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तब गन्ने के पैसे से होता था बिटिया का हाथ पीला

तब गन्ने के पैसे से होता था बिटिया का हाथ पीला चुनावी चौपाल मामला बंद पड़ी पचरुखी शुगर मिल का फोटो: 05 चौपाल में शामिल लोग 06 बंद पड़ी शुगर फैक्टरी पचरुखी. उस समय की बात ही कुछ और थी. लोग अपनी बेटी की शादी तय कर निश्चिंत हो जाते थे. उन्हें इस बात का […]

तब गन्ने के पैसे से होता था बिटिया का हाथ पीला चुनावी चौपाल मामला बंद पड़ी पचरुखी शुगर मिल का फोटो: 05 चौपाल में शामिल लोग 06 बंद पड़ी शुगर फैक्टरी पचरुखी. उस समय की बात ही कुछ और थी. लोग अपनी बेटी की शादी तय कर निश्चिंत हो जाते थे. उन्हें इस बात का पूरा विश्वास रहता था कि समय पर गन्ने का पैसा मिल जायेगा और सब काम सही समय पर हो जायेगा. उन्हें इस बात का मलाल है कि 30 वर्ष बीत जाने के बाद भी शुगर मिल पचरुखी की सुध लेने वाला कोई नहीं है. बुधवार को चौपाल में शामिल अम्मा लाल प्रसाद का मन बात कहते-कहते भर जाता है. उस समय के स्वर्णिम समय का मलाल उन सभी लोगों को है, जिनकी निर्भरता गन्ने की खेती पर सबसे ज्यादा रहती थी. आसन्न विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है स्थानीय मुद्दा अपनी-अपनी जगह बनाने में सफल हो रहा है. जनप्रतिनिधियों के समक्ष लोग ससमय मुद्दा उठाते रहे हैं लेकिन आश्वासन के अलावा कुछ नहीं मिला. चुनाव के समय कितने ही उम्मीदवार शुगर मिल का मुद्दा उठा कर चुनाव जीतने में सफल तो रहे, लेकिन इस मामले में चुप्पी साधे रहे. चौपाल में शामिल रामा जी प्रसाद ने कहा कि 118 एकड़ में फैली पचरुखी शुगर मिल की स्थापना 1955 में जब हुई, तो लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं था. तब शुगर फैक्टरी में 25 सौ से ज्यादा लोग काम करते थे. इसके अलावा महाराजगंज, पचरुखी, हसनपुरा, बड़हरिया, बसंतपुर, दरौंदा व हुसैनगंज के हजारों किसान खुशी का जीवन-यापन करते थे. हजारों एकड़ में गन्ने की खेती होती थी और प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से हजारों लोग इससे जुड़े थे. गन्ने के पैसे से जहां हजारों परिवार का भरण- पोषण होता था, वहीं पैसे बचा कर लोग विकास का काम भी करते थे. चौपाल में शामिल राम देव प्रसाद का कहना था कि चाय पीने के लिए दुकान पर लोगों की भीड़ रहती थी. चार महीने में ही इतना पैसा कमा लेते थे कि ऑफ सीजन का काम आसानी से चल जाता था. राम पुकार यादव का कहना था कि तेजी से बढ़ रही बेरोजगारी के बीच लोगों को अब बंद पड़े छोटे-बड़े उद्योग धंधों की अहमियत समझ में आ रही है. मोटी कमाई के सूत्रधार गन्ने की खेती अब सपने जैसे लगते है. उच्च डिग्रीधारी बेरोजगार लोगों को भी उस दिन का इंतजार है जब फैक्टरी चालू होती. आज हालत यह है कि फैक्टरी की एक-एक ईट अपनी बदहाली पर आंसू बहा रही है. हर विधान सभा के बाद लोेगों की उम्मीद जगती है. आस भरी निगाहों से लोग फैक्टरी की चिमनी से धुआं निकलने का इंतजार कर रहे हैं, लेकिन तीन दशक बीत जाने के बाद भी उम्मीद अब सीने पर किसी बोझ से कम नहीं लगती है. चौपाल में शामिल लोगों का कहना था कि अब तो हर पार्टियां ही विकास की बात कर रही हैं, लेकिन देखने वाली बात यह है कि क्या जात- पांत की धुरी पर नाचने वाली बिहार की राजनीति को कब विकास के पर लगेेंगे.

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