समस्तीपुरः जीवन में रंग उल्लास के प्रतीक हैं. होली में इसका समावेश इसे और परवाज देता है. लेकिन इस पर गहराई से नजर डालें तो होली ने अपने गर्भ में प्राकृतिक, सामाजिक सरोकारों के साथ ज्ञान-विज्ञान को भी समेट रखा है. संभवत: प्राचीन भारतीय चिंतकों ने इन सरोकारों की परिकल्पना को मूर्त रुप देने के उद्देश्य से ही इसे आध्यात्मिक डोर में इस कदर पिरोया कि यह लोगों की आस्था में आज भी रची-बसी है. धार्मिक भाषा में पर्व का तात्पर्य ‘पोर’ यानी खंड होता है.
समय-समय पर यह ऋतु परिवर्तन का संकेत देती है. शिशिर ऋ तु के दौरान प्रकृति के साथ जीवों में आयी जड़ता को छोड़ कर सूर्य की तीखी किरण से नयी ऊर्जा ग्रहण कर विकास के लिए उद्यत होने की प्रेरणा देती है.
विकास के लिए एकता जरूरी है. सम्मत इसी चिंतन को मूर्त रुप देने की परिकल्पना होगी. आयुर्वेद के मुताबिक यह मौसम सर्दी की समाप्ति और गर्मी के आगाज का होता है. भस्म लेप शरीर को दोनों से संतुलित रखता है. इसी तरह रंगों का उपयोग सूर्य की किरणों को शरीर पर सही मात्र में परावर्तित करने में सहयोगी होता है. सप्तडोर में सात रंगों वाले सूत का प्रयोग संभवत: इसी उद्देश्य से किया गया.
ई. योगेंद्र पोद्दार कहते हैं कि ऋषियों ने समाज व जीवन के लिए उपयोगी मंत्रों को पर्व के माध्यम से धार्मिक सूत्र में बांधा. ताकि सामाजिक एकता के माध्यम से राष्ट्रीय एकता बनी रही. यही वजह है कि विकास की धुरी नारियां भी आदि काल में ही इस पर्व में सक्रिय होकर पर्व के उद्देश्यों को सफल बनाने में अपनी भूमिका निभाती आ रही है. बीआरबी कॉलेज के मैथिली विभागाध्यक्ष डॉ. नरेश कुमार विकल का कहना है कि होली के मूल उद्देश्यों को कायम रख कर सुद्ढ़ व समरस राष्ट्र निर्माण का संकल्प लें यही प्रेरणा देती है होली.
कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर शिवाकांत पाठक कहते हैं कि सम्मत के नाम पर हरे पेड़ों को काट कर जलाना और होली में रंगों की बौछार करने की परंपरा ने बदलते समय में पर्व के मूल उद्देश्यों से भटकाने लगा है. जरूरत है कि समाज में आने वाली इस जड़ता को दूर कर व्यक्ति को एकमत कर समरस समाज निर्माण करने के लिए उद्यत होना चाहिए, जो विकास की पहली सीढ़ी भी है. इसके लिए व्यक्ति खुद से परिष्कृत होकर समाज और सुदृढ़ राष्ट्र का निर्माण करने का जिसकी वर्तमान समय में महती आवश्यकता है.