झारखंड में कानून-व्यवस्था ध्वस्त है. इसे संभालनेवाला पुलिस ढांचा बिखर गया है. जिस पुलिस पर कानून-व्यवस्था सुधारने की जिम्मेवारी है, वही पुलिस गुटों में बंटी है. जाति, धर्म व क्षेत्रीयता में बंटे अफसरों ने पूरी पुलिस व्यवस्था को कमजोर कर दिया है. इस गुटबाजी के कारण न सिर्फ सिस्टम टूटा, बल्कि नियमित कामकाज पर भी इसका असर पड़ा है. सीनियर अफसरों के आपसी संबंध कमजोर हुए हैं. आपसी विश्वास में कमी आयी है. सही और जरूरी कार्रवाई को भी विभाग के लोग संदेह की नजर से देखने लगे हैं. सिर्फ अपने काम से मतलब रखनेवाले अच्छे अफसरों की संख्या बहुत कम रह गयी है. गुटबाजी के इस खेल में हम यहां किसी का नाम नहीं छाप रहे हैं. पर जिन पर कानून-व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेवारी है, वे अगर अनुशासन/फर्ज को भूलने लगे तो उसे बताना हमारा धर्म है.
रांची: झारखंड के पुलिस अफसर चार गुटों में बंटे हैं. पहले गुट में वे आते हैं, जो कुछ समय पहले तक उपेक्षित महसूस करते थे, लेकिन आज पावर के साथ खड़े हैं.दूसरे गुट में वे हैं, जो कुछ दिन पहले तक ताकतवर थे पर अब हाशिये पर हैं. तीसरा गुट स्थानीय अफसरों का है जिसकी पहुंच सत्ता शीर्ष तक है. इस गुट के अफसर शांत रहते हैं और अपने लोगों को बढ़ाने, बचाने में लगे रहते हैं. चौथे गुट के अफसर माहौल के मुताबिक खुद को ढाल लेते हैं. समय काटने में विश्वास रखते हैं.
न सीनियर की परवाह न सिस्टम के प्रति ईमानदार : गुटबाजी के कारण सिस्टम ध्वस्त हो गया है. अफसर न तो सीनियर की परवाह करते हैं और न ही सिस्टम के प्रति ईमानदार रहते हैं. हाल के दिनों में मर्यादांएं टूटी हैं. एक दूसरे के खिलाफ आरोप-प्रत्यारोप से जुड़े पत्रचार खूब हुए. कुछ दिन पहले तक ताकतवर गुट के निशाने पर रहने वाले अधिकारी आज खुद ताकतवर हो गये हैं.
अब इन्हें बदला निकालने का मौका मिला है. वे अब पुराना हिसाब चुकाने में जुटे हैं. बात पिछले साल की है. पुलिस मुख्यालय में एक मेल आया. जिसमें कई गंभीर आरोप लगाये गये थे. बाद में सभी आरोप गलत निकले. यह सच सामने आने में वक्त लगा. तब तक ताकतवर गुट अपना काम कर चुका था. एक खास अधिकारी की छवि खराब करने में उस मेल का उपयोग किया जा चुका था. समय फिर पलट गया. कभी कमजोर रहा गुट आज ताकतवर बना है. उसने गड़े मुरदे उखाड़ने का काम शुरू कर दिया है.
एक डीआइजी समेत कुछ सीनियर अधिकारी सक्रिय हो गये हैं. अपने लोगों को सेट करने के साथ-साथ खुद भी सेट होने की तैयारी में हैं. पिछले वर्ष की बात है. संथाल के एक एसपी ने अपने विभाग के सबसे बड़े अफसर की नहीं सुनीं. कुछ एसपी, जो ताकतवर गुट में थे, उन्होंने सीनियर की परवाह नहीं की. नियमों व पुलिसिंग के प्रति भी ईमानदार नहीं रहे. शीर्ष पर काबिज अधिकारी इस गुटबाजी को भी अपने पक्ष में इस्तेमाल करते रहे. जूनियर अफसरों के सिर पर हाथ रख कर उनसे सीनियर अफसरों की रिपोर्ट मंगा ली. फिर मौका देख कर इस्तेमाल किया. सीनियर की रिपोर्ट को किनारे रख कर जूनियर को बचा लिया और जूनियर की रिपोर्ट पर कार्रवाई के लिए फाइल बढ़ा दी. पलामू प्रमंडल, उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडल व कोयला क्षेत्र के एक-एक एसपी ने अपने-अपने डीआइजी के खिलाफ रिपोर्ट कर दी. डीआइजी की रिपोर्ट पर शीर्ष अधिकारी चुप रहे. एक डीआइजी-आइजी के बीच भी थानेदारों की बैठक करने को लेकर खूब विवाद हुआ. यह सब होता रहा. शीर्ष पद पर बैठे अधिकारी मुख्यालय में चुप बैठे रहें.
वे कहते रहें कि सीआरपीसी में एसपी के बाद हम ही हैं. डीआइजी-आइजी, एसपी के काम में हस्तक्षेप न करें. कई बैठकों में यह बात कही. इसका असर यह हुआ कि उनके गुट के पुलिस अधीक्षकों ने अपने सीनियर के मंतव्य की परवाह करना बंद कर दिया. कांडों की समीक्षा में दिये जाने वाले निर्देशों का अनुपालन बंद हो गया. एक डीआइजी ने किसी घटना पर रिपोर्ट की, तो मुख्यालय ने आइजी से दूसरी रिपोर्ट मंगवा ली. नक्सलियों से लड़ने के लिए बनी फोर्स का डीआइजी यह कह कर विरोध करते रहे कि गड़बड़ियां हो रही हैं, मुख्यालय के सीनियर अफसर सोते रहे, क्योंकि गड़बड़ी करने वाले अफसर ताकतवर गुट के थे.
स्थिति यह थी कि मुख्यालय (रांची) में बैठ कर ही एक अफसर यह तय करने लगे कि किस जिले के किस थाने का थानेदार कौन होगा. शीर्ष पद पर बैठे एक अधिकारी व एक बीच वाले अधिकारी ने पुलिस एसोसिएशन के चुनाव में भी दिलचस्पी ली. शह और मात की चालें चलीं. बात यहीं खत्म नहीं हुई. एक एसपी पर तो अपने ही आइजी के खिलाफ सीडी (कोयला चोरों के बीच बातचीत की) तैयार करव़ाने तक का आरोप है.