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शब्दों के राजकुमार सतीनाथ भादुड़ी को भूल रहा पूर्णिया

पूर्णिया : गुलाम भारत के मौजूदा सच को कागज पर उतार उसे साहित्य की थाती बनाने वाले ‘जागरी’जैसी कृति के यशस्वी रचनाकार और बांग्ला साहित्य के प्रेमचंद कहे जाने वाले रविन्द्र पुरस्कार विजेता सतीनाथ भादुड़ी आज हमारे बीच नहीं हैं पर पूर्णिया का बंगाली समाज उनकी स्मृतियों को अपने जेहन में समेटे हुए है. वैसे […]

पूर्णिया : गुलाम भारत के मौजूदा सच को कागज पर उतार उसे साहित्य की थाती बनाने वाले ‘जागरी’जैसी कृति के यशस्वी रचनाकार और बांग्ला साहित्य के प्रेमचंद कहे जाने वाले रविन्द्र पुरस्कार विजेता सतीनाथ भादुड़ी आज हमारे बीच नहीं हैं पर पूर्णिया का बंगाली समाज उनकी स्मृतियों को अपने जेहन में समेटे हुए है.
वैसे यह विडंबना है कि बंगाली समाज से इतर शहर के लोग खास तौर पर नयी पीढ़ी के लोग सतीनाथ भादुड़ी के नाम से आज भी अनभिज्ञ हैं, जबकि इसी शहर में उनका जीवन बीता, शब्द पके और अक्षरों ने पहचान बनायी. पूरे समाज को इस बात का मलाल है कि जिस शख्सियत ने पूर्णिया को पहचान दी उसे पूर्णिया ने कुछ नहीं दिया.
सतीनाथ शहर के जिस मुहल्ले में रहते थे उसे ‘हर्ट ऑफ द टाउन’ कहा जाता है. वह जगह है दुर्गाबाड़ी और गांगुली पाड़ा जहां बंगाली समाज का बड़ा बसेरा है. उनके पिता भादुड़ी शहर के जाने-माने वकील थे जो कोलकाता के कृष्णनगर से आकर यहां बसे थे. यहीं 27 सितंबर 1906 को सतीनाथ जी का जन्म हुआ था. अपनी पढ़ाई पूरी कर उन्होंने 1932 में वकालत शुरू कर दी थी पर यह रास नहीं आयी. उस समय अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन चल रहा था.
इसमें वे आगे आये और 1942 में जेल भी गये. जेल से निकलने के बाद उनके दिल में धधकती ज्वाला ‘जागरी’ के रूप में पन्नों पर उतर आयी. यह उनकी पहली कृति थी जो 1945 में प्रकाशित हुई. इसी पर उन्हें रविन्द्र पुरस्कार से नवाजा गया. इसके बाद तो एक पर एक कई उपन्यास आये जिसकी प्रसिद्धि ने बांग्ला साहित्य में पूर्णिया को राष्ट्रीय फलक पर खड़ा कर दिया.
हालांकि बंगाली समाज ने शब्दों के इस राजकुमार को मानस पटल पर सजा कर रखा है पर नई पीढ़ी को इस बारे में कोई पता नहीं. प्रबुद्ध लोगों का कहना है कि सतीनाथ भादुड़ी का यहां न तो कोई स्मारक बना है और न ही इसके लिए ठोस पहल हो सकी है जिसे दिखा कर नई पीढ़ी को उनके बारे में बताया जा सके. लोगों का कहना है कि पूर्णिया में विश्वविद्यालय खुल गया पर भादुड़ी जी की स्मृतियों को समेटने और सहेजने की कोशिश यहां भी नहीं हो सकी है.
भादुड़ी जी के नाम पर महज एक गली
बांग्ला साहित्य में राष्ट्रीय फलक पर पहचान बनाने वाले साहित्यकार सतीनाथ भादुड़ी के नाम पर महज एक गली का नाम रखा गया है जबकि यहां उनकी स्मृति में इससे इतर किए जाने की मांग उठती रही है.
