10 मार्च 1990. यह वह तारीख है जिस दिन बिहार में कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई थी. उसके बाद से उसकी हैसियत लगातार गिरती गयी. उसका न सिर्फ सामाजिक आधार सिमटता गया, बल्कि उसकी साख भी फीकी पड़ती गयी. राज्य में सबसे ज्यादा दिनों तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के साथ गंठबंधन कर विधानसभा में अपनी सीटें बढ़ाने को मजबूर हो गयी है. किसी दौर में विभिन्न छोटे-छोटे दल कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हुआ करते थे. कांग्रेस की भूमिका अब बदल
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लुढ़कते-लुढ़कते यहां पहुंच गयी कांग्रेस
10 मार्च 1990. यह वह तारीख है जिस दिन बिहार में कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई थी. उसके बाद से उसकी हैसियत लगातार गिरती गयी. उसका न सिर्फ सामाजिक आधार सिमटता गया, बल्कि उसकी साख भी फीकी पड़ती गयी. राज्य में सबसे ज्यादा दिनों तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के साथ गंठबंधन […]
गयी है.
किसी जमाने में कांग्रेस का सामाजिक-राजनैतिक दबदबा पूरकश था. पर सामाजिक ताने-बाने को वह अपने साथ जोड़ने में नाकाम रही और इसका असर यह हुआ कि धीरे-धीरे वह सिमटती चली गयी. आजादी के पहले बनी अंतरिम सरकार के वक्त कांग्रेस के हाथ में सत्ता की बागडोर थी. तब श्रीकृष्ण सिंह मुख्यमंत्री थे. 2 अप्रैल 1946 को अंतरिम सरकार का गठन हुआ था और पहला आम चुनाव1951-52 में.
आजादी के बाद चौथे आम चुनाव तक कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष की सशक्त आवाज अपनी जगह बना चुकी थी. तब विपक्ष में समाजवादी, वामपंथी और जनसंघ की ताकत थी. 1967 में कांग्रेस को सत्ता से बाहर होना पड़ा था. हालांकि उसके दो साल बाद ही हुए मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस की वापसी भी हो गयी थी. उसके बाद से सत्ता में उलटफेर चलता रहा. कभी कांग्रेस सत्ता से बाहर होती तो विपक्ष की पार्टियां सत्ता में पहुंच जाती. हालांकि ज्यादा वक्त तक सत्ता की बागडोर कांग्रेस के हाथों में रही.
सामाजिक आकांक्षाओं के साथ नहीं जुड़ पायी
राज्य में कांग्रेस की मौजूदा हालत पर बहुत सारी तकरीरें हो सकती हैं, पर बड़ा प्रश्न यह है कि 1967 से लेकर 1990 के बीच समाज में हो रहे बदलावों के साथ वह खुद को नहीं जोड़ पायी. सामाजिक स्तर पर राजनैतिक चेतना बढ़ी तो विभिन्न जाति समूहों की राजनीति में हिस्सेदारी की आकांक्षा तेज हुई. गौर करने वाली बात यह है कि कांग्रेस विभिन्न जातीय पहचान वाले नेताओं को अपने साथ तो जोड़े हुए थी, पर हिस्सेदारी उन्हें नहीं मिल पा रही थी. 1970 में दारोगा प्रसाद राय को एक साल से भी कम समय के लिए उसने मुख्यमंत्री बनाया था. हालांकि कांग्रेस के भीतर हिस्सेदारी का सवाल उसके दो दशक पहले से ही शुरू हो गया था. पर उसे बुरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया. तब कांग्रेस सवर्ण वर्चस्व वाली पार्टी थी. विधानसभा में उसके निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की जातीय पृष्ठभूमि में इस सच्चई को देखा जा सकता है.
41 फीसदी से 8 फीसदी वोट पर पहुंची
1951-52 में हुए पहले आम चुनाव में कांग्रेस को 41.38 फीसदी वोट मिले थे. उसके अगले साल यानी 1957 में उसका वोट प्रतिशत बढ़कर 42.09 फीसदी हो गया. 2010 के विधानसभा चुनाव में उसके वोट का प्रतिशत हो गया 8.37. कांग्रेस के जनाधार में आयी गिरावट से साफ है कि अमूमन सभी बिरादरी में उसका पैठ कम होता गया. नब्बे के दशक में मंडल-कमंडल की राजनीति के बाद कांग्रेस की स्थिति और भी कमजोर हो गयी. उसकी जगह अब भाजपा तेजी से आगे बढ़ रही थी और पिछड़ों, अति पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों का रूझान मध्यमार्गी पार्टियों की ओर हो गया था. दरअसल, समसामयिक एजेंडे पर कांग्रेस हस्तक्षेप करने की भी स्थिति में नहीं रही और वह हाशिये की राजनैतिक ताकत बन गयी.
वर्ष 1990 और 2000 के बाद तो कांग्रेस की स्थिति और बिगड़ती चली गयी. केंद्र में लगातार दस वषों तक कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार रही, लेकिन किसी ने राज्य में पार्टी के पुराने गौरव को वापस लाने की पहल की. नयी सामाजिक परिस्थितियों में नया राजनैतिक एजेंडा कांग्रेस के पास नहीं रहा. कम से कम बिहार में उसके पास नेतृत्व और एजेंडा को लेकर दुविधा की स्थिति है. बीते दो-ढाई दशक की राजनीति में कांग्रेस की भूमिका कम होती गयी.
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