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नक्सल मुद्दे पर मौन
– हरिवंश – (ट्रेन हमले के पूर्व लिखी गयी टिप्पणी) गांवों में देखा था. भसुर (पति के बड़े भाई/जेठ) और भवह (छोटे भाई की पत्नी) का रिश्ता. भवह के आते ही भसुर हट जाते थे. जहां भसुर होते थे, वहां भवह नहीं फटकती थी. नक्सल पर राजनीतिक दलों और नक्सलों के बीच ऐसा ही रिश्ता […]
– हरिवंश –
(ट्रेन हमले के पूर्व लिखी गयी टिप्पणी)
गांवों में देखा था. भसुर (पति के बड़े भाई/जेठ) और भवह (छोटे भाई की पत्नी) का रिश्ता. भवह के आते ही भसुर हट जाते थे. जहां भसुर होते थे, वहां भवह नहीं फटकती थी.
नक्सल पर राजनीतिक दलों और नक्सलों के बीच ऐसा ही रिश्ता लगता है. झारखंड की सबसे बड़ी समस्या के बारे में आप लोगों से पूछें. जवाब मिलेगा, नक्सल समस्या. पर किसी राजनीतिक दल की जुबान पर यह मुद्दा नहीं है. यह मुद्दा उठाने के संदर्भ में कमोबेश सभी दल भवह की भूमिका में हैं. जहां ये सवाल उठे, वहां बात बदल दो, बहस मोड़ दो. सब चुप हैं. ये दल यह मुद्दा उठाने से भाग रहे हैं. क्योंकि यह समस्या इन दलों की ही देन है.
राजनीतिक दल, समाज के मूल सवाल नहीं उठा रहे. नगर-डगर और जंगल में अब दलों के कार्यकर्ता नहीं घूमते. अदालतों में करोड़ों-करोड़ मुकदमें लंबित हैं. राशन की सामग्री भी गरीबों की झोपड़ी तक नहीं पहुंच रही. स्वास्थ्य के सवाल अलग हैं. उत्पादन प्रक्रिया में गरीबों की हिस्सेदारी नहीं है. इसलिए गांवों में, जंगलों में बेचैनी है. पर वहां राजनीतिक दल नहीं हैं.
इसका लाभ नक्सलियों को मिला है. नक्सली वहीं रहते हैं. गरीबों के सवाल उठाते हैं. इसलिए उन्हें नीचे से ताकत मिलती है. जब तक राजनीतिक दल अपनी जड़ें गांवों तक नहीं ले जायेंगे, गरीबों से नहीं जुड़ेंगे, तब तक नक्सलियों की ताकत कम नहीं होगी. क्या यह काम करने के लिए कोई दल तैयार है?
आज वोट देनेवालों की संख्या लगातार घट रही है. ग्रासरूट पर काम करनेवाले कहते हैं, चुनावों में कौन वोट देता है? जो विधायक या सांसद हैं, उनके समर्थक इसलिए सक्रिय रहते हैं, ताकि उनके संरक्षक विधायक या सांसद जीतें.
फिर उन्हें ठेके मिलेंगे. जो अन्य प्रतिस्पर्द्धी मैदान में हैं, उनके समर्थक इसलिए चुनाव में कवायद करते हैं, ताकि उनका उम्मीदवार जीते. उन्हें भी ठेका-पट्टा मिले. इन दो समूहों के अतिरिक्त तीसरा समूह जो मतदान करता है, वह है, जेनइनली अपने मताधिकार का प्रयोग करनेवाले. लोकतंत्र प्रेमी. इस तरह 36 से 50 फीसदी के बीच वोट पड़ते हैं.
शेष वोट इस लोकतंत्र के पर्व से बाहर है. इस तरह गहराई में उतरेंगे, तो पायेंगे झारखंड के विधायक को विकास के लिए तीन करोड़ का सालाना फंड मिलता है, जो देश में सबसे अधिक है. यह भी एक प्रबल आकर्षण है, विधायक बनने के लिए.
