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झारखंड के संदर्भ में केस स्टडी : भूख, पलायन, सूखा और पत्रकारिता
– हरिवंश – वर्ष 2004 में अमर्त्य सेन ने ‘वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे’ (3 मई, विश्व प्रेस स्वातंत्रय दिवस) के दिन ‘वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूजपेपर्स’ के लिए एक खास लेख लिखा. ‘व्हाट इज द प्वाइंट ऑफ प्रेस फ्रीडम?’ (प्रेस स्वतंत्रता का औचित्य क्या है?) काश पत्रकारिता करनेवालों ने इस लेख का मर्म समझा होता! इसका […]
– हरिवंश –
वर्ष 2004 में अमर्त्य सेन ने ‘वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे’ (3 मई, विश्व प्रेस स्वातंत्रय दिवस) के दिन ‘वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूजपेपर्स’ के लिए एक खास लेख लिखा. ‘व्हाट इज द प्वाइंट ऑफ प्रेस फ्रीडम?’ (प्रेस स्वतंत्रता का औचित्य क्या है?) काश पत्रकारिता करनेवालों ने इस लेख का मर्म समझा होता! इसका स्वर सुना होता! इसकी गहराई में उतरने की कोशिश की होती.
लेख का आशय है कि जहां प्रेस स्वतंत्र है, वहां अकाल-भुखमरी की स्थिति गंभीर नहीं होती. आगे वह कहते हैं कि जहां लोकतांत्रिक व्यवस्था है, प्रेस आंशिक रूप से भी स्वतंत्र है, वहां अकाल का गंभीर असर नहीं होता. लेख में अपने बचपन के दिन वह याद करते हैं.
कहते हैं, 1943 का बंगाल अकाल भयावह था, क्योंकि गुलाम भारत में लोकतंत्र नहीं था. प्रेस पर पाबंदी थी. फिर वह 1958-61 के मशहूर चीनी दुर्भिक्ष की बात करते हैं. इस अकाल में 2.3 से तीन करोड़ लोग मरे. वह कहते हैं कि यह तब हुआ, जब चीन की सरकार देश से भुखमरी मिटाने के प्रति प्रतिबद्ध थी. विस्तार से वह चीन के इस अकाल की चर्चा करते हैं और निष्कर्ष बताते हैं कि प्रेस सेंसरशीप और निरंकुश सत्ता की वजह से चीन में स्थिति गंभीर होती गयी.
पर लोकतांत्रिक व्यवस्था रहते हुए भी पत्रकारिता और पत्रकारों के सरोकार बदल जायें, तो क्या स्थिति होगी? बगैर प्रेस सेंसरशीप के लोकतंत्र में पत्रकार भूख, पलायन और सूखे से जुड़े सवालों को उठाना छोड़ दें, तब क्या होगा? गुजरे वर्षों में भारत में पेज तीन की पत्रकारिता एक नयी पहचान, धारा और संस्कृति के रूप में विकसित हुई है.
महानगरों की अंगरेजी पत्रकारिता, भारत में पेज तीन की पत्रकारिता का उद्गम स्रोत है. पर इस स्रोत की गंगोत्री-मूल उद्गम है, अमेरिकी जीवन संस्कृति, उपभोक्तावादी धारणा. देह, रौनक, वैभव, सेक्स, महंगे लिबास, महंगे गहनों का प्रदर्शन, दुनिया की उम्दा शराब और शानो-शौकत के प्रदर्शन से प्रेरित पार्टियां.
इन पार्टियों में ‘सेलिबेरिटी’ हस्तियां, ‘इलीट’ लोग, सत्ता और पैसे की आभा (उपस्थिति) अलग से मौजूद होती हैं. सत्ता, सौंदर्य और जाम की ये पार्टियां ही पेज तीन पत्रकारिता के कंटेंट हैं. पेज तीन की पत्रकारिता के ये विषय और पात्र हैं. पर यह आंशिक सच और ऊपरी पहचान है. इस पत्रकारिता का सही चेहरा ढंका है. यह चेहरा है कि पेज तीन की पत्रकारिता में पैसे देकर खबरें छपवायी (पेड न्यूज) जा सकती हैं. यानी खबरों के प्रकाशन की कीमत मिलती है. सौदेबाजी होती है. मोल-भाव से खबरें छपती है.
