इस धरा पर किसी भी प्राचीन या आदिवासी समुदाय की पहचान उसकी संस्कृति से होती है और इन संस्कृतियों की पहचान उसके पर्व-त्योहारों से होती है. सरहुल केवल एक पर्व ही नहीं है बल्कि झारखंड के गौरवशाली प्राकृतिक धरोहर का नाम है सरहुल. यही धरोहर मानव-सभ्यता, संस्कृति एवं पर्यावरण का रीढ़ भी है. यह एक ऐतिहासिक पर्व है और इसकी परंपराएं बहुत भिन्न हैं.
इस पर्व में गांव का पुजारी यानी पाहन सारी परंपराएं संपन्न कराते हैं. पर्व का उद्देश्य होता है सृष्टि संबंध और उसमें आदिवासियों की भूमिका को प्रतीकात्मक पुनरावृत्ति के जरिये कायम रखना. चैत्र कृष्ण पक्ष तृतीया तिथि से शुरू होकर दो माह तक चलनेवाला यह एक अद्भुत धार्मिक त्योहार है.
साल के वृक्ष में फूलों का आना इस त्योहार के आने का द्योतक है. साल के वृक्ष के अलावे प्रकृति में उपजनेवाली सभी वन-संपदा का अपनी आराध्य देवी पर अर्पण करने के बाद ही स्वयं इनका इस्तेमाल शुरू करते हैं ये प्रकृति-पूजक. मुख्यत: संथालों और उरावों द्वारा आयोजित इस पर्व में ‘फूल गईल सारे फूल, सरहुल दिना आबे गुईया’ जैसे गीतों की ताल पर प्रसिद्ध सरहुल नृत्य पर झूमते हुए प्रकृति से अपने जुड़ाव और आत्मीयता का परिचय देते हैं ये. प्रकृति की पूजा के पर्व की महिमा पर आधारित, पढ़ें हमारा यह संयोजन.
आओ कि धरती आज फिर उम्मीदों से भरी है
माना कि, कुछ गीत छलनी जरूर हुए हैं
हमें कुछ चोट जरूर लगी है
कुछ फसलें सही उपज नहीं दे पायी
कुछ घडे पानी लाते वक्त ही टूट गये
हजारों साल की प्रवाह में नदी के तट आड़े-तिरछे कटे तो हैं
लेकिन देखो साखू को
फिर भी वह लक-दक कर सजा है
तुम्हारी ही प्रतीक्षा में है
कुछ बोलो गीत के बोल
यह हमारी ही धरती है,यह हमारा ही देस है
कभी हो सकता है कि हमने
अपनी ही धरती में अजनबी महसूस किया हो
हो सकता है कि पड़ोसी ने ही जानबूझकर हल की फाल
हमारे खेत की मेंड़ की तरफ घुसा दिया हो
लेकिन इतने भर से तो तोड़ नहीं सकते बासंती रिश्ते
खत्म नहीं हो जाती उसकी फाल्गुनी हंसी
रंग और रिश्ते तो हमारे अपने हैं सदियों से सरहुल में घुलते हुए
ये लो फूल आओ तुम्हें खोंस दूं
ये लो गीत आओ तुम्हें सौंप दूं
आओ, मेरे हाथ में हाथ दो
आओ, गुंथ जाओ अखड़ा में
आओ, सभी दिशाओं से सब आओ
पंडुक आओ, पपीहा आओ, गिलहरी आओ,
आओ, हूल के शहीदों आओ
आओ, हूल के बाशिंदों आओ
आओ, धूप के हमलों से पहले
फूलों के मुरझाने से पहले
आओ, कि सरहूल है हुल के लिए
आओ, कि हुल है सरहुल के लिए
सरहुल-हूल , हूल- सरहुल
लय है संपूर्ण जीवन का ,
आओ, एक दोना हड़ियां देवताओं को चढ़ा कर
अपनी पवित्रता और निश्छलता बनायें रखे
आओ, साझा करें मांदल और अखड़ा
आओ, फफोले पड़ते आत्मा को भर दें गीतों से
आओ, सरहुल को हम घायल और आहत होने न दें
आओ कि धरती आज फिर उम्मीदों से भरी है.
