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पुलिसिया उगाही में प्रयोगधर्मिता की एक नयी मिसाल!

पिछले 14 सालों में एक-एक दारोगा तक ने जिस तरह से यहां खुलेआम खेल किये हैं, एक मोबाइल दारोगा द्वारा सरकार को नचाते रहने का मामला सामने आता रहा है या एक डीएसपी के एक ही जगह पर जमे रहने और उसे हटाने का साहस किसी में नहीं हो, का मामला सामने आता रहा है, […]

पिछले 14 सालों में एक-एक दारोगा तक ने जिस तरह से यहां खुलेआम खेल किये हैं, एक मोबाइल दारोगा द्वारा सरकार को नचाते रहने का मामला सामने आता रहा है या एक डीएसपी के एक ही जगह पर जमे रहने और उसे हटाने का साहस किसी में नहीं हो, का मामला सामने आता रहा है, उससे लगा कि ऊपर से नियंत्रणहीन हो चुके और ऊपर में ही सड़ चुकी व्यवस्था में अगर सुदूरवर्ती इलाके के किसी थाने में दारोगा-जमादार या सिपाही मिल कर यह खेल कर ही रहे होंगे, तो यह न पतियाने जैसी बात भी नहीं. आश्चर्यचकित हो जानेवाली बात भी नहीं.

निराला,

रांची: ना मालूम, बात सोलह आने सही है या आधी हकीकत-आधा फसाना वाला मामला है, लेकिन हकीकत ही मान लेने का मन ज्यादा करता है. किस्से को सच मान लेने के पीछे इतिहास के अध्याय हैं, वर्तमान की कारगुजारियां हैं. वह भी प्रेरित करती हैं, इसलिए आश्चर्यजनक होते हुए भी सच मान लेने में बहुत अगर-मगर जैसा भी कुछ नहीं.

यह प्रसंग झारखंड के पुलिस महकमे से जुड़ा हुआ है. चंद लोगों की कारगुजारियों की वजह से सड़ांधता का पर्याय बन चुके झारखंड पुलिस के महकमे से. पिछले दिनों बतकही की एक चौपाल लगी थी. बातों-बातों में ही बात झारखंड पुलिस तक आ गयी. एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी भी थे उसमें. आइजी के कारनामों से बात शुरू हुई, एसपी-डीएसपी से होते हुए दारोगा-पुलिस तक बात पहुंच गयी. चौपाल में हवाबाजी करनेवाले लोग नहीं थे. बात चली कि कैसे कुछेक पुलिस अधिकारी रांची के आसपास दूसरे के नाम पर जमीन पर जमीन लेकर बड़े भूस्वामी बन गये हैं. तभी बात निकली कि एसपी-डीआइजी-आइजी की बात छोड़िए ना, झारखंड में तो सिपाही और दारोगा ने मिल कर जो खेल शुरू किया है, किसी को निचोड़ लेने के जो नया रास्ता बनाये हैं, वह बड़े-बड़े निचोड़बाजों को मात देनेवाला है.

मालूम हुआ कि कुछ माह पहले महाराष्ट्र के एक डॉक्टर पर गाज गिरायी गयी थी, लेकिन खबर कहीं आ नहीं सकी थी और उसके आने की गुंजाइश भी नहीं थी. झारखंड पुलिस ने सुदूरवर्ती इलाके वाले हिस्से से नक्सली के नाम पर कुछ लोगों को पकड़ा और उनका इकबालिया बयान दर्ज किया. बयान दर्ज करना अपने हाथों का खेला होता है, इसलिए छद्म नक्सलियों के मुंह से कहवाया गया कि वे बतायें कि उन्हें महाराष्ट्र के फलाना डॉक्टर से सहायता मिलती है और इलाज के लिए भी वे वहीं जाते हैं. ऐसा ही हुआ, बयान दर्ज हुआ और फिर डॉक्टर साहब तक चुपके से संदेशा भेज दिया गया कि भाई साहब आज कुछ नक्सली पकड़े गये हैं, वे अपने बयान में बता रहे हैं कि आप उनको आर्थिक मदद भी करते हैं और उन्हें समय-समय पर प्रश्रय देकर इलाज भी करते हैं.