बिक्री-लाभ के उद्देश्य से खबरें बेची-खरीदी जाती हैं. पर पत्रकारिता-खबरों के कंटेंट, बाजार की कीमत से तय नहीं होते. उसके स्थापित सार्वभौम मापदंड हैं. किसी घटना की रपट-वृत्तांत, तथ्य, दृश्य और सच से बंधे होते हैं. कीमत से नहीं. खबर, सच का आईना होती है. प्रकृति और स्वभाव में सच के तथ्यों से छेड़छाड़ की गुंजाइश नहीं होती. पर आज ‘पेज तीन की पत्रकारिता’ में खबरों के प्रकाशन की कीमत तय है.पेज तीन की पत्रकारिता संस्कृति फैल रही है.
हिंदी के बड़े अखबारों में भी ‘पेज तीन की पत्रकारिता’ की धमक पहुंच चुकी है. जब जीवन में पत्रकारों-पत्रकारिता का सरोकार भी पैसे के मापदंड से तय होने लगें, तो समाज के बुनियादी सवाल नहीं उठेंगे. इस पत्रकारिता में भूख, पलायन, सूखा और भ्रष्टाचार सवाल नहीं बनते. क्योंकि ऐसी पत्रकारिता का सरोकार गरीबों से है और गरीब अपनी खबर छपवाने के लिए पैसा तो देंगे नहीं. न विज्ञापन देंगे.
यही हिंदी पत्रकारिता (बिहार-झारखंड के अनुभव के आधार पर) में हो रहा है. राजनीतिक बयान, गपशप, अपराध, सेक्स या प्लांटेड खबरें ही अखबारों के विषय हैं. अमर्त्य सेन कहते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रेस की आजादी का लाभ सबसे अधिक गरीब लोगों को मिलता है, पर आजाद प्रेस जब गरीबों के सवालों को स्वेच्छया उठाना छोड़ दें, वह मुक्त प्रेस सिर्फ अपने विज्ञापनदाता समाज तक सिमट जाये, तब क्या स्थिति होगी?
इसका अनुभव ‘झारखंड’ में मिलता है. पत्रकारिता के अध्येताओं के लिए यह अध्ययन का विषय है. ‘केस स्टडी’ है. वर्ष 2000 में (15 नवंबर को) अलग झारखंड राज्य बना. इस राज्य के गठन के पीछे अनेक महत्वपूर्ण कारण थे. पर मूल कारण गरीबी, पलायन, अविकास भी थे.
झारखंड बनते ही वर्ष 2001 में डालनगंज-पलामू इलाके में सूखा पड़ा. यह अंचल ‘रेन शैडो’ (जहां वर्षा कम होती है) इलाके में है. 1967 में यहां अकाल पड़ा, तो जयप्रकाश नारायण आकर रहे. ‘बिहार रिलीफ कमिटी’ बनी. उस वक्त इस जिले के उपायुक्त कुमार सुरेश सिंह (दुनिया के जाने-माने एंथ्रोपालाजिस्ट) थे. उन्होंने जिस बेहतर तरीके से उस सूखे की स्थिति से निबटने की प्रशासनिक तैयारी की, वह कुशल प्रबंध कौशल का एक अध्याय बन गया. जेपी ने तारीफ की. जेपी ने खुद रिलीफ कामों की कमान संभाली.
तब संचार-आवागमन की स्थिति खराब थी. पलामू-डालटनगंज के जंगलों में पहुंचना कठिन था.
