैं. मसलन विधायक वेतन-सुविधाएं बढ़ाने का मामला हो, तब सारे दल (भाकपा माले के एक विधायक अपवाद हैं) एक हो जायेंगे? तब इस सवाल का कोई उत्तर नहीं देगा कि झारखंड में प्रति व्यक्ति आमद में इजाफा का अनुपात, विधायकों-मंत्रियों की सुख-सुविधा-वेतन बढ़ोतरी से कम क्यों है? किस उल्लेखनीय उपलब्धि के बदले, यह बार-बार बढ़ोत्तरी?
झारखंड में सुशासन (गुड गवर्नेस) की क्या स्थिति है? झारखंड में हुए एमओयू में से एक भी बड़ा प्रोजेक्ट साकार हुआ? अगर नहीं हुआ, तो क्या अड़चनें हैं, क्या इस पर कभी विवाद हुआ?
क्या कभी झारखंडी नेता सोचते हैं कि जिस ‘बिहार सिंड्रोम’ के कारण झारखंड अलग राज्य बना, उस बिहार की आज क्या स्थिति है? ‘बिहार संभावनाओं के द्वार’ पर देखा जा रहा है. जिस बिहार को विकास, सुशासन वगैरह के पैमाने पर लोग ‘राइट ऑफ’ कर चुके थे, वहां एक नयी शुरुआत की चर्चा हो रही है.
पर जिस झारखंड में प्रकृति ने अपार खनिज संपदा-अवसर दिये हैं, वह राज्य संभावनाओं के द्वार से खिसक कर, अंधेरे में छलांग लगाता दिखाई दे रहा है? और नेताओं का आचरण … महज सत्ता, पैसा, प्रभुत्व और निजी अहं के ईद-गिर्द घूमता झारखंड का नेतृत्व वर्ग, राज्य को कहां ले जा रहा है?
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