उदासीनता. दुग्ध उत्पादन में अग्रणी जिला अब दूध को तरस रहा
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पैकेट बंद दूध पर लोग हैं निर्भर
उदासीनता. दुग्ध उत्पादन में अग्रणी जिला अब दूध को तरस रहा मिथिलांचल की पहचान ही दूध, पान, मछली व मखाना से होती रही है. लेकिन कुसहा त्रासदी के बाद स्थिति बिल्कुल बदल सी गयी. हाल यह है कि जो क्षेत्र दूध के उत्पादन में अग्रणी था. वहां के लोग बाहरी दूध पर निर्भर हैं. सुपौल […]
मिथिलांचल की पहचान ही दूध, पान, मछली व मखाना से होती रही है. लेकिन कुसहा त्रासदी के बाद स्थिति बिल्कुल बदल सी गयी. हाल यह है कि जो क्षेत्र दूध के उत्पादन में अग्रणी था. वहां के लोग बाहरी दूध पर निर्भर हैं.
सुपौल : एक दशक पूर्व कोसी व सीमांचल दुग्ध उत्पादन क्षेत्र में अग्रणी था. पशुपालकों की वजह से इस इलाके के लोग दूध का निर्यात अन्य जगहों पर भी करते थे. समय बीता, बहुत कुछ बदला और दूध उत्पादन के क्षेत्र में यहां की स्थिति भी बदल गयी. मिथिलांचल की पहचान ही दूध, पान, मछली व मखाना से होती रही है. लेकिन कुसहा त्रासदी के बाद स्थिति बिल्कुल बदल गयी. हाल यह है कि जो क्षेत्र दूध के उत्पादन में अग्रणी था. वहां के लोग बाहरी दूध पर निर्भर हैं. एक और कारण बेशुमार बढ़ती आबादी और पशुपालन के प्रति घटती लोगों की रुचि है. जिसके कारण सीमांचल में दूध की काफी किल्लत हो गयी.
पर्व, त्योहार, उत्सव व अन्य समारोह की बात तो दूर दैनिक उपयोग के लिए भी लोग पैकेट बंद दूध पर आश्रित हैं. हालांकि राज्य सरकार ने दुग्ध उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए बहुप्रचारित गव्य विकास योजना की शुरुआत की. धीरे-धीरे लोगों के बीच योजनाओं की जानकारी मिल रही है. जिसके बाद लोग उसका लाभ उठा सकेंगे. दूध उत्पादन व्यवसाय से जुड़ने के लिए सरकार ने डेयरी प्रोजेक्ट के तहत 50 से 75 प्रतिशत अनुदान देने का निर्णय लिया, लेकिन विभागीय उदासीनता व बैंक प्रबंधक की लापरवाही के कारण यह अति महत्वाकांक्षी योजना आज अधर में लटक गया है.
पशुपालकों के लिए सबसे बड़ी परेशानी है पशुचारा
जानकारों की मानें तो कुसहा त्रासदी के बाद पशुपालन के प्रति घटती लोगों की अभिरुचि के कारण ही क्षेत्र में दूध उत्पादन का कारोबार प्रभावित हुआ. पूर्व में एक-एक व्यक्ति के पास सैकड़ों दुधारू पशु हुआ करते थे. लेकिन समय के साथ परिस्थिति बदली और लोग इस व्यवसाय से धीरे-धीरे अलग होने लगे. पशु पालकों के लिए सबसे बड़ी परेशानी पशु चारा की होती है. कोसी त्रासदी के बाद सैकड़ों एकड़ भूमि में बालू जमा हो गया. जिसके कारण पशु पालकों को चारे की काफी किल्लत हो गयी. साथ ही बढ़ती जनसंख्या भी एक बड़ा कारण माना जाता है. जानकारों की मानें तो पूर्व में एक पशुपालक के पास दर्जनों दुधारू पशु हुआ करते थे.
जो चारे के लिए मैदानी इलाकों में एक-एक महीने गुजारते थे. वहीं घटते मैदानी इलाकों की वजह से सब कुछ महंगा हो गया और पशुपालक की संख्या घटती गयी. जिसके कारण यहां के लोग भी पैकेट बंद दूध पर निर्भर हो गये. सरकार द्वारा योजना चला कर लोगों को पशु पालन के प्रति जागरूक करने का प्रयास भले ही किया गया. लेकिन बैंक प्रबंधक व विभागीय उदासीनता के कारण ऐसी योजनाएं भी धरातल पर ठीक से उतर नहीं सकी. जिसके कारण दूध के उत्पादन के लिए विख्यात इस इलाके के लोग आज खुद दूध की किल्लत से जूझ रहे हैं. राज्य सरकार द्वारा जहां डेयरी प्रोजेक्ट को बढ़ावा देने के लिए पशुपालकों को अनुदान देकर मवेशी पालने की दिशा में प्रेरित कर रही है. वहीं जिला गव्य विकास विभाग तथा बैंक की उदासीनता के कारण योजना का सफल क्रियान्वयन सरजमी पर महज कागजी खानापूर्ति ही साबित हो रहा है. जानकारों की माने तो सरकार द्वारा पशुपालकों को दुधारू गाय खरीदने के लिए अनुदान के तौर पर दो गाय के लिये 1 लाख 41 हजार रुपये, पांच गाय के लिये 3 लाख 52 हजार 500 रुपये, दस गाय के लिये 7 लाख 30 हजार रुपये और 20 गाय के लिये 14 लाख 60 हजार रुपये दिया जाता है. जिसमें सामान्य वर्ग के लाभुकों को 50 तथा एससी/एसटी को 75 फीसदी की सब्सिडी दी जाती है. हकीकत में यह आंकड़ा केवल कागजी है. बैंक कर्मियों की मनमानी के कारण लाभुकों को इन योजनाओं का लाभ नहीं मिल रहा है. वर्ष 2014-15 में गव्य विकास कार्यालय में गोपालन ऋण के लिए 804 आवेदन दिये गये थे. जिसमें 144 लाभुकों को योजना का लाभ मिला. वही वर्ष 2015-16 में 431 आवेदनों के विरुद्ध महज 118 लाभुकों को ही ऋण स्वीकृत हुई.
गव्य विभाग लक्ष्य के अनुरूप योजना का लाभ लाभुकों को दे रही है. विभाग ज्यादा से ज्यादा लाभुकों को इस योजना का लाभ देने के प्रति गंभीर है. विभाग द्वारा बैंक को भेजी जाने वाली सूची में वैसे लाभुक ही होते हैं. जो विभागीय अर्हता को पूरा करता है. कुछ लोगों को बैंक द्वारा ऋण नहीं दिये जाने के कई कारण हैं. जिसमें एक बड़ा कारण लाभुकों का बैंक में पूर्व से डिफॉल्टर होना है.
गिरीश सिन्हा, तकनीकी पदाधिकारी, गव्य विभाग सुपौल
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