उन दिनों इस अकाल की रिपोर्टिंग के लिए अज्ञेय, रघुवीर सहाय, जीतेंद्र सिंह और फणीश्वरनाथ रेणु, पलामू के जंगलों-पहाड़ों में भटके. ‘दिनमान’, ‘धर्मयुग’ और ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में तब इस अकाल की मार्मिक और क्लासिक रपटें छपीं. रेणु, अज्ञेय और जीतेंद्र बाबू (टाइम्स ऑफ इंडिया के विशेष संवाददाता, अत्यंत मेधावी और निष्ठावान पत्रकार, जेपी के मित्र) 1967 के सूखे, पलायन और अकाल पर (पलामू के संदर्भ में) जो क्लासिक रपटें लिखीं, आज वे रपटें किसी भी भाषा की सर्वश्रेष्ठ रपटों में से एक हैं.
हिंदी पत्रकारिता की अनमोल धरोहर. आज वह पूरा अंचल नक्सल आंदोलन से प्रभावित है. सच तो यह है कि पलामू के ग्रामीण इलाकों में नक्सली संगठन ही राज चला रहे हैं. प्रशासन और सरकार, नगरों तक सिमट गये है. इस अंचल में कई सरकारी अधिकारी-पुलिस अधिकारी, पुलिस के जवान, नक्सली समूहों द्वारा मारे जा चुके हैं. 1967 के अकाल की रिपोर्टिंग के लिए दिल्ली-पटना से बड़े पत्रकार-लेखक इन जंगलों में आये. आज यहां की स्थिति ’67 से कम खराब नहीं है, पर रांची के पत्रकार भी भूले भटके चार घंटे की यात्रा कर ऐसे इलाकों के गांवों में जाने से बचते हैं. यह पत्रकारिता के सरोकार में आया बदलाव है.
सन 2000 में झारखंड गठन के वर्ष भर के अंदर इसी डालटनगंज में सूखे का प्रकोप हआ. झारखंड विधानसभा में मामला उठा. राजग की सरकार ने इस इलाके को सूखाग्रस्त घोषित किया. सरकार द्वारा सूखाग्रस्त अंचल घोषित होने के साथ ही कानूनन जो राहत काम (राहत अनाज देने, जन वितरण प्रणाली दुरुस्त करने, रोजगार सृजन के काम…) शुरू होने चाहिए थे, नहीं हुए. छह माह तक कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं हुई. न अखबारों में, न सरकारी फाइलों में.
डालटनगंज जिला अदालत में एक वकील ने पांकी ब्लाक के एक गांव कुसुमाटांड़ के बारे में शपथ पत्र (एफीडेविट) दायर किया. कहा इस गांव में भूख से तीन लोग मरे हैं. इस खबर को रांची से प्रकाशित (झारखंड का सर्वाधिक प्रसारित) एक समाचारपत्र ने प्रमुखता से छापा. खबर छपने के दूसरे दिन राज्य सरकार के मंत्री उस गांव में हेलिकाप्टर से पहुंचे. सरकारी अफसरों का काफिला गया. शाम तक सरकार का ‘स्टैंडर्ड जवाब’ आ गया. लोग भूख से नहीं, बीमारी से मरे हैं. पर सरकार ने माना कि अकालग्रस्त घोषित होने के बावजूद यहां राहत काम शुरू नहीं हुए हैं. कुसुमाटांड़ के दौरे से अफसरों को पता चला कि कैसे गांव तक पहुंचने ही सड़क नहीं है.
16 वर्षों पहले बिहार राज्य में बिजली के खंभें गाड़े गये और सिर्फ एक दिन पंद्रह मिनट के लिए बिजली आयी. अब बिजली-खंभों के अवशेष हैं. बिजली तार गायब हैं. पिछले 16 वर्षों से उस गांव में न बिजली है, न सड़क. इसी गांव से सटे पांकी ब्लाक मुख्यालय है, जहां कुछ ही महीनों पहले उग्रवादियों ने एक बीडीओ की हत्या कर दी थी.
