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सुधरेंगे या तबाह होंगे !

– हरिवंश – झारखंड बनने के नौ वर्ष पूरे हुए. आज से दसवें वर्ष में प्रवेश. क्या गुजरे नौ वर्ष, खोये अवसरों की कहानी है? इस प्रश्न का सपाट उत्तर है, हां. राजनीतिक अस्थिरता, गवर्ने का ध्वस्त होना, राजसत्ता के प्रताप का क्षय और संस्थाओं का विकसित न होना. राजनीतिक दल, विधानसभा, सरकार और नौकरशाही, […]

– हरिवंश –
झारखंड बनने के नौ वर्ष पूरे हुए. आज से दसवें वर्ष में प्रवेश. क्या गुजरे नौ वर्ष, खोये अवसरों की कहानी है? इस प्रश्न का सपाट उत्तर है, हां. राजनीतिक अस्थिरता, गवर्ने का ध्वस्त होना, राजसत्ता के प्रताप का क्षय और संस्थाओं का विकसित न होना. राजनीतिक दल, विधानसभा, सरकार और नौकरशाही, वे संस्थाएं हैं, जिनका प्रभावी होना, राज्य के अस्तित्व के लिए बुनियादी शर्त है.
पर इन संस्थाओं का आचरण-स्खलन, सबसे दुखद अध्याय है. पूरे देश के लिए पहेली और झारखंड के भविष्य का ग्रहण. दूसरे छोर पर सिविल सोसाइटी है, विश्वविद्यालय हैं, मीडिया है, जागरूक नागरिक संगठन हैं, उद्यमी हैं. इस वर्ग ने भी झारखंड में गहराते अंधेरे का प्रतिकार नहीं ढ़ूंढ़ा.
आज नौ वर्षों बाद जहां झारखंड खड़ा है, वहां दो ही रास्ते हैं. सुधरने का या तबाह होने का. संयोग से चुनाव होनेवाले हैं. जो सुधार चाहते हैं, उनके लिए चुनाव एक अवसर है. चुनाव द्वार से ही सुधरने की पगडंडी गुजरती है.
यह चुनाव झारखंड के लिए निर्णायक है, क्योंकि इस चुनाव के गर्भ से ही उस राजनीतिक संतान के जन्म की प्रतीक्षा है, जो झारखंड की बेड़ियों को काटेगा. इसके लिए जो भी सरकार बने, उसे कठोर निर्णय लेने होंगे. कई मोरचों पर. विधानसभा को हल ढ़ूंढ़ना होगा. उन चुनौतियों-सवालों का जो झारखंड की बेड़ी-जंजीर बन चुके हैं. लगभग खत्म गवर्नेंस, बेकाबू भ्रष्टाचार और सरकार की उपस्थिति न होना, वे सवाल हैं, जिन्हें दसवें वर्ष में नयी सरकार और विधानसभा को ढ़ूंढ़ने होंगे. अन्य जिम्मेवार संस्थाओं को भी.
अगर अतीत का राग बजा, तो फिर वही दलबदल, रोज सरकारों का आना-जाना, फिर भ्रष्टाचार का अनियंत्रित हो जाना. फिर झारखंड को तबाह होने से बचा पाना नामुमकिन है. नक्सली तब सबसे प्रभावी होंगे. अराजकता होगी. अव्यवस्था होगी.
इसलिए इस बार 15 नवंबर भिन्न पृष्ठभूमि में आया है. स्थितियां – हालात भिन्न हैं. चुनौतियां विषम हैं. हर मोरचों पर. राजनीतिक, प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में.
यह हल ढ़ूंढ़ेगा कौन? कोई अवतार नहीं, चमत्कारी पुरुष नहीं, बल्कि झारखंड की जनता और नेता ही इसका हल ढ़ूंढ़ेंगे. यह हल लोकतांत्रिक रास्ते से ही संभव है. बैलेट बॉक्स की पेटी से. इसलिए हर नागरिक को पहल करनी होगी. अकर्म की पीड़ा- बेचैनी से मुक्ति पाने के लिए.
मतदान में भाग लेकर. ड्राइंग रूम में बैठ कर चिंतित होने से समाज-इतिहास नहीं बनता. इसलिए मतदान, अच्छे पात्रों, विचारों, दलों का चयन, राजनीतिज्ञों से सवाल-जवाब, ऐसे सारे प्रयास ही झारखंड को तबाह होने से बचा सकते हैं. यह ‘ मत चूको चौहान’ की स्थिति है.
दिनांक : 15-11-2009

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