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चुनाव चर्चा में झारखंड सरकार, मंत्रियों के कामकाज, पर बचाव पक्ष मैदान से गायब

– सिमरिया के विभिन्न क्षेत्रों से लौट कर हरिवंश – सिमरिया उपचुनाव में इटखोरी प्रखंड की भूमिका निर्णायक है. ग्रासरूट वर्कर कहते हैं, इटखोरी जिस करवट, विजय पताका, उसी दिशा. फिलहाल इटखोरी से एकमुश्त समर्थन को लेकर सबका दावा बराबर है. कांग्रेस, भाजपा, जेवीएम का खासतौर से. भाकपा का आधार अन्य प्रखंडों में पुख्ता है. […]

– सिमरिया के विभिन्न क्षेत्रों से लौट कर हरिवंश –
सिमरिया उपचुनाव में इटखोरी प्रखंड की भूमिका निर्णायक है. ग्रासरूट वर्कर कहते हैं, इटखोरी जिस करवट, विजय पताका, उसी दिशा. फिलहाल इटखोरी से एकमुश्त समर्थन को लेकर सबका दावा बराबर है. कांग्रेस, भाजपा, जेवीएम का खासतौर से. भाकपा का आधार अन्य प्रखंडों में पुख्ता है. भारत के राजनीतिज्ञों से आशावान इस नक्षत्र में कोई दूसरा जीव नहीं. हार रहे होते हैं, फिर भी चुनाव परिणाम आने तक सबसे आगे होने का दावा करते हैं. और हारते ही तर्क सिद्ध वकीलों की तरह हार के कारण भी गिना देते हैं. बहरहाल सभी प्रमुख दावेदारों का दावा है, इटखोरी हमारे पक्ष में है.
इस निर्णायक इटखोरी का अतीत जानने की कोशिश करता हूं. चतरा कॉलेज के प्राचार्य डॉ इफ्तेखार आलम से मुलाकात होती है. अद्भुत ज्ञानसंपन्न. इतिहास, दर्शन के जानकार. उनकी बातें सुन कर लगता है, झारखंड में कब ऐसा समय आयेगा कि जंगल, झाड़-झंखाड़ से अनूठी प्रतिभाओं को ढूंढ़ कर विश्वविद्यालयों में हम लायेंगे. पैरवी-पहुंच से तबादले और महत्वपूर्ण पोस्टिंग बंद होंगे.
मालवीय जी ने देश-दुनिया से ज्ञान के कोहिनूर ढूंढ़-ढूंढ़ कर अपने विश्वविद्यालय में बुलाया था. आग्रह और सम्मान से. तब उनके जीते जी बीएचयू विद्यापीठ बना. मशहूर ज्ञानकेंद्र.
बहरहाल डॉ आलम इटखोरी के बारे में बताते हैं. लोकोक्ति और लोक धारणा के अनुसार. इटखोरी यानी इति+खोयी. यहीं सब कुछ खो गया. मान्यता है कि सिद्धार्थ जब घर से निकल आये, तो बोध गया के पहले जगह-जगह घूमे. साधना की. इटखोरी मंदिर के पास भी वह रहे.
साधना में लीन. आज भी यहां जंगल है, तब घोर जंगल था. बुद्ध के परिवारवालों को पता चला. उनकी मौसी यहां आयीं. सिद्धार्थ को मनाने-लौटाने. पर सिद्धार्थ बुद्धत्व के रास्ते थे. परिवार, रिश्ते, नाते की दुनिया छोड़ कर. जब बुद्ध नहीं लौटे, तो उनकी मौसी ने टिप्पणी की. यहीं सब कुछ खो गया. सिद्धार्थ खो गया. इसी इति + खोयी से इटखोरी का नाम निकला.
कड़ाके की ठंड है. पर पार्टियों के कार्यकर्ता डटे हैं. सुबह-सुबह इटखोरी मंदिर में पूजा. फिर चुनावी जंग में शिरकत. जिस इटखोरी में सिद्धार्थ ने इस भौतिक लालसा को खोया, उसी जगह भौतिक कामना की याचना के साथ चुनावी जंग की शुरुआत. पर यह चुनाव दिलचस्प है.
अब मतदाता मन नहीं खोलते. कहते हैं, लड़ाई में चार मुख्य दावेदार हैं. भाकपा, जेवीएम, भाजपा और कांग्रेस. इस उपचुनाव का महत्व माना जा रहा है कि इसके परिणाम से कोड़ा सरकार का भविष्य प्रभावित होगा. इस चुनाव में अगर बाबूलाल जी जीतते हैं, तो भाजपा के भविष्य में ग्रहण लगेगा. भाजपा जीतती है, तो बाबूलाल जी के क्षेत्रीय मंसूबे पस्त होंगे.
