मोदी उन्माद से मजबूर बुनकर
वाराणसी से अजय सिंह
नरेंद्र मोदी के वाराणसी से नामांकन से एक दिन पहले मैंने अपने युवा मित्र शाहिद , जो बुनकर समुदाय से हैं, को फोन किया और पूछा कि कल हमारी मुलाकात कैसे होगी क्योंकि पूरा शहर तो थम-सा जायेगा. मुङो यह पता था कि सभी बाजार और विद्यालय बंद रहेंगे और मोदी के काफिले के रास्ते में जबरदस्त सुरक्षा-व्यवस्था होगी.
शाहिद ने लाक्षणिक अंदाज में कहा कि वाराणसी एक भूलभूलैया है जहां सड़कें कभी खत्म नहीं होतीं और एक-दूसरे से जुड़े अनगिनत गली-कूचों से गुजरते हुए आपको आपकी मंजिल तक पहुंचने का रास्ता मिल ही जाता है. उन्होंने निश्चितंता से कहा कि वे मेरे पास 7.30 बजे सुबह आ जायेंगे और मुङो वाराणसी कही जानेवाली इन पेचीदा गलियों से ले चलेंगे. नियत समय पर शाहिद बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के अतिथि-गृह पहुंच गये, जहां मैं ठहरा हुआ था.
मैं उनकी पल्सर मोटरसाईकिल पर बैठकर ‘लंका’ के नाम से विख्यात विश्वविद्यालय के मुख्यद्वार पर पहुंचा, जहां इस महान शिक्षण संस्था के संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर मोदी अपनी यात्रा प्रारंभ करनेवाले थे. मोदी के आने में तीन घंटों के विलंब के बावजूद चौराहे पर जमा भीड़ लगभग उन्मत्त हो रही थी. ऐसे में हमने किसी बाहरी की पहुंच से दूर गलियों के मकड़जाल में बसे दूसरे वाराणसी को देखने का निर्णय किया.
इन गलियों से गुजरने के लिए किसी जिमनास्ट का कौशल चाहिए. हम बजरडिहा की ओर बढ़े जहां के अधिकांश बाशिंदे मुसलिम बुनकर हैं. बजबजाती नालियों और घनी आबादी को देखकर साफ लग रहा था कि यह जगह प्रशासन के नक्शे पर मौजूद नहीं है. हरतरफ चलते करघों की आवाज सुनते हुए हम उस जगह पहुंचे जहां साड़ियों के लिए रेशमी धागे तैयार हो रहे थे.
वाराणसी के शहरी और आधुनिक हिस्से में व्याप्त राजनीतिक उन्माद से बिल्कुल अलग यहां लोग अपनी रोज की जिंदगी में व्यस्त दिख रहे थे. शाहिद के इर्द-गिर्द जमा बुनकर बता रहे थे कि किसतरह रेशम से निकाले गये धागों से प्रसिद्ध बनारसी साड़ी बनायी जाती है. ‘लेकिन यहां के मजदूरों की दशा बहुत खराब है क्योंकि वे किसी तरह 100 रुपये रोज ही कमा पाते हैं’, धागा बनानेवाले एक मजदूर ने बताया. एक बुजुर्ग ने बताया कि साड़ियों के खरीददारों की कमी से इस व्यवसाय में बहुत मंदी है. वहां मौजूद अन्य लोगों ने भी इसपर हामी भरी. एक दुर्बल लेकिन जवान बुनकर ने क्षुब्ध भाव से कहा कि जिंदगी इतनी कठिन है कि दो वक्त का खाना नसीब होना भी दूभर हो गया है. उसकी आवाज में उसकी बेचैनी साफ झलक रही थी.
शाहिद ने बताया कि बचपन से मैंने बजरडिहा में कोई परिवर्तन नहीं देखा है जो वाराणसी की सबसे गंदी बस्तियों में एक है. उसने कहा कि आइपीएल ने भी इस जगह की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया है. इसपर अन्य लोगों ने भी सहमति जतायी. मैंने आश्चर्य से पूछा, ‘इस शहर के बुनकरों की जिंदगी से आइपीएल का क्या लेना-देना है?’ शाहिद ने जानकारी दी कि रेशम के व्यापार में पहले लगनेवाले धन का एक बड़ा हिस्सा अब टीमों पर सट्टे में लगाया जाता है.
स्थानीय लोगों ने बताया कि इस धंधे में काम करनेवाले नौजवान लड़के अधिक समय और धन अब काम के बजाये सट्टेबाजी में लगाते हैं. कुछ तो जीत जाते हैं, लेकिन ज्यादातर अपना धन गंवा देते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि सट्टेबाजी एक नशा है जो नयी पीढ़ी की ऊर्जा को नष्ट कर देती है जो बेहतर जिंदगी की इच्छा तो रखती है लेकिन भविष्य को लेकर भ्रमित है.
