सुरजीत सिंह
रांची : पलामू में विश्रमपुर थाना क्षेत्र की घासीदाग पंचायत के छोटकी कोरिया गांव में माओवादियों ने टीपीसी के 16 उग्रवादियों की हत्या कर दी. वर्ष 2013 में होली के दिन चतरा के कुंदा थाना क्षेत्र में टीपीसी ने 10 माओवादी मार गिराये थे. लातेहार और हजारीबाग में भी ऐसे ही हालात हैं. छोटकी कौड़िया गांव की घटना के पांच-छह घंटे बाद तक पुलिस घटनास्थल पर नहीं पहुंच सकी. क्योंकि वहां पुलिस के लिए हालात ऐसे नहीं हैं कि वह माओवादियों का मुकाबला कर सके.
यह हाल चार नक्सल प्रभावित जिलों हजारीबाग, चतरा, लातेहार और पलामू का है. विश्रमपुर की घटना के बाद एक बार फिर से यह सवाल उठने लगा है कि इन चार जिलों में पुलिस कहां है. पुलिस ने माओवादियों से लड़ने की जिम्मेदारी टीपीसी, जेपीसी जैसे उग्रवादी संगठनों पर छोड़ दी है. जहां कहीं भी माओवादियों की गतिविधि की सूचना मिलती है, जिले की पुलिस वहां पर टीपीसी के दस्ते को भेज देती है. बदले में टीपीसी के उग्रवादी तमाम तरह के कारनामे (हत्या, रंगदारी, लेवी, राजनीतिक दलों को मदद) करते
रहते हैं.
टीपीसी ने दो कमांडरों को मारा था
25 माओवादियों को बनाया था बंधक
चतरा : पलामू के विश्रमपुर थाना क्षेत्र में 16 टीपीसी उग्रवादियों की हत्या कर माओवादियों ने चतरा के कुंदा लकडमंदा घटना का बदला लिया है़ 28 मार्च, 2013 को लकड़मंदा में टीपीसी के उग्रवादियों ने एक मुठभेड़ में 10 माओवादियों को मार गिराया था. टीपीसी के उग्रवादियों ने 25 माओवादियों को बंधक भी बना लिया था.
बाद में परिजनों को बुला कर उन्हें सौंप दिया था़ मारे गये माओवादियों में दो बड़े कमांडर झारखंड-बिहार मध्य जोन के सचिव लवलेश उर्फ प्रशांत, जोनल कमांडर बीरू यादव उर्फ धर्मेद्र के अलावा जयकु मार यादव, अजय यादव, प्रफुल्ल यादव, अलवत इलियास, विजय गंझू, धनंजय भुईयां, पप्पू पासवान, प्रमोद उर्फ प्रभात शामिल थ़े इस मुठभेड़ में टीपीसी के एक सदस्य अमरेश पाल भी मारा गया था.
जुबां पर ताला, आंखों में दहशत
छोटकी कौड़िया कांड के बाद इलाके के ग्रामीण सहमे
पांडू (पलामू) : पता नहीं अब आगे क्या होगा? रात गुजरी गोलियों की तड़तड़ाहट के बीच. रात में एक संगठन के लोग चले गये, सुबह दूसरे संगठन के लोग आये. ग्रामीणों को ही शक और संदेह के दृष्टि से देख रहे हैं. ग्रामीण क्या करें. एक संगठन वाले आते हैं. कहते हैं कि पहले को पनाह न दो.
दूसरे वाले पहले का विरोध कर चले जाते हैं. पर निहत्थे ग्रामीण के दरवाजे पर जब हथियारबंद दस्ता पहुंचता है, तो ओंठ बंद हो जाते हैं. आंखों में दहशत होता है. वह न चाह कर भी पनाह देते हैं. यह स्थिति है विश्रमपुर थाना क्षेत्र के घासीदाग पंचायत के छोटकी कौड़िया गांव की. शुक्रवार की रात यहां माओवादियों ने टीपीसी के 16 लोगों को मार गिराया.
उसके बाद शनिवार को सुबह गांव में सन्नाटा था. ग्रामीण कुछ भी कहने को तैयार नहीं. कैसे हुआ, क्या हुआ, कुछ पूछने पर ग्रामीण कहते थे, हमलोगों को बीच में कहां फंसा रहे हैं. वैसे भी दहशतों के साये में ही रात गुजरती है बाबू. यदा-कदा संगठन के लोग पहुंचते हैं. कहते हैं कि रात यही गुजारेंगे. विरोध भी नहीं कर पाते. किसी भी समय सुरक्षा का माहौल नहीं.
हमेशा असुरक्षा की स्थिति, पर दर्द किससे कहें. कोई सुननावाला हो, तब न. बस भगवान के भरोसे जिंदगी कटती है. हथियार सामने देख कर अच्छे-अच्छे की बोलती बंद होती है. हम तो गरीब हैं, कहेंगे भी तो क्या? मालूम हो कि छोटकी कौड़िया गांव पांडू से लगभग छह किलोमीटर की दूरी पर है. 50 घरों की बस्ती,आबादी 500 के करीब. शुरुआती दौर में यह माओवादियों के प्रभाव वाला क्षेत्र, जब संगठन में टूट हुई, तो टीपीसी ने भी पांव फैलाया, आवाजाही शुरू हुई.
यही बात माओवादियों को खलती थी. इसलिए माओवादी इस फिराक में थे कि किसी दिन टीपीसी को घेरा जाये. शनिवार को सुबह गांव पहुंचने पर सन्नाटा दिखा. ट्रैक्टर पर टीपीसी वाले मारे गये साथियों के शव ले जा रहे थे. बताया जाता है कि शुक्रवार को गांव में राजेश व गिरेंद्र जी का दस्ता रुका था. इस घटना के बाद यह भी सवाल उठ रहा है कि क्या माओवादियों ने एक बार फिर इस इलाके में मजबूती बना ली है. क्योंकि यह कहा जा रहा था कि टूट के बाद टीपीसी का वर्चस्व बढ़ा है.
कौन मजबूत हुआ, कौन कमजोर. यह तो अलग बात है, लेकिन दर्द ग्रामीणों का है. उन्हें किसी के मजबूत व कमजोर होने से मतलब नहीं, बल्कि वह किसी तरह इस दहशत से मुक्ति चाहते हैं. खुली हवा में सांस लेने की इच्छा है. सवाल यह है कि वह दिन आखिर कब आयेंगे.