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बारी जाति की मिट रही है पहचान

बारी जाति की मिट रही है पहचान पत्तल का प्रचलन खत्म होने से आया संकटपत्तल की जगह प्लास्टिक व थर्मोकोल ने ले लीशादी, तिलक, उपनयन संस्कार, गृह प्रवेश सहित अन्य समारोह के भोज में बारी जाति बनाती थी पत्तलआधुनिकता के इस दौर में समाज में हाशिये पर चली गयी बड़हरिया . शादी-विवाह के मौसम में […]

बारी जाति की मिट रही है पहचान पत्तल का प्रचलन खत्म होने से आया संकटपत्तल की जगह प्लास्टिक व थर्मोकोल ने ले लीशादी, तिलक, उपनयन संस्कार, गृह प्रवेश सहित अन्य समारोह के भोज में बारी जाति बनाती थी पत्तलआधुनिकता के इस दौर में समाज में हाशिये पर चली गयी बड़हरिया . शादी-विवाह के मौसम में जिन जातियों की बगैर एक डेग भी चलना दूभर होता था, वे जातियां आधुनिकता के इस दौर में समाज में हाशिये पर चली गयी हैं. इन्ही जातियों में शामिल बारी जाति आज शादी-विवाह का हिस्सा बनने से वंचित हो गयी है. विदित हो कि शादी, तिलक, उपनयन संस्कार, गृह प्रवेश सहित अन्य समारोह के अवसर पर आयोजित भोज में बारी जाति अहम भूमिका निभाती थी. बारी जाति के लोग ही पत्तल बनाने का कार्य करते थे. इसलिए मांगलिक उत्सव की तिथि तय होते ही आयोजक बारी जाति के घर पहुंच जाते थे. लेकिन आज पत्तल की जगह प्लास्टिक व थर्मोकोल ने ले ली है. नतीजतन शादी या अन्य मांगलिक अवसर पर लोग बारी जाति के लोगों के घर नहीं पहुंच कर सीधे बाजार का रुख करने लगे हैं, जहां हर प्रकार की पत्तल मौजूद हैं. इससे समाज की आवश्यकता के रूप में जाने जानी वाली बारी जाति सामाजिक परिधि से बाहर हो चुकी है. प्रखंड के हरदियां, नवलपुर, भलुई सहित अन्य गांवों में बारी जाति के लोगों की अच्छी-खासी आबादी है. पैतृक पेशा छिनने के साथ ही इस जाति के युवाओं ने वैकल्पिक पेशा तलाश लिया. नवलपुर के कपिल बारी बताते हैं कि जब गांव में पैतृक पेशा से निर्भरता हटने के साथ ही आत्मनिर्भर हो गये. हमारे सभी परिजनों का अपना-अपना व्यवसाय है व हम खुशहाल हैं. वहीं हरदियां गांव में बारी जाति के छह घर हैं. भरत बारी कहते हैं कि हमारे पैतृक पेशे छिनने का सबसे बड़ा कारण गांव के बगीचों का कटना है. वे बताते हैं कि हमारे बचपन के दिनों में हरेक गांव में बड़े-बड़े बगीचे होते थे, जहां सहजता से पेड़ों के पत्ते मिल जाया करते थे. लेकिन आज गांव- देहात में बगीचे ही नहीं रहे. वहीं सुरेश बारी कहते हैं कि बगीचों की अंधाधुंध कटाई के पास उनके पास दूसरा विकल्प नहीं है. भलुई की बारी जाति के युवा शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं. ऐसे तो कुम्हार जाति के लोगों के पुश्तैनी पेशे पर संकट मंडराने लगा है. लेकिन पूजा-पाठ की सामग्री के कारण इनकी अहमियत अभी समाज में बनी हुई है.

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