आम तौर से गांवों के अविकास, पलायन, सूखे वगैरह की खबरें अखबारों के लिए महत्वहीन हैं. इसलिए लगभग सभी अखबारों ने (एक अपवाद छोड़ कर) सरकारी पक्ष को उजागर करना शुरू किया. किसी ने यह जरूरत नहीं समझी कि एक संवाददाता उस गांव (कुसुमाटांड़) में भेज कर सच पता लगाया जाये. ’67 में आवागमन की असुविधा के बावजूद दिल्ली-पटना-कलकत्ता से अज्ञेय, रेणु, रघुवीर सहाय, महाश्वेता देवी, जीतेंद्र बाबू, पलामू के जंगलों में पहुंचे, पर बमुश्किल रांची से 4-5 घंटे की यात्रा कर रांची से कोई खबरनवीस इन गांवों में नहीं गया.
जिस समाचारपत्र में ‘भूख से मौत’ की खबर (अदालत में दायर शपथपत्र के आधार पर) छपी, उसने अपने एक संवाददाता को दस दिनों के लिए उस क्षेत्र में भेजा. उस संवाददाता की रपटों से उस पूरे अंचल की कुव्यवस्था, भ्रष्टाचार, पलायन, शासकीय उदासी स्पष्ट करनेवाली तथ्यपरक खबरें छपीं. सीरिज में प्रशासनिक अकर्मण्यता और सरकारी भ्रष्टाचार उजागर हुए. अंतत: राज्य सरकार के मंत्रिमंडलीय सचिव-राहत आयुक्त ने खबर छापनेवाले अखबार को लिखित रूप से कार्रवाई की धमकी दी.
हालांकि इस संबंध मेंआनेवाले सभी सरकारी बयान भी प्रमुखता से उस समाचारपत्र में छप रहे थे. इस धमकी के पीछे झारखंड सरकार की प्रमुख राजनीतिक हस्तियां-मंत्री थे. उस अंचल में कई ताकतवर मंत्री झारखंड सरकार में थे, जिनके राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारण उस इलाके के भ्रष्टाचार-अविकास के तथ्य अखबार में सामने आ रहे थे.
इस कुसुमाटांड़ गांव में सूखे की कहानी की सूचना ज्यां द्रेज (जानेमाने अर्थशास्त्री, अमर्त्यसेन के साथ कई पुस्तकों के लेखक) को मिली. वह दिल्ली से रांची आये. उक्त अखबार के कार्यालय में पहुंचे.इस विषय पर छपी सभी खबरों को मांगा. पढ़ा और साथ ले गये.
जयां द्रेज विदेशी मूल के (अब भारतीय नागरिक हो गए हैं) हैं. अर्थशास्त्री हैं, पर ऐसी खबरों को पढ़ने-जमीन की हकीकत जानने के लिए उन्होंने हिंदी सीखी-पढ़ी है. वह उस पहाड़ी-जंगल इलाके में खुद गये. बस से. सारी स्थिति प्रत्यक्ष देखी. फिर दिल्ली लौटे.
पुन: पंद्रह दिनों बाद वह उस कुसुमाटांड़ गांव में आये. चार दिनों तक ठहरे. जन सुनवाई आयोजित की. उस जन सुनवाई में पटना से टेलिविजन चैनल के लोग आये. गांव के लोगों ने राशन वितरण से लेकर विकास कार्यों के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य बताये. स्पष्ट हुआ कि भ्रष्टाचार के कारण प्रशासन-सरकार का इकबाल खत्म हो गया है. इसलिए हर गांवों में नक्सली पांव पसार रहे हैं.
पीने के पानी को ज्यां द्रेज ने बोतल में बंद कर प्रदर्शन करने के लिए रखा था. जिस तरह के अनाज गांववाले खाते थे, उसे रखवाया था. जिन पौधों की जड़ें गांववाले उबाल कर खाते थे, उन जड़ों को वहां रखा गया था. ये चीजें स्वत: भूख, अकाल और गांव की कहानी कहती थीं.
