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संसद में हंगामा भाजपा के लिए ठीक तो कांग्रेस के लिए?
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक रूद्र की राजग सरकार इन दिनों प्रतिपक्ष से खफा है. क्योंकि प्रतिपक्ष संसद नहीं चलने दे रहा है. गुरुवार को तो सपा के एक सदस्य ने स्पीकर पर कागज ही फेंक दिया. पर, इसमें खफा होने की कौन सी बात है! यह कोई नयी बात तो है नहीं. इस देश में […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
रूद्र की राजग सरकार इन दिनों प्रतिपक्ष से खफा है. क्योंकि प्रतिपक्ष संसद नहीं चलने दे रहा है. गुरुवार को तो सपा के एक सदस्य ने स्पीकर पर कागज ही फेंक दिया. पर, इसमें खफा होने की कौन सी बात है! यह कोई नयी बात तो है नहीं. इस देश में वर्षों से यह सब होता रहा है.
मनमोहन सरकार जब प्रतिपक्ष पर संसद को ठप करने का आरोप लगाती थी तो भाजपा की उस पर क्या प्रतिक्रिया होती थी? भाजपा नेता अरुण जेटली ने सितंबर, 2012 में कहा था कि ‘संसद को ठप करना भी लोकतंत्र का ही हिस्सा है.’ भाजपा नेता ने तब कांग्रेस नेताओं पर यह आरोप भी लगा दिया था कि उन लोगों ने भी तो उस समय तहलका मुद्दे पर संसद को नहीं चलने दिया था जब अटल जी की सरकार थी. यानी एक दल जब सत्ता में होता है तो वह किसी खास मुद्दे पर एक तरह का तर्क देता है. पर वही दल जब प्रतिपक्ष में जाता है तो उसी मुद्दे पर विपरीत तर्क देने लगता है. यह बात लगभग सभी दलों पर लागू होती है. नेताओं की साख के घटते जाने का यह भी एक कारण है.
हंगामा करने वालों को सजा क्यों नहीं?
संसद और विधान सभाओं में आये दिन अशोभनीय दृश्य उपस्थित करने वालों को कोई सजा क्यों नहीं होती? यदि औरों को सबक देने लायक सजा होने लगे तो हंगामा करने वाले कुछ करने से पहले सौ बार सोचेंगे. पर हंगामा करने वालों को सजा देने के लिए कोई भी दल आज तैयार नहीं है. यहां तक कि मार्शल का काम भी घट गया है. क्योंकि समय-समय पर सभी दलों को कमोवेश हंगामा करना ही है. तर्कशक्ति घट जो गयी है. अधिकतर नेताओं को इसी तरह काम चलाना है और प्रचार पाना है. इस पर आम सहमति है.
स्कूली बच्चों को भी नापसंद है हंगामा
कुछ साल पहले की बात है. स्कूली बच्चे सदन की बैठक देखकर बाहर निकले थे. मीडिया ने पूछा कि कैसा लगा? एक बच्चे ने कहा कि इससे अधिक अनुशासित तो हमारा क्लास रूम होता है. यानी बचपन में ही लोकतंत्र का यह चित्र बच्चों के दिलो-दिमाग पर खुद जाता है.
फिर भला कौन छात्र बड़ा होकर राजनीति में जाना चाहेगा? हालांकि कुछ समझदार नेता कभी-कभी इस बात का रोना रोते हैं कि नयी पीढ़ी का राजनीति के प्रति झुकाव नहीं है. कैसे होगा झुकाव? कई साल पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा में सदस्यों ने आपस में इतनी मारपीट कर ली थी कि कई सदस्य घायल हो गये थे. खून बहे. अशोभनीय घटनाएं बिहार विधानसभा में भी हो चुकी हैं. बिहार विधान मंडल की शुक्रवार से बैठक शुरू हो रही है. देखना है कि भाजपा सदन को चलाने में सरकार का कितना सहयोग करती है. संसद को शांतिपूर्वक चलाने के लिए भाजपा प्रतिपक्ष से सहयोग मांग रही है. बिहार के लिए भाजपा का क्या विचार है?
कुछ अशोभनीय घटनाएं
1998 में एक सांसद ने लोकसभा स्पीकर बालयोगी के हाथ से महिला विधेयक की कॉपी छीन ली थी. 2011 में एक सदस्य ने राज्यसभा में लोकपाल विधेयक की कॉपी मंत्री के हाथ से छीनकर फाड़ दी. 1997 में बिहार के दो बाहुबली सांसदों ने लोकसभा में आपस में मारपीट कर ली. सदन शर्मसार हो गया. तब केंद्र में आइके गुजराल प्रधानमंत्री और अटल बिहारी वाजपेयी प्रतिपक्ष के नेता थे. संसद के दोनों सदनों ने अपराध और भ्रष्टाचार पर लंबी चर्चा की.
