Advertisement
महाजनो येन गत: स पंथा..
निराला ‘ अमित शाह नरभक्षी है.’’ ‘‘ मोटा तोंदवाला अमित शाह इतना मोटा है कि लिफ्ट में फंस गया था.’’ ‘‘ लालू प्रसाद यादव के रिश्तेदार शैतान हैं क्या?’’ ‘‘ लालू यादव चाराखोर हैं.’’ ‘‘ नरेंद्र मोदी ब्रह्मपिशाच हैं, हम ओझा हैं, बोतल में बंद कर लेंगे.’’ ‘‘ जो हमारी ओर आंख उठाकर देखेगा, उसका […]
निराला
‘ अमित शाह नरभक्षी है.’’
‘‘ मोटा तोंदवाला अमित शाह इतना मोटा है कि लिफ्ट में फंस गया था.’’
‘‘ लालू प्रसाद यादव के रिश्तेदार शैतान हैं क्या?’’
‘‘ लालू यादव चाराखोर हैं.’’
‘‘ नरेंद्र मोदी ब्रह्मपिशाच हैं, हम ओझा हैं, बोतल में बंद कर लेंगे.’’
‘‘ जो हमारी ओर आंख उठाकर देखेगा, उसका छाती तोड़ देंगे.’’
‘‘ बकरी पत्नी की तरह है, गाय मां और बहन की तरह.’’
‘‘ नीतीशजी डाइवोर्सी दुलहा हैं.’’
रोज ही टकरा रहे हैं ऐसे बयान एक दूसरे से. आड़े-तीरछे काटते हुए. विकास, सांप्रदायिकता और सामाजिक न्याय-अन्याय आदि का कॉकटेल तैयार कर लड़ा जा रहा है यह चुनाव. उसके लिए मिथ-मुहावरे से बात शुरू हुई थी और अब निजी और सार्वजनिक तौर पर गाली-गलौज-भंडैती-अंधविश्वासी परंपरा तक आ पहुंची है.
नीतीश कुमार, वाम दलों के नेताओं के अलावा कुछ बहुत ही कम गिने-चुने नेताओं को छोड़ सकते हैं, जिनकी जबान नहीं फिसल रही है. बिहार के इस चुनाव में विश्लेषक और जानकार देश का भविष्य देख रहे हैं. इससे देश की राजनीतिक दिशा तय होने की बात बार-बार कही जा रही है. देश के राजनीतिक भविष्य का क्या होगा, यह कहना तो संभव नहीं लेकिन इस बार का चुनाव साफ संकेत दे रहा है कि बिहार भयावह भविष्य के रास्ते बढ़ रहा है. विधानसभा चुनाव में यह भाषा है, तो अगले साल बिहार में पंचायत और निकाय चुनाव भी होने हैं.
उस चुनाव को करवाने की जिम्मेवारी उन्ही की होगी, जो आज तमाम किस्म की विकृत भाषा का इस्तेमाल कर सत्ता पायेंगे. सत्ता किसे मिलेगी, यह भले न पता हो लेकिन यह तय है कि जो सत्ता पायेंगे, उन्हें अपना बोया हुआ ही काटते नहीं बनेगा. गंगोत्री से ही गंगा निकलती है. महाजनो येन गत: स पंथा..वाला वाक्य सातवीं कक्षा में ही पढ़ लिया जाता है. विधानसभा चुनाव जिस तरह से लड़ा जा रहा है, जाहिर-सी बात है, पंचायत चुनाव में उसकी परछाईं पड़ेगी और फिर सत्ता पा लेनेवाले को दुख नहीं होना चाहिए कि बिहार में यह क्या हो रहा है, लोग सरेआम एक दूसरे को गालियां क्यों दे रहे हैं.
भयावह भविष्य सिर्फ इस रास्ते नहीं दिख रहा. खतरनाक पहलू दूसरा है. बिहार में इस बार के चुनाव को एक दूसरी वजह से भी खास माना जा रहा है. आंकड़ों के जरिये रोजाना बताया जाता है कि यह जो अपना युवा देश है, उसे युवा बनाने में बिहार की युवा आबादी की बड़ी भूमिका है.