टीवी मीडिया ने जब उस मुद्दे को उछाला, तब रांची से प्रकाशित अखबारों की नींद टूटी. खूद ज्यां द्रेज ने फ्रंटलाइन में कुसुमाटांड की इस स्थिति-अनुभव के बारे में मार्मिक लेख लिखा. अनेक अंग्रेजी अखबारों में इस सवाल को उठाया. दिल्ली-कलकत्ता से प्रकाशित अखबारों में भूख-अकाल की खबरें आनी शुरू हुईं, तब झारखंड सरकार ने बार-बार राहत काम तेज करने की बात की. विधानसभा में मामला उठा. पर जो अखबार अकेले तीन चार महीनों तक इस मामले को उठाता रहा, कुछ महीनों के लिए उसके विज्ञापन घटा दिये गये. उसे राजसत्ता ने अनेक धमकियां दी.
ज्यां द्रेज की सक्रियता से बाद झारखंड में भूख का यह मामला उच्चतम न्यायालय पहुंचा. उच्चतम न्यायालय ने जाने माने आइएएस (रिटायर) एनसी सक्सेना को कमिश्नर नियुक्त किया.
उच्चतम न्यायालय के सुझाव-आदेश के अनुसार श्री सक्सेना झारखंड आते रहे. राज्य के बड़े अफसरों (मुख्य सचिव, विकास आयुक्त, रिलीफ आयुक्त, संबंधित उपायुक्त वगैरह) के साथ वह लगातार बैठकें करते रहे. जन वितरण प्रणाली से लेकर राहत कामों को खुद देखा. सुदूर पहाड़ी इलाकों और गांवों में वह खुद गये. प्रशासन तंत्र का स्वरूप देखा.
इसके बाद उन्होंने उच्चतम न्यायालय को अपनी रपट दी. श्री सक्सेना की वह रपट किसी भी अखबार-पत्रकार के लिए विस्फोटक दस्तावेज है. दो तरह से. पहला खबर की दृष्टि से. इस रिपोर्ट में पूरे प्रशासन तंत्र की कार्यशैली का वर्णन है. अकाल-पलायन प्रभावित इलाकों में हो रहे कामकाज का ब्योरा है. दूसरा, गवर्नेस कोलैप्स (बिखरने) का उल्लेख है. रांची यानी झारखंड की राजधानी में आला सरकारी अफसर कैसे गंभीर सवालों के प्रति अगंभीर हैं, इसका तथ्यात्मक विवरण है. सप्रमाण.
झारखंड से प्रकाशित एक अंग्रेजी अखबार ने इस रिपोर्ट पर आधारित एक खबर छापी. एक हिंदी अखबार ने (जिसने भूख के सवाल को शुरू से मुद्दा मान कर उठाया था) भी सक्सेना की इस रिपोर्ट (मूल रिपोर्ट अंग्रेजी में है) का हिंदी अनुवाद कराया और किश्तों में छापा. हिंदी में इस रिपोर्ट के प्रकाशन से सरकार-नौकरशाही बहुत नाराज हुई. इस रिपोर्ट में सरकार की एक-एक कल्याणकारी-विकास से संबंधित योजनाओं और उनमें हो रही गड़बड़ियों का तथ्यात्मक वर्णन है.
इस रिपोर्ट प्रकाशन से झारखंड की पूरी व्यवस्था तिलमिला गयी. इस रिपोर्ट प्रकाशन के बाद संबंधित हिंदी अखबार ने श्री सक्सेना से इस मुद्दे पर लंबी बातचीत की. बहुत साफ शब्दों में श्री सक्सेना ने कहा कि झारखंड के नेता-अफसर चोर हैं.