भाकपा जीतती है, तो यूपीए का अंदरुनी खटराग, किस दिशा में जायेगा, कहना मुश्किल है. हां, लालू जी इस उप चुनाव का महत्व समझते हैं, सो आये. बिहार में भी उन्हें भाकपा को साथ रखना है. झारखंड में भी उसकी मदद लेनी है. कांग्रेस जीतती है, तो वह यूपीए घटकों से अपने संबंधों को पुनर्परिभाषित करेगी. ये सभी दावं इस उपचुनाव के परिणाम से ही तय होंगे.
पर इस चुनाव की सबसे दिलचस्प बात है, झारखंड सरकार की जन मैदान से अनुपस्थिति. लोकतंत्र में, लोक (जनता) ही प्राण भरता है, तंत्र (सरकार) में. शायद ही देश में कहीं ऐसा उपचुनाव हुआ हो, जिसमें संबंधित राज्य की सरकार अनुपस्थित रही हो या मूकदर्शक हो.
जिस सरकार की कार्यशैली, मंत्रियों-मुख्यमंत्री के कामकाज पर गंभीर प्रहार हों, वे जन अदालत से अनुपस्थित? चुनाव निरपेक्ष सरकार लोकतंत्र में हो सकती है क्या, यह सजग मतदाता पूछते हैं.
सरकार को डिफेंड करनेवाला कोई नहीं. इस झारखंडी लोकतंत्र के नये रूप पर जनता चर्चा करती है. जनता यह भी कहती है, कांग्रेस ने मुद्दा उठाया, सरकार मैदान से नदारद. राजद या भाकपा के लोग भी सरकार के पक्ष में बात करने से बचते हैं. लालू प्रसाद ने सरकार टिके रहने की बात की, पर जनसभाओं में वह रेल विभाग की उपलब्धियों पर बोले या फिर आडवाणी को निशाना बनाया. इस चुनाव में सरकार की अनुपस्थिति पर एक ने कहा, निर्दलीयों की सरकार है, इनका कोई पक्ष नहीं है, इसलिए ये प्रचार में न बुलाये गये, न आये.
स्थानीय मुद्दे तो शायद ही किसी दल ने उठाये. बिजली की यहां गंभीर समस्या है. सिंचाई नहीं होती. न सरकारी व्यवस्था है, न बिजली रहती है. सड़कें खराब हैं या कच्ची हैं. उग्रवाद आज भी गंभीर चुनौती और समस्या है. टमाटर और मिरचा का यहां क्वालिटी उत्पादन होता है. उत्तर भारत की मंडियों में यहां से टमाटर-मिरचा, ट्रकों से भेजे जाते हैं.
फसल के दौरान टमाटर का भाव पचास पैसे/एक रुपये किलो हो जाता है. इस तरह किसानों को भाव की समस्या है. इसी इलाके में पहले अफीम की खेती होती थी, अब प्रशासन की चौकसी से पाबंदी है. चोरी छुपे कुछेक करते हैं. स्वास्थ्य का मुद्दा है. प्रखंडों में अच्छे अस्पताल नहीं हैं.
एक और महत्वपूर्ण अनुभव है. सड़क किनारे ही पार्टियां प्रचार करती हैं. कच्ची सड़क या पुलिस मुहावरे में ‘सुपर सेंसिटिव जोन’ में कोई नहीं जाता. कच्ची सड़के हैं. लैंडमाइंस बिछी होने की शंका रहती है. पर चाहे लावालौंग का इलाका हो या पथलगड़ा, बेचैन मौन या सुनसान से साबका होता है. फिलहाल चुनाव के दिनों में कहीं-कहीं पुलिस के जवान दिखते हैं.
मुस्तैद. तैनात. समूह में. जैसे युद्ध के मैदान में हों, उसी तरह चौकस. लावालौंग, टीपीसी का इलाका है. पथलगड़ा एमसीसी का क्षेत्र. इन क्षेत्रों के लोगों के अलग-अलग दुख हैं. सरकारी मदद न मिलने, भ्रष्टाचार, पीने का पानी न होने, स्वास्थ्य केंद्रों के प्रभावी न होने के. जन शिकायतों की फेहरिस्त लंबी है. पर सुननेवालों की कमी. शायद इस कारण दो ऐसे भी प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं, जो टीपीसी या एमसीसी से परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जुड़े हैं या पहले जुड़े थे. ये स्वतंत्र प्रत्याशी हैं.
इन घोर जंगली इलाकों में घूमते हुए ही एक मतदाता ने कहा. चुनाव न जाने कब से देख रहे हैं. हर चुनाव में नेता जीतते हैं, जनता हारती है. यह वाक्य सिमरिया के गांवों में घूमते हुए खटकता रहा, क्या लोकतंत्र की ताकत से सर्वेसर्वा बननेवाले इस निराश लोकभाव को समझेंगे?
दिनांक : 4-02-07

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