बिहार में 18 से 39 साल वालों की आबादी 3.79 करोड़ है. यानी कुल आबादी में करीब 61 प्रतिशत.अगर हर विधानसभा क्षेत्र के हिसाब से देखे तो अमूमन हर क्षेत्र में औसतन 84,651 मतदाता इस उम्र समूह से हैं. पिछली बार बिहार विधानसभा में सभी सीटों पर जीत-हार का अंतर औसतन 15 हजार का था. यानी साफ है कि यह आयु समूह इस बार जीत-हार तय करेगा. इनमें बड़ी आबादी उन युवाओं की है, जो पहली बार मतदान कर रहा है. इस युवा आबादी पर तमाम दलों की टकटकी है. वे युवा मतदाता किसी न किसी के साथ जा ही रहे हैं, जायेंगे ही लेकिन याद रखिए कि बिहार में कल को वे भी राजनीति में आयेंगे. वे इस बार सिर्फ पहली बार वोट ही नहीं दे रहे, बहुत करीब से चुनाव को देख भी रहे हैं. अब चुनाव सिर्फ बतकही की चौपाल वाला मामला नहीं रह गया है.
अब सोशल मीडिया के जरिये 24 घंटे वाला मामला है. युवा आबादी सिर्फ वोट ही नहीं दे रही, राजनीति सीख रही है. कल को राजनीति में आयेगी तो इसी फॉर्मूले के साथ. इसी राजनीति को चुनाव जीतने का परम सत्य मानेगी. आपस में एक दूसरे का चरित्रहनन करना और फिर किसी तरह से चुनाव जीतकर सत्ता पाना. आप कल्पना कीजिए सिर्फ कि अगले कितने साल तक बिहार किस रास्ते पर होगा.
इतना ही नहीं, बिहार के ये युवा इस बार के चुनाव से यह भी सीख रहे हैं कि सियासत में सिर्फ फायदेमंद सिंबॉल का इस्तेमाल होता है. महान परंपराएं और गौरवशाली इतिहास के पन्नों में चंद्रगुप्त और अशोक मौर्य को पलटा जाता है, क्योंकि उससे किसी जाति के जुड़ जाने की संभावना रहती है.
लेकिन शेरशाह की बात नहीं होती क्योंकि वह शेरशाह किसी बड़ी आबादी को अपनी ओर आकृष्ट करने में सफल होते नहीं दिखते. सुविधानुसार कर्पूरी ठाकुर का नाम लेना चाहिए लेकिन उसी जाति में जनमे और बिहार की सांस्कृतिक परंपरा को बदलकर बिहारीपन और बिहारी अस्मिता को पूरी दुनिया में स्थापित करने वाले भिखारी ठाकुर को कचरे के ढेर में छोड देना चाहिए. दिनकर को जाति की परिधि में बांधकर याद कर लेना चाहिए लेकिन यह नहीं बताना चाहिए कि दिनकर ने रश्मिरथी के जरिय एक शुद्र और त्याज्य कर्ण को नायक बनाकर अपने समय से कैसा मुठठभेड किया था. ऐसे किसी नायक या मॉडल पर चुनाव और राजनीति में बात नहीं करनी चाहिए, ये युवा सीख रहे हैं.
वे भी आज के नेताओं की तरह रट रहे हैं कि कैसे बार-बार अशोक, चंद्रगुप्त, नालंदा विवि, कर्पूरी ठाकुर, जेपी, लोहिया, राम, कृष्ण, यदुवंशी, द्वारिका वगैरह-वगैरह को ही ताश के पत्ते की तरह फेंटते रहता है. बाकि बहुत कुछ तो बोनस में सीख रहे हैं.
बस कल्पना कीजिए कि आनेवाला बिहार कैसा होनेवाला है. इस कल्पना को भी आम जनता को ही करना होगा. किसी दल के नेता नहीं करेंगे. बिहार के सभी बडे नेता लगभग रिटायरमेंट एज में हैं. वे उसके पहले अपनी भावी पीढ़ी के भविष्य को सुरक्षित करने की सियासत में उर्जा लगा रहे हैं. जाते-जाते किसी कीमत पर अपने परिजनों के लिए बिरासत गढ़ने में लगे हैं. बिहार की विरासत, परंपरा, अतीत और भविष्य से उनका ज्यादा वास्ता नहीं, सरोकार नहीं.
Prabhat Khabar App :
देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए
Advertisement