उन्होंने कहा कि दिल्ली से चला 100 पैसा झारखंड के गांवों में पहुंचते-पहुंचते छह पैसा रह जाता है. श्री सक्सेना के द्वारा उठाये गये सवालों के बारे में झारखंड के मुख्यमंत्री से उक्त अखबार से लंबी बातचीत की. सरकार का उत्तर रक्षात्मक था. पुन: सरकार के अफसरों ने श्री सक्सेना द्वारा उठाये गये मुद्दों का जवाब भेजा. वह भी छपा.
इसके बाद श्री सक्सेना द्वारा सुप्रीम कोर्ट को दी गयी सरकारी योजनाओं के झारखंड द्वारा वर्षवार इस्तेमाल के आंकड़े छपे, कैसे अनेक कल्याणकारी मद में पैसे बिना खर्च लौट गये (सरेंडर), ग्रामीण योजनाओं के हाल के तथ्यात्मक ब्योरे छपे, झारखंड सरकार के किन जिलों ने किस वित्तीय वर्ष में कितने अनाज उठाये, इसके तथ्य छपे, तो सरकार चुप हो गयी. क्योंकि प्रतिउत्तर में कहने को कुछ नहीं था. बहरहाल श्री सक्सेना के इंटरव्यू का गहरा असर हुआ.
इस इंटरव्यू के छपते ही मुख्य सचिव के आदेश पर संबंधित अखबार के विज्ञापनों में भारी कटौती की गयी. मुख्य सचिव ने श्री सक्सेना को फोन पर कहा कि क्या उक्त अखबार से आपकी बातचीत हुई है? श्री सक्सेना ने कहा कि उस अखबार में मेरी बातचीत छपी है.
अब सरकार के पास कार्रवाई का प्रत्यक्ष कारण नहीं था. विज्ञापन घटाने के बारे में संबंधित सरकारी विभाग से पूछा गया कि झारखंड में सबसे अधिक बिकनेवाले अखबार को सबसे कम बिकनेवाले अखबार से भी कम विज्ञापन क्यों मिल रहे हैं? संबंधित विभाग के अफसरों का सहानुभूतिपूर्ण उत्तर था, ‘ऊपर से आदेश’ है.
एनसी सक्सेना की रिपोर्ट में क्या चीज थी कि सरकार-नौकरशाही बौखला गयी? आमतौर से सरकारों के खिलाफ रोज भ्रष्टाचार से लेकर अन्य गंभीर आरोप छपते ही रहते हैं, पर इससे मोटी चमड़ी के राजनेता बेचैन नहीं होते. दरअसल श्री सक्सेना की रिपोर्ट में नौकरशाही की विफलता और मौजूदा भ्रष्टाचार का सटीक और तथ्यात्मक विवरण है. श्री सक्सेना ने आइएएस अफसर के रूप में देश में ऐसी ईमानदार कर्मठ छवि बनायी है कि उनके खिलाफ कोई टिप्पणी करना आसान नहीं है. उनकी निजी साख-विश्वसनीयता से रिपोर्ट की वजन बढ़ती है.
अपनी रिपोर्ट में वह सप्रमाण ‘गवर्नेस कोलैस’ (प्रशासनिक अराजकता) की चर्चा करते हैं. झारखंड की नौकरशाही में कोई उनके कद-काठी का नहीं है, जो अपना पक्ष बेहतर-विश्वसनीय ढंग से रख सके. इसलिए जिस अखबार ने उनकी रिपोर्ट को जनता तक पहुंचाया, वह प्रशासन की खीझ का कारण बना.
इसी तरह देवघर-दुमका इलाके में मलेरिया, कालाजार और भूख की गंभीर खबरें आनी शुरू हईं, तो सरकार-प्रशासन ने उन सवालों को हल करने की दिशा में सकारात्मक कदम उठाने के बदले खबरें छापनेवालों के खिलाफ अभियान चलाया. बाद में केंद्र सरकार ने डॉक्टरों का एक दल भेजा, तो पता चला कि गंभीर बीमारियों से गांव के गांव प्रभावित हैं. युवक रोजगार की तलाश में बाहर चले जाते हैं.