बजरडिहा, मदनपुरा, गोदौलिया, दाल मंडी, लहुराबीर, तेलियाबाग, नदेसर, कैंटोंमेंट से होते हुए लल्लापुरा की घुमावदार गलियों में लौटते हुए शहर की भीतरी और बाहरी जिंदगी में पूरा विरोधाभास दिखा. इस दौरान हमने मोदी का रोड शो और उनके समर्थकों को भी देखा जिन्होंने शहर के सभी मार्गो पर कब्जा कर लिया था. संस्कृत महाविद्यालय और काशी विद्यापीठ के पास जोशीले मोदी समर्थकों ने सड़कें अवरुद्ध कर दी थीं और उनके हाथों में ‘अच्छे दिन आनेवाले हैं’ लिखे हुए बैनर थे.
मिंट बिल्डिंग चौराहे पर मोदी स्वामी विवेकानंद की मूर्ति पर माल्यार्पण करनेवाले थे. यहां हमने उनके काफिले के अतिनाटकीय स्वागत को देखने के लिए भरी दुपहरी में करीब तीन घंटे इंतजार किया. देवी-देवताओं के वेष में लोग सड़कों पर थे और छतों से हजारों लोग उनके काफिले पर पुष्प-वर्षा कर रहे थे. भीड़ की मनोदशा को भांपते हुए मोदी ट्रक से नीचे उतरकर करीब 50 कदम पैदल चलकर मूर्ति तक गये और कुछ क्षण के लिए लोगों से भी मिले. गुजरते हुए मोदी के काफिले के साथ सड़कों पर उन्माद का माहौल था.
इस उन्मादी और उत्साही प्रदर्शन से दूर हम बुनकरों के एक अन्य मुहल्ले लल्लापुरा लौट गये और दोस्त शाहिद के घर पहुंचे. उनके 70 वर्षीय पिता अब्दुल कयूम अंसारी बनारस के स्वभाव के जीते-जागते प्रतीक हैं और ठोस राजनीतिक विचार रखते हैं. अपने घर से कुछ ही दूर के उत्साह को नजरअंदाज करते हुए वे कहते हैं, ‘मोदी आराम से नहीं जीत पायेंगे क्योंकि केजरीवाल और अजय राय को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता है.
ऐसे चुनावी अनुमानों के अलावा अंसारी के पास कहने के लिए और भी कुछ है. हथकरघा और हस्तशिल्प कारीगरों के लगातार हाशिये पर धकेले जाने के संदर्भ में वे कहते हैं, ‘हमने देशभक्ति खो दी है और विदेशियों के फेर में पड़कर हाथ से काम करनेवाले को छोड़ दिया है.’ बिजली से चलनेवाले करघा खरीदने के लिए गुजरात के सूरत शहर की अपनी यात्रा का जिक्र करते हुए वे बताते हैं, ‘मोदी गुजरात मॉडल की बात करते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि सूरत में हाथ व बिजली से चलनेवाले करघे बरबाद हो गये हैं. उन्होंने सुरत से पुरानी मशीन खरीद कर बनारस में उसमें कुछ सुधार कर एक ऐसा डिजायन बनाया जिसकी नकल चीन के उद्यमी भी नहीं कर सके जो पिछले कुछ समय से भारत के बनारसी साड़ी बाजार में जगह बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं.
जो बातें अंसारी ने कहीं, वे वाराणसी के अंतर्निहित शक्ति की अभिव्यक्ति हैं. अविष्कार और जीवन की भूलभूलैया में अर्थपूर्ण मोड़ को तलाश कर लेने की उनकी क्षमता अनपढ़ कारीगरों द्वारा मशीनों की डिजायन को बेहतर कर लेने के इस प्रयास में दिखती है. ‘लेकिन सूरत में बेहतर सुविधाएं हैं और यह एक धनी शहर है.’, अंसारी ने कहा.
क्या वाराणसी को बेहतर सुविधाओं की जरूरत नहीं है? इसका उत्तर यहां के जनप्रतिनिधियों, चाहे वे किसी भी दल से संबद्ध हों, द्वारा किये गये भारी विश्वासघात में है. क्या मोदी एक अपवाद साबित होंगे? अंसारी और उनके जैसे शहर की अंदुरुनी बस्तियों में रहनेवाले संदेह में हैं, वहीं आधुनिक वाराणसी की शहरी आबादी ‘अच्छे दिन’ की उम्मीद में उत्साहित है. शायद 24 अप्रैल को सड़कों पर मचे उन्माद से कहीं अधिक इस पवित्र शहर की घुमावदार गलियों में एक दिन घूमना विडंबनाओं और विरोधाभासों से परिचित कराता है.
(लेखक गवर्नेस नाऊ के प्रबंध संपादक हैं)