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भूख-बेकारी को मिटाये बिना असल आजादी नहीं

हाजीपुर : मुल्क पर विपदा आयी थी तो हमने खून दिया, बहार आयी है, तो कहते हैं, तेरा काम नहीं…’ स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नेता सीताराम सिंह अपना दर्द बयां करते हुए इन पंक्तियों को दोहराते हैं और फफक पड़ते हैं. आजादी के कठिन संघर्ष को याद करते हुए देश और समाज की मौजूदा हालत […]

हाजीपुर : मुल्क पर विपदा आयी थी तो हमने खून दिया, बहार आयी है, तो कहते हैं, तेरा काम नहीं…’ स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नेता सीताराम सिंह अपना दर्द बयां करते हुए इन पंक्तियों को दोहराते हैं और फफक पड़ते हैं. आजादी के कठिन संघर्ष को याद करते हुए देश और समाज की मौजूदा हालत पर विह्वल हो उठते हैं सीताराम बाबू. रूंधे गले से उन भूले-भटके गुमनाम हमसफर सेनानियों के संघर्षों की दास्तान सुनाते हैं,

जिन्हें गोरी फौज के सिपाहियों ने छलनी कर दिया था. वैशाली की धरती पर विंध्यवासिनी प्रसाद सिंह, रामअवतार राय, रामवृक्ष राय, राम नरेश राय, बुद्धन पासवान, हरिवंश राय, रामदास, फौजदार ठाकुर, हेमराज राय जैसे सपूतों की शहादत का स्मरण कराते हैं और उन्हें भुला दिये जाने पर गहरा दु:ख प्रकट करते हैं. सवालिया लहजे में कहते हैं क्या सोच कर चले थे और आज क्या-क्या हो रहा है. . आजादी के इतने सालों बाद भी भूख, कुपोषण, हिंसा, अत्याचार, गरीबों का शोषण महिला उत्पीड़न, किसानों की आत्महत्या जैसे सवाल बेचैन कर देते हैं.

उन्होंने कहा, भूख-बेकारी को मिटाये बिना असल आजादी नहीं मिल सकती़ आज के राजनेताओं से गहरी नाराजगी जताते हुए कहते हैं कि ये राष्ट्र और समाज के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ अपने लिए सोच रहे हैं. लोकतंत्र को नेताओं ने भीड़तंत्र में बदल डाला है. इस भीड़तंत्र की अगुआई में सारे दल एक-दूसरे से होड़ ले रहे हैं.

आजादी के कठिन संघर्ष को याद करते हुए फफक पड़े स्वतंत्रता सेनानी सीताराम सिंह
लड़नी होगी दूसरी आजादी की लड़ाई
जंग-ए आजादी और सोशलिस्ट आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले स्वतंत्रता सेनानी एवं पूर्व सांसद सीताराम सिंह 97 वर्ष से ऊपर के हो चले हैं. उम्र के इस पड़ाव पर भी देश और समाज की बेहतरी के लिए संघर्ष का जोश और जज्बा जो उनके अंदर दिखता है, वह वाकई गजब का है. वे कहते हैं कि सामाजिक परिवर्तन के लिए स्वतंत्रता संग्राम की तरह एक और लड़ाई लड़ने की जरूरत आ पड़ी है.
बेशक, यह लड़ाई किसी पार्टी और नेता के भरोसे नहीं, बल्कि जनता को अपने दम पर लड़नी होगी. लोकनायक जयप्रकाश नारायण से अपनी अंतिम मुलाकात का जिक्र करते हुए सीताराम बाबू बताते हैं कि तब जेपी ने कहा था कि तुम लोग अगस्त क्रांति की तरह जनता की चेतना को जगाओ. उन्हें गोलबंद कर दूसरी क्रांति की तैयारी करो,
तभी व्यवस्था परिवर्तन संभव है. संसद और विधानसभाओं से जनता की उम्मीदें टूट चुकी हैं. बड़े राजनेता, बड़े उद्योगपति, बाहुबली और बड़े नौकरशाहों ने मिल कर लोकतंत्र को पिंजड़े का पंछी बना दिया है. शरीर से थक चुके इस बुजुर्ग स्वतंत्रता सेनानी के चेहरे पर निराशा के भाव जरूर हैं, लेकिन इनकी आंखों के समंदर में आशाओं का पानी तैर रहा है.
तभी तो स्थिति में बदलाव का विश्वास जताते हुए कहते हैं कि सब्र और सहने की सीमा होती हैं. धीरज का बांध टूटता है, तो प्रलय और परिवर्तन होता है.
गांधी के आह्वान पर अगस्त क्रांति में हुए थे शामिल
युवा सोच और भावुक हृदय वाले सीताराम सिंह जिले के महुआ प्रखंड के कुशहर गांव निवासी हैं. 18 मई, 1919 को इनका जन्म मुजफ्फरपुर जिले के बाधी, लदबरिया गांव स्थित ननिहाल में हुआ था. दो-ढाई साल के ही थे, तो इनकी मां चल बसी थीं. आजादी की लड़ाई में कैसे शामिल हुए, यह पूछने पर सीताराम बाबू बताते हैं कि अंगरेजी सरकार के विरुद्ध देश में बगावत का वातावरण था. शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की फांसी और फिर बैकुंठ शुक्ल की फांसी का समाचार सुन कर मेरा मन विचलित हो उठा. आत्मा धिक्कारने लगी. तभी प्रण कर लिया कि भारत की मुक्ति के लिए मैं भी अपना जीवन समर्पित कर दूंगा.
1942 में गांधी जी के आह्वान पर अगस्त क्रांति में सक्रिय हो गया. 11 अगस्त को गिरफ्तार कर लिया गया. सब जेल हाजीपुर में बंदी बना कर लाया गया. लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए जेल से निकलने की योजना बनायी गयी और 14 अगस्त को सार्थियों के साथ जेल का फाटक तोड़ कर बाहर निकल गये. उसके बाद भूमिगत होकर आंदोलन के संचालन में लग गये.

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