पटना: हल्की-हल्की गुनगुनी सर्दी में एक सुरूर था सुफियाना अंदाज का. एक मदहोशी थी गायकी की. मंच पर सूफी संगीत के सितारे, खुले आसमान के नीचे फनकार की आवाज सुनने दिल थामे बैठे श्रोता.
सूफी गायन की आवाज उठी तो श्रोताओं के खामोश चेहरे खिल उठे और शुरू हुई संगीत की सुरमई शाम. ‘मेरी रफ्तार पर सूरज की किरण नाज करे ऐसी परवाज दे मालिक की गगन नाज करे..’ प्रार्थना से सूफी संगीत का आगाज हुआ. अवसर था शिक्षा दिवस पर गांधी मैदान में मुख्य मंच पर आयोजित सांस्कृतिक संध्या की. रामपुर सहस्वान घराने के उस्ताद बजाहत हुसैन खान बदायनी अपनी टीम के साथ पहुंचे थे. सुफियाना कलाम की शुरुआत बजाहत हुसैन खान ने चंद शेर से की. शेर के चंद लफ्ज फरमाते हुए कहा ‘ मैं किसी हाल में ऐसा नहीं होने दूंगा और बीज नफरत के किसी दिल में न बोने दूंगा, तुम जो चाहो तो मेरी जान के टुकड़े कर दो मैं हिंदुस्तान के टुकड़े नहीं होने दूंगा. ‘कहीं मंदिर बना बैठे, कहीं मसजिद बना बैठे, हमें तो एक घर बनाना था मगर क्या बना बैठे?’
महका महका सोंधी माटी का बिहार है: सांस्कृतिक संध्या की शुरुआत ‘दिशा दिशा में लोक रंग का तार- तार है महका-महका सोंधी माटी का बिहार है.. की गूंज से हुई. इसके माध्यम से ‘बिहार की गौरवशाली इतिहास को दिखाया गया. ’ मनेर शरीफ बिहारशरीफ, फुलवारीशरीफ का विकास और फिर नालंदा, विक्रमशीला आदि का विकास. सूफी संत के बाद विद्यापति का आना और शेरशाह सूरी द्वारा पूरे भारत पर शासन करना और गुरू गोविंद सिंह द्वारा खालसा पंथ की स्थापना करना अंग्रेजों के शासन काल में बिहार के साथ होनेवाले शोषण को दिखाया गया. सांस्कृतिक संध्या में आधे से अधिक कुर्सियां खाली रह गयीं. आगे की पंक्ति छोड़ दर्शक दीर्घा में एक भी दर्शक नहीं थे.