नौ मुख्यमंत्रियों व तीन बार राष्ट्रपति शासन के बीच 14 साल का झारखंड अस्थिरता और अराजकता का प्रतीक बन गया है. क्या 25 नवंबर से शुरू होनेवाले विधानसभा चुनाव से यहां स्थिरता की नयी शुरुआत होगी?
रांची: अप्रैल 2014 में एससी के लिए आरक्षित खूंटी लोक सभा सीट से नामांकन के बाद दयामनी बारला को नक्सलियों ने धमकी दी थी. कहा था कि ‘इतनी गोली मारूंगा कि गिन नहीं सकोगी. धमकियों और हमलों के बावजूद यह आदिवासी एक्टिविस्ट अब तक जीवित है.
वह हमलों और धमकियों से जुड़ी घटनाओं का उल्लेख करते हुए कहती हैं कि ‘यह सौभाग्य है कि वह इन सबके बावजूद जीवित हैं’. वह अब भी उग्रवाद प्रभावित इस राज्य में आदिवासियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रही हैं और इसके लिए प्रतिबद्ध हैं. लोकसभा चुनाव में उन्हें 11822 वोट मिले थे. वह सातवें स्थान पर रही थीं.
वह कहती हैं कि चुनाव हार कर जनता के लिए काम करना बेहतर है, पर चुनाव जीत कर राज्य को लूटना उचित नहीं है. हालांकि राज्य बनने के बाद से यहां ऐसा ही होता रहा है. वह कहती हैं : राज्य बनने के बाद यह उम्मीद जगी थी कि झारखंड की गिनती देश के बेहतर और उन्नत राज्यों में होगी, पर ऐसा नहीं हो सका, जबकि देश के कुल खनिज का 40 प्रतिशत यहीं है. कोयले का 3.5 प्रतिशत, कोकिंग कोल का 90 प्रतिशत, कॉपर का 40 प्रतिशत,आयरन ओर का 22 प्रतिशत और माइका 90 प्रतिशत इसी राज्य में है. एकीकृत बिहार के जीएसडीपी का 70 प्रतिशत इसी क्षेत्र से मिलता था.
राज्य गठन के 14 सालों में यहां के लोगों को सिर्फ आश्वासन ही मिले. यह शर्म की बात है कि 2005-06 से 2013-14 तक की अवधि में औद्योगिक क्षेत्र का जीएसडीपी 5.3 प्रतिशत रहा, जबकि इसी अवधि में बिहार का 16.16 प्रतिशत रहा. इसी अवधि में छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के औद्योगिक क्षेत्र का जीएसडीपी 6.56 और 16.84 प्रतिशत रहा. इस तरह इन दोनों राज्यों की स्थिति भी झारखंड से बेहतर रही. राज्य की यह स्थिति तब रही, जब जमशेदपुर की गिनती देश के एक बड़े उत्पादन क्षेत्र के रूप में होती है. वर्ष 2005-06 में झारखंड के जीएसडीपी 3.2 प्रतिशत रहा. 2012-13 में यह 7.9 प्रतिशत हुआ. इसी अवधि में बिहार का 0.2 प्रतिशत और 15 प्रतिशत रहा, जबकि राज्य के विभाजन के बाद बिहार के पास सिर्फ कृषि क्षेत्र ही बचा था, इसके बावजूद बिहार ने बेहतर प्रदर्शन किया और झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ से भी पीछे छूट गया.
(इकोनॉमिक्स टाइम्स से साभार)