चर्चा 26 अगस्त, 1997 को शुरू हुई और एक सितंबर को समाप्त हुई. कहा गया कि सांसदों ने आत्मनिरीक्षण के तहत यह चर्चा की. क्या आत्मनिरीक्षण हुआ? कितना? सर्वसम्मत से प्रस्ताव भी पारित किया गया. संकल्प किया गया कि राजनीति का अपराधीकरण रोका जायेगा और चुनाव सुधार लागू होंगे. क्या 1997 से अबतक चुनाव में पैसे और जाति का प्रभाव बढ़ा है या घटा है?
राजनीति के अपराधीकरण का क्या हाल है? संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र के जिस मंदिर की कल्पना की थी, वह पूरी हो रही है? यह सब कुछ नहीं हो रहा है. क्योंकि अधिकतर दल और नेता जैसे चल रहा है, वैसे ही चलने देने के पक्ष में हैं. कुछ कहते हैं कि जनता को ही सुधरना होगा. क्योंकि वह जाति व पैसे पर वोट देती है. पर आप किस मर्ज की दवा हैं? लोकतंत्र में यदि गरिमा आयेगी तो शालीन युवकों तथा वैसे अन्य लोगों का आकर्षण
बढ़ेगा. लोकतंत्र स्वस्थ होगा. क्या कभी ऐसा हो पाएगा? लगता तो नहीं है. अभी तो सदन में हंगामा करके आज का प्रतिपक्ष उसका राजनीतिक लाभ उठाना चाहता है. और आज के सत्ताधारी लोग कल प्रतिपक्ष में जाकर उसी भूमिका में आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं. 1969 में बिहार विधानसभा में एक सोशलिस्ट सदस्य ने स्पीकर पर अपना मुड़ेठा फेंक दिया. स्पीकर रामनारायण मंडल ने गुस्से में उलाहनापूर्ण सवाल किया, ‘माननीय सदस्य गमछा फेंक रहे हैं? जिद्दी सदस्य ने पलट कर जवाब दिया, गमछा नहीं तो क्या जूता फेंकूं? आप हमारी तरफ देखते ही नहीं हैं. ‘हालांकि वह सदस्य कोई बाहुबली नहीं थे. संभवत: वह शुरुआती दौर था. इसलिए वे जूता नहीं फेंकना चाहते थे. पर अब आगे क्या होने वाला है? कुछ भी हो, नेताओं का क्या जाता है? जो नुकसान होगा, वह लोकतंत्र का!
सुरक्षा के मामले में भी अजीब रवैया
अपने देश के अधिकतर नेतागण देश की सुरक्षा के मामलों पर भी राजनीति करने से बाज नहीं आते हैं. राज्य सभा में प्रतिपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने गत 18 नवंबर को सदन में कंधार विमान अपहरण की बात उठा दी. उन्होंने भाजपा पर आरोप लगाया कि उसकी सरकार ने 1999 में बंधकों के बदले आतंकियों को रिहा कर दिया था. क्या ऐसे किसी काम के लिए भी आजाद को भाजपा की आलोचना करनी चाहिए थी जिस काम को करने में खुद उनकी पार्टी की तब सहमति थी? 28 दिसंबर 1999 का एक दैनिक अखबार मेरे सामने है.
उसके पहले पेज की एक खबर का शीर्षक है- ‘विपक्ष सरकार के साथ.’ उस खबर के अनुसार ‘देश के प्रमुख राजनीतिक दलों ने इंडियन एयरलाइंस के अपहृत विमान के यात्रियों और चालक दल की सकुशल रिहाई के लिए आवश्यक कदम उठाने का सरकार को सुझाव दिया है. इन दलों के नेताओं ने कहा कि ‘संकट की इस घड़ी में वे सभी एक हैं.
मगर पल-पल बदलते घटनाक्रम के मद्दे नजर जरूरी कदम उठाने का फैसला सरकार ही ले सकती है.’ यह राय उस सर्वदलीय बैठक में व्यक्त की गयी थी जिसमें सत्ता और विपक्ष के कई नेताओं के अलावा सोनिया गांधी, हर किशन सिंह सुरजित और फारूक अब्दुला भी शामिल थे. इस आम सहमति के बाद अटल सरकार ने विशेष परिस्थिति में 152 बंधक यात्रियों के बदले कुख्यात आतंकी मसूद अजहर और उसके साथी को छोड़ा. यानी पहले सरकार से कोई काम करने के लिए कहो और जब सरकार कर दे तो उसी काम के लिए बाद में सरकार की आलोचना भी करो ताकि उसका राजनीतिक लाभ उठाया जा सके. आज की राजनीति का एक चेहरा यह भी है.
और अंत में
खबर है कि गंगा नदी की सफाई के लिए चालू वित्तीय वर्ष में सरकार 1627 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है. क्या आपको गंगा पहले से साफ लग रही है? किसी ने इस सवाल का जवाब अब तक सकारात्मक नहीं दिया है. दरअसल गंगा नदी को अविरल बनाये बिना वह निर्मल बन ही सकती. सवाल है कि अविरल बनाने के लिए जो काम करने हैं, वे काम कौन सरकार करना चाहती है?
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