महाराष्ट्र वाले डॉक्टर साहब के होश उड़ गये. बेचारे का उस थाना इलाके से क्या, कभी झारखंड से ही वास्ता नहीं पड़ा था. वे परेशान होते गये, उनकी परेशानी को पैमाने पर मापा जाता रहा. उन्हें कहा गया कि देखिए नक्सलियों के बयान देने से कोर्ट में तो कुछ होगा नहीं, लेकिन अब आपको आवाजाही तो करनी पड़ेगी. बेचारा डॉक्टर, मरता क्या न करता. उसने पुलिसवाले से ही रास्ता पूछा. डॉक्टर को इस झंझट से मुक्ति का सहज मार्ग बताया गया कि ले-देकर मैनेज कर लें, बात आगे बढ़ेगी ही नहीं. नक्सली के मुंह से निकली बात सामान्य कागज के पन्न में ही दफन हो जाएगी, डायरी तक नहीं पहुंचेगी. डॉक्टर अपने पेशे को छोड़ कर कहां इतने लफड़े में पड़ता, नया तनाव लेता और अनजाने में झारखंड के चक्र व्यूह में फंसता, उसने तुरंत मामले को मैनेज करवा लिया. मोटी रकम के जरिये.

यह बात खुली, तो बात आगे तक बढ़ी. मालूम हुआ कि यह कोई इकलौता मामला नहीं, यह एक खेल है, जिसे बहुत सुनियोजित तरीके से चलाने की कोशिश भी हो रही है. इसमें कुछ पुलिसवाले होते हैं, कुछ छद्म नक्सली ग्रुप होते हैं, जो झारखंड में करीब छह दर्जन की संख्या में हैं और बीच में बिचौलिये होते हैं. बिचौलियों का काम प्रदेश के शहरों में लगातार घूम कर ऐसे लोगों को टेपना होता है, उनके बारे में जानकारी जुटानी होती है, जो मोटे पैसेवाले तो हैं, लेकिन बहुत शांतिप्रिय हैं और उनका व्यक्तित्व हर हर-कचकच से दूर रहनेवाला है.

बिचौलिया इसकी जानकारी देता है, फिर दूसरा खेल शुरू होता है. हर कुछ दिन पर छद्म रूप से पनपनेवाले फरजी नक्सली समूह और पुलिस का मेल मिलाप होता है और फिर गिरफ्तारी दिखायी जाती है, बयान गढ़ा जाता है, फिर आन प्रदेश के किसी शहर में शांति से कमा-धमा रहे व्यक्ति को सूचित किया जाता है कि भाई साहब आप तो नक्सलियों के मददगार हैं, कहिए क्या करना है. अमूमन किसी को परेशान करने के पहले बिचौलिया बहुत दिन तक उस जगह पर रूक कर यह पता कर लेता है कि चाहे कुछ भी हो जाए, जिस व्यक्ति को फंसाया जाएगा या जिससे पैसे लिये जाएंगे, वह किसी भी हाल में हर हर-कचकच में नहीं पड़ेगा और उसके लिए उसकी प्रतिष्ठा ही सबसे बड़ी है, इसलिए अपना नाम बचाने के लिए किसी भी रूप में पैसा ले-देकर तुरंत मामले को रफा-दफा करवाना चाहेगा. और फिर झारखंड पुलिस के कुछ लोग, जो इस खेल का ट्रायल में अभी लगे हुए हैं, आगे की कार्रवाई पूरी करते हैं.

झारखंड पुलिस से जुड़ी यह जानकारी शॉक करनेवाली थी, लेकिन आश्चर्यचकित करनेवाली नहीं. पिछले 14 सालों में एक-एक दारोगा तक ने जिस तरह से यहां खुलेआम खेल किये हैं, एक मोबाइल दारोगा द्वारा सरकार को नचाते रहने का मामला सामने आता रहा है या एक डीएसपी के एक ही जगह पर जमे रहने और उसे हटाने का साहस किसी में नहीं हो, का मामला सामने आता रहा है, उससे लगा कि ऊपर से नियंत्रणहीन हो चुके और ऊपर में ही सड़ चुकी व्यवस्था में अगर सुदूरवर्ती इलाके के किसी थाने में दारोगा-जमादार या सिपाही मिल कर यह खेल कर ही रहे होंगे, तो यह न पतियाने जैसी बात भी नहीं.

आश्चर्यचकित हो जानेवाली बात भी नहीं. बालू से तेल निकालने की यह कला, लहरों को गिन कर भी पैसा कमा लेने की कला या सजा के तौर पर सुदूरवर्ती इलाके में भेजे जाने के बाद भी उसे उपयोगी बना लेने की कला है यह, जिसमें झारखंड पुलिस को विशेषज्ञता रही है.

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