बिहार-निर्माता को भूला बिहारसच्चिदानंद सिन्हा के जन्म दिन 10 नवंबर पर खास सच्चिदानंद सिन्हा के जन्म दिन 10 नवंबर पर खास आरके सिन्हा, सांसद (राज्यसभा) जिन महापुरुषों को ये देश भूलता जा रहा है और उनके देश-समाज के लिए किए उल्लेखनीय कार्यों को नजरअंदाज कर रहा है, उनमें डाॅ सच्चिदानन्द सिन्हा भी शामिल हैं, उनकी अगुआई में ही बंगाल से बिहार को अलग करने की मांग को लेकर चला था आंदोलन. सच्चिदानंद का व्यक्तित्व बहुआयामी था. वे विधिवेत्ता, राजनेता, शिक्षाविद और प्रखर लेखक और पत्रकार भी थे. सच्चिदानंद सिन्हा का जन्म भोजपुर जिले के मुरार गांव के एक कुलीन परिवार में हुआ था. उन्होंने लंदन में कानून की शिक्षा प्राप्त की और बैरिस्टर बने. मात्र 21 वर्ष की उम्र में बैरिस्टर बन कर स्वदेश लौटने पर 1891-92 में उन्होंने अलग बिहार राज्य की मांग की और जोरदार आंदोलन चलाया. आप समझ सकते हैं कि वे कितने मेधावी रहे होंगे कि इतनी कम उम्र के बावजूद उन्होंने एक बड़े आंदोलन का नेतृत्व किया. लगभग दो दशकों के आंदोलन के बाद 1912 में बंगाल से अलग हुआ बिहार. और, इसके बाद ही बिहार का तेजी से विकास शुरू हुआ, जो आगे चल कर 1960 के दशक में अवरुद्ध हुआ, विभिन्न कारणों के चलते. डाॅ सिन्हा मानते थे कि बंगाल का अंग रहने से बिहार का चौतरफा विकास नहीं होगा. वे गांव-गांव घूमे, अपनी मांग के समर्थन में. सैकड़ों लेख लिखे. अंतत: ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा. वे कांग्रेस में भी रहे और कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव भी बने. संविधान के निर्माण के लिए जब 1946 में संविधान सभा का गठन किया गया, तो सच्चिदानंद सिन्हा को इसका अध्यक्ष बनाया गया. बाद में उनके अस्वस्थ रहने के कारण डाॅ राजेन्द्र प्रसाद इसके अध्यक्ष बने. संविधान सभा की पहली बैठक नौ दिसंबर, 1946 को संसद भवन के सेंट्रल हॉल में सच्चिदाननंद सिन्हा की अध्यक्षता में हुई थी. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिये संविधान निर्माण कोई आसान काम नहीं था, तभी इसके निर्माण में 2 साल 11 महीने और 17 दिन लगे. इस दौरान 165 दिनों के कुल 11 सत्र बुलाये गये. संविधान को अंतिम रूप देते वक्त संविधान सभा की प्रारूप समिति के संयोजक बाबा साहेब अांबेडकर भी उनसे लगातार परामर्श करते रहते थे. डाॅ सच्चिदानंद सिन्हा को आधुनिक बिहार का पितामह कहा जा सकता है. वे बिहार और ओड़िशा विधान परिषदों के पहले अध्यक्ष भी रहे. अफसोस कि इतनी बड़ी शख्सियत को लेकर अब अधकचरा ही ज्ञान बिहार के नेताओं को है. नीतीश कुमार ने ‘‘बिहार-दिवस’’ मनाना शुरू किया, तब उन्होंने भी ‘‘बिहार-निर्माता’’ को कहीं भी प्रमुखता नहीं दी. डाॅ सिन्हा और गांधी जी लंदन के लॉ कालेज में सहपाठी थे, सन 1890 में. अपने बिहार दौरों के दौरान सच्चिदानंद सिन्हा कई बार गांधी जी के साथ ही रहे. बिहार को समझने में बापू को उनसे बहुत मदद मिली थी. कुछ साल पहले सच्चिदानंद बाबू के जन्मदिन को बिहार दिवस के रूप में मनाने की घोषणा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने