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कितना मर चुके हैं हम?

– हरिवंश – ट्रेन लेट थी. तार चोरों ने 15 अगस्त को अपनी आजादी (या झारखंड की अराजक स्थिति) का इस्तेमाल किया था. बिजली तार कटने (मुरी-जमशेदपुर लाइन) से मुरी के पहले ट्रेन खड़ी थी. पर अखबार की प्रतीक्षा थी. 60 वर्ष की आजादी के अवसर पर देश-झारखंड में क्या हो रहा है? यह जानने […]

– हरिवंश –
ट्रेन लेट थी. तार चोरों ने 15 अगस्त को अपनी आजादी (या झारखंड की अराजक स्थिति) का इस्तेमाल किया था. बिजली तार कटने (मुरी-जमशेदपुर लाइन) से मुरी के पहले ट्रेन खड़ी थी. पर अखबार की प्रतीक्षा थी. 60 वर्ष की आजादी के अवसर पर देश-झारखंड में क्या हो रहा है? यह जानने की ललक थी.
पर अखबार देखते ही सन्न रह गया. राजधानी रांची में, काला शीशा लगी गाड़ी में छात्रा से बलात्कार. हाईकोर्ट के नाम छात्रा का पत्र पढ़ कर सिहरा.
कहां पहुं च गये हैं, हम? कितना मर चुके हैं? पहले लगा कि शासकों को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए. पर शासक ही क्यों मरें? जस प्रजा, तस राजा? अगर हमारी व्यवस्था यही है, तो हम जनता उसको कंधा दे कर श्मशान क्यों नहीं पहुं चा देते? हम इतने कापुरुष कैसे हो गये हैं?
हम समाज, जनता, व्यक्ति, परिवार के स्तर पर कितना मर चुके हैं? मशहूर कवि पाश ने कहा था, खतरनाक होता है, सपनों का मर जाना. पर यहां तो हम जीवित लाश हो गये हैं. समाज के तौर पर. सरकार के तौर पर. विवेकानंद ने कहा था, मौत खतरनाक नहीं है. वह तो तय है. राजा-रंक सबके लिए. खतरनाक है, जीते जी मर जाना. क्या हम जीते जी मर गये हैं.
क्या शासकों के घरों की बहू-बेटियों-औरतों के साथ हादसा होगा, तब व्यवस्था हिलेगी या सक्रिय होगी? मन, भावना, संवेदना के स्तर पर मर चुके, सिर्फ और सिर्फ धन-भोग के लिए आत्मा बंधक रख देनेवाले शासक और रहनुमा, क्या उस पीड़ित छात्रा के पत्र का दर्द महसूस करते हैं? अपयश, निंदा, कुख्याति से परे इन रहनुमाओं में मानवीय दिल भी रह गया है, क्या? याद करा दें, झारखंडी शासकों को. कैसे और क्यों जीते जी वे मर गये हैं या जीवित लाश लगते हैं? घटना 1980 के बाद की है. इंदिरा जी दोबारा प्रधानमंत्री बन चुकी थीं. देश के एक प्रमुख महानगर के एक अखबार में खबर छपी. रात में एक कामकाजी महिला का अपहरण चलती टैक्सी द्वारा किया गया.
टैक्सी रोक कर. ठीक रांची की इस घटना की तरह उक्त महिला से जोर-जबरदस्ती के बाद उसे एक उपनगर में उतार दिया गया. वह महिला घर गयी. घर में सभी परेशान थे. पहुं चते ही पति और दो बच्चे से मिल कर कहा, तुरंत नहा कर आती हूं . तब बात करूंगी. बाथरूम में केरोसिन डाल कर वह जल मरी. दूसरे दिन एक अंग्रेजी व एक स्थानीय मराठी अखबार में खबर छप गयी.
तब सूचना क्रांति नहीं हुई थी. इंटरनेट, मोडम व फैक्स नहीं थे. पर किसी ने प्रधानमंत्री इंदिरा जी को खबर कर दी. इंदिरा जी के यहां से तत्कालीन मुख्यमंत्री को निर्देश गया. सूर्यास्त से पहले अपराधी, पुलिस के कब्जे में हो.