विश्वव्यापी है आदिपर्व सरहुल की अवधारणा
झारखंड में बसंत के समय हर्षोल्लास से मनाया जानेवाला मुख्य पर्व है सरहुल. अलग-अलग समूहों में अलग-अलग नामों का प्रचलन है, जैसे- उरांव में खद्दी या खेखेल बेंजा, मुंडा में बापोरोब, खड़िया में जाड़कोर, हो-संताल में बाहा परब आदि जिसमें भरपूर उत्पादन की कामना के साथ हर बार प्रतीकात्मक रूप से सूर्य-आकाश के साथ धरती का विवाह संपन्न कराया जाता है. यही वह ऋतु है जब प्रकृति के साथ-साथ समस्त जीव-जगत में नयी ऊर्जा का संचार होता है. धरती भी फलों-फूलों, नयी पत्तियों, कोंपलों, पल्लवों से सजकर अपनी उत्पादन क्षमता का संकेत देती है. इसी प्रजनन-उत्पादन क्षमता की वजह से एक समय समाज में महिलाओं को उच्च दर्जा प्राप्त था.
इसके अवशेष झारखंडी देशज समूहों में अब भी देखे-सुने जा सकते हैं. आज की परिस्थिति में उच्च दर्जा न सही, अपने गरिमामय झारखंडी परंपरा का आदर करते हुए क्यों न हम सरहुल के इस पावन अवसर पर महिलाओं को हर स्तर पर बराबरी के दरजे को स्वीकार करने की दिशा में पुन: कदम बढ़ायें.
कम नहीं हुआ उत्साह
सरहुल झारखंड में रहनेवाली जनजातियों का प्रमुख त्योहार है. इसमें युवाओं की भागीदारी महत्वपूर्ण मानी जाती है, आधुनिकीकरण के शुरुआती दिनों में इस पर्व के प्रति रुझान कम हुआ था, लेकिन आज युवा फिर उसी हर्षोल्लास के साथ मनाते हुए दिख रहे हैं. जनजातियों की कई चीजें लुप्त होने के कगार पर हैं, पर सरहुल का उत्साह कम नहीं हुआ.
प्रोफेसर बीपी केसरी
संस्कृति को बचाने की जरूरत
सरहुल आदिवासी जनजातियों का प्रमुख त्योहार माना जाता है, लेकिन वैश्वीकरण के इस दौर में कथित विकास की अवधारणा ने सरहुल फूल पर हमला बोल दिया है. आदिवासियों के विरासत जल-जंगल-जमीन आबाद करने का अपना इतिहास रहा है. लेकिन आज का आधुनिक दौर इस जंगल-जमीन को बरबाद करने में तुला है, जिससे यह संस्कृति खतरे में है. इसे बचाने की जरूरत है.
दयामनी बारला
प्रकृति को पैसों से न तोलें
सरहुल सादगी के साथ मनाया जानेवाला त्योहार है. भले ही आज के युवा इसे आधुनिक रूप देना चाहते हैं, लेकिन इसका मूल रूप आज भी बरकरार है और आगे भी रहेगा. इस पर्व में सृष्टि की पूजा अर्चना की जाती है, इसलिए इस समुदाय के लोग महिलाओं की भागीदारी को अहम मानते हैं. यह पर्व हमें बताता है कि प्रकृति को पैसों से नहीं तोला जा सकता, इसलिए इसके साथ कोई छेड़छाड़ सही नहीं है.
वंदना टेटे
पर्यावरण संरक्षण की मिसाल
वनवासियों के प्रत्येक तीज-त्योहारों में प्रेरणादायक संदेश के साथ आपसी भाईचारे की भावना को मजबूती मिलती है. इन्हीं में से एक वर्षो पुराना सरहुल पर्व भी है, जिसमें गांव-गांव से लोग इकट्ठा होकर पेड़ और धरती की पूजा करके पर्यावरण संरक्षण के काम में अनोखी मिसाल कायम कर रहे हैं.
प्रोफेसर अमिता मुंडा