की थी. हालांकि उस पर वे कायदे से अमल करना तक भूल गये यानी आप अदाजा लगा सकते हैं कि बिहार किस तरह से अपने ‘‘निर्माता’’ को ही भूल गया. लंदन से शिक्षा ग्रहण करने के बाद स्वदेश आने पर वे कलकता हाइकोर्ट में वकालत करने लगे. उनके ज्ञान और तर्कशक्ति की देखते-देखते धूम गयी. सब उनके ज्ञान का लोहा मानने लगे. उनसे सलाह-मशविरा के लिए मोतीलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना, पीआर दास और सीआर दास जैसे मशहूर वकील भी पटना पहुंचते थे. सच्चिदानंद सिन्हा जाति पर यकीन नहीं करते थे. उन्होंने लाहौर की एक कन्या राधिका से विवाह किया था. उस दौर में अंतरजातीय विवाह करना कोई मामूली बात नहीं थी. इसके चलते उनका अपने कायस्थ समाज में विरोध हुआ था. इससे बेपरवाह डाॅ सिन्हा ने अपनी पत्नी और अपनी संस्कृति को कभी नहीं छोड़ा. उन्होंने पत्नी के नाम पर राधिका सिन्हा इंस्टीट्यूट और सिन्हा लाइब्रेरी की 1924 में पटना में स्थापना की. यह बिहार की सबसे समृद्ध लाइब्रेरी मानी जाती है. इसको ही बिहार की ‘‘सेंट्रल-लाइब्रेरी’’ की मान्यता दी गयी है. डाॅ सिन्हा ने बिहार के अवाम के बौद्धिक और शैक्षणिक विकास के लिए इसकी स्थापना की थी. तब से यह लाइब्रेरी छात्रों, शोधार्थियों और पुस्तक प्रेमियों के बीच ज्ञान का प्रकाश फैला रही है. इसमें करीब दो लाख किताबें हैं. प्रतिदिन करीब 15 अखबार और हर महीने 27 पत्रिकाएं आती हैं. इसमें कभी जवाहर लाल नेहरू, डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे चर्चित नाम भी इस लाइब्रेरी में आया करते थे. लाइब्रेरी में दशकों पुराने अखबारों का विशाल संग्रह है. इसमें पढ़ कर सैकड़ों बिहारी युवक आइएएस, आइपीएस और केंद्रीय सेवाओं में चुने गये. उन्होंने ही पटना यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिए लंबी लड़ाई लड़ी. वे इसके 1936 से लेकर 1944 तक इसके वाइस चांसलर भी रहे. इस दौरान पटना यूनिवर्सिटी देश की सर्वश्रेष्ठ यूनिवर्सिटी मानी जाती थी. उन्होंने वकालत के दिनों के दौरान जो कुछ भी अर्जित किया, उसे आगे चलकर सामाजिक कार्यों के लिए दान दे दिया। पटना एयरपोर्ट, विधानसभा और विधान परिषद् उन्हीं की जमीन पर बना है. पटना में उनका जो आवास था, उसमें आज बिहार विद्यालय परीक्षा समिति का कार्यालय है. वे कलम के भी धनी थे. उन्होंने बिहार और देश के अपने कई नेताओं पर अलग से लेख लिखे. आज भी ‘‘सिन्हा लाइब्रेरी’’ में उनकी पढ़ी हुई हजारों ऐसी पुस्तकें हैं, जिन्हें डाॅ सिन्हा ने न केवल अध्ययन किया, बल्कि उसे ‘‘अंडरलाइन’’ और ‘‘साइडताइन’’ भी कर रखा है. उन्होंने ‘‘हिन्दुस्तान रिव्यू’’ नाम से एक अखबार भी निकाला. वे ‘‘इंडियन नेशन’’ अखबार के प्रथम प्रकाशक भी थे. डाॅ सिन्हा सामाजिक समरसता का सपना तब देख रहे थे, जब इस संबंध में कोई दूर-दूर नहीं सोच रहा था. वे बिहार में सभी जातियों के बीच में बेहतर संबंध स्थापित करने के पक्षधर थे. क्या इस तरह की गजब की शख्सियत को भुलाया जाना चाहिए?
बिहार-नर्मिाता को भूला बिहार
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