उदाकिशुनगंज: उद्योग मंत्रलय भारत सरकार की दोष पूर्ण खरीद नीति के कारण जिले में जूट की खेती ठप हो गयी. किसानों की आर्थिक स्थिति बदतर हो गयी. इसके कारण गरीबी बढ़ी, जूट की जगह नायलॉन के उपयोग के कारण प्रदूषण भी बढ़ा. अब भी देर नहीं हुई है, अगर सरकार चाहे तो जूट की खेती के लिए योजना बना कर गरीबी भी मिटा सकती है .
कब शुरू हुई पटसन की खेती : उदाकिशुनगंज अनुमंडल के किसानों ने 1972 से पटसन की खेती करना शुरू किया था. लागत कम व मुनाफा अधिक होने के कारण छह हजार एकड़ भूमि में जूट की खेती की जाने लगी थी. बीज बोने के बाद एक बार निकोनी कर दी जाती थी. बाद के दिनों में न निकोनी, न पटवन न उर्वरक की जरूरत पड़ती थी. फिर भी प्रति एकड़ 20 से 30 क्विंटल पटसन का पैदावार हो जाता था. इससे किसानों को काफी मुनाफा होता था.
बुआई व कटाई का समय : किसान गेहूं की कटनी करने के बाद मार्च महीने में जूट की बुआई करते थे, जबकि कटनी अक्तूबर से दिसंबर माह में होती थी. जिस खेत में जूट की खेती होती थी उसकी उर्वरा शक्ति में वृद्धि हो जाती थी. पटसन के पौधों से गिरने वाले पत्ते जैविक खाद का काम करते थे. ऐसे खेतों में खरपतवार भी नहीं होता था. जूट की खेती के बाद उगने वाली फसल से अच्छी पैदावार होती थी.
बाजार भी था उपलब्ध : उस समय तैयार जुट की बिक्री में किसानों को काफी सुविधाएं थी. चूंकि बिहारीगंज में भारतीय जूट निगम व व्यापार मंडल जूट की खरीद करते थे. बिहारीगंज के दर्जनों व्यापारी भी जूट खरीदते थे. किसानों को आसानी से उचित मूल्य भी मिलता था. बाद में भारत सरकार द्वारा जूट की दर चार सौ 23 रुपये 50 पैसे प्रति क्विंटल निर्धारित कर दी गयी थी. जबकि पूर्व में 11 सौ से 16 सौ रुपये प्रति क्विंटल की दर से जूट की खरीदारी की जाती थी. कभी – कभी तो बाजार में लाल जूट दो हजार रुपये प्रति क्विंटल की दर से खरीदी जाती थी.
पंचवर्षीय योजनाओं में उतार-चढ़ाव : दूसरी पंचवर्षीय योजना में सरकार की ओर से जूट की कीमत में वृद्धि की गयी. इससे जूट की खेती में और बढ़ोतरी हुई थी, लेकिन तृतीय पंचवर्षीय योजना में जूट की कीमत में कमी आ गयी.
जूट का स्थान नायलॉन बैग लेने लगा था. इससे जूट की खपत पर असर पड़ा, लेकिन चतुर्थ पंचवर्षीय योजना में नायलॉन बैग की जगह पुन : जूट के बोरे उपयोग में आने लगे.
कटिहार जूट मिल हुआ बंद : कटिहार में दो जूट मिल खुल गये, परंतु 1975 के बाद सरकार ने जूट का मूल्य निर्धारित नहीं किया. हालांकि 1975 में ही संजय गांधी ने अररिया जिले के फारबिसगंज व किशनगंज में भी जूट मिल कारखाने का शिलान्यास किया था. तब यहां किसानों में काफी आशाएं जगी थी. जूट की खेती कर किसानों ने अधिक ध्यान देना शुरू कर दिया था, लेकिन उक्त दोनों जूट कारखाना मूर्त रूप नहीं ले सका. बाद के दिनों में प्रबंधन की लापरवाही के कारण कटिहार जूट मिल व आरबीएस जूट मिल कटिहार भी बंद हो गया. इसके बाद जूट किसानों के लिए बाजार बंद सा हो गया.
शुरू हो गयी किसानों की बदहाली
1992 में आर्थिक बदहाली का रोना रोते हुए भारतीय जूट निगम ने प्रति किसान से केवल छह क्विंटल जूट खरीद का प्रावधान कर दिया. यह भी बीडीओ के अनुशंसा के बाद. इस घोषणा के बाद तो किसानों पर बिजली गिर पड़ी. चूंकि भारतीय जूट निगम ,कोलकाता स्थित मुख्यालय से आदेश जारी कर दिया गया था कि प्रति पंचायत 30 क्विंटल ही जूट प्रतिदिन खरीद करें. ऐसी स्थिति में जूट की पूरी खरीद करना जूट निगम से संभव नहीं हो सका. बाद में जूट निगम के साथ-साथ व्यापार मंडल कार्यालय भी बंद हो गया. उस समय पैदावार किये गये जूट को आग के हवाले कर देना किसानों की मजबूरी बन गयी थी. अब न तो जूट निगम व बिस्कोमान रहा और न तो बाजार ही उपलब्ध रहा. फलस्वरू प अब जूट की खेती से किसान विमुख हो चुके हैं.
जूट से बनते हैं वस्त्र भी
जूट एक प्राकृतिक रेशा है, जिसके अच्छी किस्म से कपड़े भी बनाये जाते हैं. साथ ही बोरी का निर्माण किया जाता है. इसके लिए सरकार किसानों को अच्छे किस्म के जूट उगाने के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था करती और बीज मुहैया कराती, जूट की खेती को ही बंद कर दिया गया. अब प्लास्टिक कचरा के कारण ग्लोबल वार्मिग की समस्या है और जूट जैसी चीजें इसके हल के तौर पर देखी जा रही है.