बूढ़े, बच्चे और औरतें गांवों में हैं. चतरा और हजारीबाग के गांवों की ऐसी स्थिति उजागर करने वाले अखबार को वहां के उपायुक्तों ने स्थानीय स्तर पर विज्ञापन बंद करवा दिया. यह काम अखबारों की आयस्रोत पर प्रहार है. इस कारण पत्रकार और अखबार अब ऐसी खबरों से ही परहेज करने लगे हैं. यह बगैर सेंसरशीप के हो रहा है.
लोकतंत्र में हो रहा है. डीसी-कलक्टर जिला स्तर पर सरकारी विज्ञापनों का इस्तेमाल अखबारों को चुप कराने के लिए कर रहे हैं. राज्य स्तर पर यही काम सरकार कर रही है. विज्ञापन के सरकारी पैसों का उपयोग निजी संस्थानों में भी ऐसे नहीं होता, जिस तरह सरकारें और इसके अफसर कर रहे हैं.
यह जनता का पैसा है. विज्ञापन रिलीज करने के कुछ मापदंड हैं. इन मापदंडों को मानने के लिए सरकार-प्रशासन तैयार नहीं हैं.
पेज तीन की पत्रकारिता के इस दौर में मान्यता है कि भूख, अकाल, पलायन वगैरह ‘सेलेबुल सब्जेट्स’ (बिकनेवाले विषय) नहीं हैं. सौंदर्य प्रतियोगिता, सेक्स, सनसनीखेज सामग्री, आरोप-प्रत्यारोप की चीजें ही बिकती हैं.
इस कारण पत्रकार-अखबार, ऐसे बुनियादी सवालों के प्रति निरपेक्ष-तटस्थ बन गये हैं. वे बाजार की मन:स्थिति के अनुसार खबरें छापते-खोजते हैं. इस तरह, खुली लोकतांत्रिक व्यवस्था, जहां प्रेस सेंसरशीप नहीं है, वहां भी भूख, बीमारी की खबरें अखबारों में जगह नहीं पा रही हैं. यह आज की पत्रकारिता का अंदरूनी संकट है.
झारखंड में गरीबी-बीमारी और पलायन की स्थिति गंभीर है. एकाध अखबार ही हैं, जो नियमित इनसे जुड़ी चीजों को खबर बनाते हैं. गांव के लोगों का सहज-सरल भाषा में उत्तर होता है कि अखबार शहरों के लिए निकलते हैं, गांववालों के लिए नहीं. यह अखबारों का वर्ग विभाजन है. पत्रकारिता के लिए यह विभाजन-द्वंद्व विचारणीय है.
आज मूल सवाल है कि प्रेस की स्वतंत्रता किधर जा रही है? यह पत्रकार की अपनी नजर और पत्रकारिता की अपनी दिशा पर निर्भर है. सवाल है कि समाचार किसके बनेंगे? बड़ी पार्टियों के? उपभोक्ता संस्कृति के वाहकों के? मिस वर्ल्ड, मिस यूनिवर्स, क्रिकेट के?
या शहरी गरीबों, छोटे खेतिहर और भूमिहीन मजदूरों के? भारत में पत्रकारिता का उदय स्वतंत्रता और समाज सुधार आंदोलनों के बीच हआ. इस अंतर को पत्रकार और अखबार चलानेवाले भूल गये हैं.
भारत में कम साधन, कम पाठकों के पत्र थे, लेकिन उन्होंने बुनियादी सवाल उठाये. आज बड़े साधन, बड़ी पाठक संख्यावाले अखबार जगह-जगह पहुंच गये हैं, पर मूल सवाल ऐसे अखबारों के लिए मुद्दा नहीं हैं.
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