संदेश साफ, दो टूक व स्पष्ट था. मुख्यमंत्री गद्दी पर रहना है, तो कानून का राज हो. उस करोड़ों की आबादी की मायानगरी में पुलिस ने ढूंढ़ लिया, अपराधियों को. सूर्यास्त से पहले.
किसी कोर्ट को हस्तक्षेप नहीं करना पड़ा. मीडिया को अभियान नहीं चलाना पड़ा. किसी महिला संगठन को आंदोलन नहीं करना पड़ा, किसी लोकसभा-विधानसभा में मुद्दा नहीं उठा. यह स्तर था, भारत में शासन करनेवालों का. वहां से आज हम कहां पहुं चे हैं?
कैसे झारखंड सरकार और पूरी व्यवस्था इस बलात्कार के लिए जिम्मेवार है? अगर बलात्कार से पीड़ित उस छात्रा ने आत्महत्या कर ली होगी, तो हत्या का सीधे दायित्व इस पूरी व्यवस्था और सत्ता प्रणाली पर है?
राज का प्रताप खत्म हो गया है. कानून-व्यवस्था का राज होता, तो अपराधियों में खौफ होता. इनका साहस देखिए. दिनदहाड़े वीमेंस कॉलेज की सड़क से लड़की उठा लेते हैं. न मुर्दा भीड़ का खौफ, न पुलिस-प्रशासन की परवाह. राजधानी में सरेआम यह हरकत. इस हालत के लिए जिम्मेवार कौन है? याद करिए, रांची पुलिस ने एक अच्छा अभियान चलाया था.
गाड़ियों से काले शीशे हटाये जायें. जिस मशहूर क्रिकेटर महेंद्र सिंह धौनी पर झारखंड या भारत आज नाज कर रहा है, उस धौनी की गाड़ी से भी रांची पुलिस ने काला शीशा हटाया. सरेआम. फाइन भी लिया. यह इस रूप में सराहनीय था कि कानून दो नहीं हो सकते, धौनी या आम आदमी के लिए. पर प्रभात खबर में लगातार काले शीशे की गाड़ियों की तसवीरें व विवरण छापता रहा कि मंत्री, विधायक, उनके लोग और अन्य सत्ता संरक्षित असरदार दलालों-ठेकेदारों की गाड़ियों में काले शीशे लगे हैं, उन्हें क्यों नहीं हटाया जाता? महेंद्र सिंह धौनी समाज के लिए नाज हैं.
उनकी गाड़ी से काला शीशा हटाया जाता है, पर समाज के जिन तबकों से खतरा है, जो अवांछित हैं, काले धंधे में लगे हैं, जिनका जीवन संसार काला है, उन्हें काले शीशे के पीछे चलने की छूट क्यों दी गयी? क्या कानून के दो रूप है? शासकों के लिए अलग व शासितों के लिए अलग? पर यह नहीं हुआ. अगर ऐसा हुआ रहता, तो निश्चित मानिए वीमेंस कॉलेज की उस लड़की के साथ जो हुआ , उसकी संभावना कम होती. इस तरह इस बलात्कार के लिए सीधे-सीधे वह व्यवस्था जिम्मेवार है, जो इस लोकतंत्र में दो तरह के कानून चला रही है. शासक वर्ग के लिए अलग. शासितों के लिए अलग.
व्यवस्था का महज यही एक अपराध नहीं है. दूसरा बड़ा अपराध. काले शीशोंवाली महंगी गाड़ियां, झारखंड में बेशुमार बढ़ी हैं. झारखंड बनने के बाद, झारखंड की सड़कों पर तरह-तरह की विदेशी महंगी गाड़ियां बेतहाशा दौड़ रही हैं. इन गाड़ियों की स्पीड और इनमें सवार लोग आतंकित करते हैं.
अगर कोई एनजीओ यह सर्वे करे कि इन महंगी गाड़ियों की सवारी करनेवाले कौन हैं? वे अचानक खाकपति से करोड़पति-अरबपति कैसे बन गये, तो इस बन रहे झारखंड की डरावनी तसवीरें स्पष्ट हो जायेंगी. दरअसल, भ्रष्टाचार के गर्भ से खरीदी गयी हैं ये महंगी गाड़ियां.