पर विधायक बन कर सबसे पहली चुनौती झारखंड में झेलनी है, नक्सली सवालों से . झारखंड जब बना था, तब सरकार ने कबूला कि 8-10 जिलों में नक्सली प्रभाव है. तब 20 जिले थे. आज 24 जिले हैं. लगभग सभी जिले नक्सली प्रभाव में हैं . यह भी सरकार ही मानती है. झारखंड का यह सबसे बड़ा मुद्दा है. पर कोई दल इसके हल की बात नहीं कर रहा.
हाल में गृह मंत्री पी चिदंबरम ने टेलीग्राफ को इंटरव्यू दिया. कहा, झारखंड सर्वाधिक नक्सल प्रभावित राज्य है. जिन्होंने झारखंड की सत्ता चलायी, वे इसके दोषी हैं. बताया. उनकी नजर में इसका मुख्य कारण कुशासन है. पर इस मुद्दे पर कहीं कोई आवाज नहीं.
गृह मंत्री ने कहा, पहले नक्सल प्रभाव को नियंत्रित करना होगा, तब विकास होगा. साफ है कि एक विचारधारा कहती है कि विकास होगा, तो नक्सली कमजोर होंगे. पर गृह मंत्री मानते हैं कि नक्सली प्रभाव कम होगा, तभी विकास होगा. यह प्रसंग झारखंड के अहम सवालों में से है. राजनीतिक दलों को बताना चाहिए कि इस सवाल पर कौन क्या सोचता है .
चिदंबरम ने उक्त बातचीत में कहा, मेरी समीक्षा से स्पष्ट है कि नक्सल प्रभावित जिलों में पूंजी प्रवाह के बावजूद कुछ नहीं हो रहा. क्योंकि अधिकांश पूंजी लेवी के रूप में वसूली जाती है. ठेकेदारों से. इसलिए इन इलाकों में सरकारी प्रशासन को पहले मजबूत करना होगा.
तब इन जिलों को विकास की पूंजी देनी होगी. उन्होंने यह भी कहा कि नक्सल प्रभावित जिलों में जो आधारभूत संरचनाएं तैयार होती हैं, मसलन स्कूल, सड़क, स्वास्थ्य केंद्र, टेलीफोन टावर, इन सबको नष्ट कर दिया जाता है, इसलिए पहले नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकार का शासन स्थापित करना होगा.
चिदंबरम की बातें साफ हैं . पर इस पर झारखंड की राजनीति चुप है. क्या चिदंबरम का रास्ता ही इस समस्या का हल है. या अन्य विकल्प और रास्ते हैं ? सच यह है कि इसे सुलझाने के अन्य रास्ते और विकल्प हैं.
पहला रास्ता राजनीतिक दलों के घरों से गुजरता है. राजनीतिक दल गांव-गांव पहुंचें. महज ठेके-पट्टे में उनकी रूचि न रहे.
भ्रष्टाचार पर अंकुश लगे. फर्ज करिए अगर नक्सली भ्रष्टाचार के मुद्दों पर चुनावी राजनीति में उतर जायें, तो क्या होगा? उन्हें राजनीतिक दलों से अधिक समर्थन मिलने की संभावना है, क्योंकि भ्रष्टाचार समाज का सबसे गंभीर मुद्दा है. राजीव गांधी ने ‘ 84 में कहा था, केंद्र से चला 100 पैसे गांव पहुंचते-पहुंचते 16 पैसे हो जाते हैं. फिलहाल झारखंड में वह 4-6 पैसे भी नहीं रह पाते. ऐसे बुनियादी मुद्दों पर जबतक राज्य सरकार पहल नहीं करेगी, नक्सली कमजोर नहीं होंगे. पर इस सबसे अहम सवाल पर राजनीतिक दल बोलें तो ? चुनाव में इस सवाल पर चौतरफा चुप्पी, क्या बताता है
दिनांक : 20.11.2009
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