शहर के भट्ठा बाजार स्थित दुर्गाबाड़ी के समीप गांगुली पाड़ा जाने वाली गली में कुछ साल पूर्व सतीनाथ भादुड़ी लेन लिखा शिलापट्ट लगा दिया गया था. वही आज भी लगा हुआ है पर उस लेन में जाने वाली सड़क न केवल जर्जर है बल्कि वहां जल निकासी की भी व्यवस्था नहीं है.
कहते हैं बंगाली समाज के प्रबुद्धजन
सतीनाथ भादुड़ी बांग्ला के एक महान साहित्यकार थे. इसी पूर्णिया में उन्होंने साहित्य की साधना की. जागरी के बाद 1949 में दूसरा उपन्यास ढोढ़ाई चरित मानस का प्रकाशन हुआ. उनकी इन दो कृतियों ने ही बांग्ला साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर के रुप में पहचान बना दी. इसके बाद भी उनकी कई कृतियां आयीं. देश की जिन स्थितियों पर उन्होंने पुस्तकें लिखी कमोबेश आज भी वही स्थिति है जिससे भादुड़ी जी और उनकी रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं. उनकी स्मृतियां आज भी जेहन में हैं और हम सब उन्हें हमेशा याद करते हैं.
अजय सान्याल, बांग्ला साहित्यकार
सतीनाथ भादुड़ी बांग्ला साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर रहे हैं. उनका जन्म इसी पूर्णिया में हुआ और यहीं रह कर उन्होंने बांग्ला साहित्य को समृद्ध किया और साहित्य जगत में पूर्णिया की पहचान बनायी.
हमलोग तो उन्हें हमेशा याद करते हैं पर यह दुखद है कि आज की नई पीढ़ी को उनके बारे में बहुत जानकारी नहीं है. विश्वविद्यालय स्तर पर भी इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो सकी है. चूंकि भादुड़ी जी पूरे पूर्णिया के धरोहर थे इसलिए उनकी स्मृति को जीवंत रखने के लिए सरकार और प्रशासन की ओर से भी सकारात्मक पहल जरूरी है.
अचिन्तो बोस, बिहार बंगाली समाज
बांग्ला साहित्य के शिरोमणि रहे साहित्यकार सतीनाथ भादुड़ी जैसी शख्सियत की स्मृति में पूर्णिया में कुछ नहीं होना दुखद है. बांग्ला साहित्य के प्रेमचंद के रुप में जिन्होंने पूर्णिया को एक अलग पहचान दी उनके लिए कोई उद्यान या स्मारक तो बनना ही चाहिए था.
यह सच है कि आज की युवा पीढ़ी भादुड़ी जी के नाम से अपरिचित है पर इस दिशा में शाम की पाठशाला से जुड़े युवाओं ने पहल शुरू कर दी है. इसके लिए जगह-जगह बैठक कर युवाओं को उनके बारे में बताया जा रहा है और इसमें आज के बांग्ला साहित्यकारों की मदद ली जा रही है.
शशिरंजन, संचालक, शाम की पाठशाला
सतीनाथ भादुड़ी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है पर इतना जरुर है कि पूर्णिया को एक अलग पहचान देने वाले इस साहित्य मनीषि की पहचान जीवंत रखने के लिए जितना कुछ किया जाना चाहिए था वह नहीं हो सका है. भादुड़ी जी का नाम पूरे पूर्णियावासियों के लिए गर्व और गौरव का विषय है.
वे हम सबके दिलों में हैं और हमेशा रहेंगे. भादुड़ी जी का उपन्यास जागरी और ढोराइ चरित मानस काफी चर्चित रहा है. बांग्ला साहित्य में अभिरुचि रखने वाली लोग आज भी उनकी किताबें ढूंढ़ कर पढ़ते हैं जिसमें जीवन की जीवंतता की झलक मिलती है.
संजय बनर्जी, बंगाली समाज

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