काला शीशा की अधिसंख्य गाड़ियों के अधिकतर सवार जानते हैं कि उनकी लक्ष्मी, समृद्घ जीवन और भोग-विलासता का उद्भव, श्रम की पूंजी, ईमानदारी प्रवृत्ति और साध्य-साधन की पवित्रता नहीं है. इस उद्दंड और आपराधिक वर्ग का जन्म ही, काली पूंजी और भ्रष्टाचार की पूंजी से हुआ है.
ये जानते हैं कि सत्ता के किस नट-बोल्ट को कब ब्लैकमेलिंग का, घूस का, लूट का, अपराध का मोबिल, ग्रीस और लुब्रिकेंट चाहिए. दिल्ली में हाल में एक मेहरोत्रा पकड़े गये. 5000 से अधिक प्लाटों के मालिक. 100 से अधिक महंगी गाड़ियां.
अनेक महंगे आलीशान फ्लैट. पता चला, वह नेताओं की कैंटीन चलाते थे. इस तरह ऐसे ‘मेहरोत्राज’ एक संस्कृति बन गये हैं, देश में. जो बिना श्रम किये, सिर्फ दलाली, घूस, कट मनी, वाजिब काम करने के बदले पैसे लेकर रातोंरात खाकपति से करोड़पति-अरबपति बने हैं. झारखंड बनने के बाद ऐसे लोगों की तादाद यहां काफी बढ़ी है.
पर झारखंड में इन ‘मेहरोत्राओं’ का उद्भव जानना चाहिए. कानून को तोड़ कर, अपराध के बल ये ‘मेहरोत्रा’ झारखंड में आज इतने पावरफुल हैं कि आप सब जान कर जड़ हो जायेंगे. इस बलात्कार के पीछे, झारखंड की यह ‘मेहरोत्रा संस्कृति’ है, जिसे हमारी व्यवस्था पाल-पोस रही है. यह वही व्यवस्था है, जिसे माननीय मुख्यमंत्री कहते हैं कि झारखंड में भ्रष्टाचार कैंसर बन गया है.
इस कैंसरग्रस्त व्यवस्था से निकले ताकतवर लोग भी मानसिक रूप से विक्षिप्त और कैंसरग्रस्त ही हैं. और ऐसा ही काम कर रहे हैं. इस तरह इस व्यवस्था के रहनुमा सीधे-सीधे इस लड़की की आत्महत्या (?) और बलात्कार के लिए जिम्मेवार हैं.
पर इस भुक्तभोगी छात्रा का साहस देखिए. उसने पत्र में हाइकोर्ट से अपील की है कि भविष्य में कोई छात्रा, इस नारकीय अनुभव से न गुजरे, इसके लिए कुछ करें. वह अपना नाम, अपनी छोटी बहन के भविष्य को बेहतर बनाने के लिए नहीं बताना चाहती. यानी उस पीड़िता लड़की का साहस, उदारता और विजन देखिए.
वह अपने लिए नहीं, भविष्य में किसी छात्रा के साथ ऐसा न हो, इसके लिए चिंतित है. अपनी बहन के लिए चिंतित है. स्पष्ट है कि यह कम उम्र की छात्रा दूसरों के लिए त्याग कर रही है. दूसरों के लिए साहस दिखा रही है. इस हालात में भी इस लड़की का यह त्याग, उदारता और साहस अभिनंदन योग्य है. निजी मत है, नयी पीढ़ी का यह नया साहस है, जो भटकते झारखंड-समाज को रास्ते पर लायेगा. ये नये साहस के, नये नायक हैं, हमारे.
पर इस कम उम्र की बच्ची के इस साहस-उदारता के प्रति हमारा-आपका फर्ज क्या है? क्या हम समाज के तौर पर जो जीवित लाश बन रहे हैं, इस घटना से कोई जबरदस्त झटका महसूस करेंगे, ताकि हममें जीवन का स्पंदन हो. और हम अपने लिए सुगबुगाएं . हरकत करें या उठें.
(कल पढ़िए इस बहादुर बच्ची के प्रति हमारा फर्ज क्या हो?)
दिनांक : 17-07

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