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जाति आधारित राजनीति से बैकफुट पर वाम दल

विनय कंठ किसी जमाने में बिहार में वाम पार्टियां सदन से लेकर सड़क तक सक्रिय रहती थीं. जनता से जुड़े हर मुद्दे को उठाने में दूसरी पार्टियों की तुलना में ज्यादा तत्पर रहती थीं. लेकिन, आज स्थिति बदल गयी है. विधानसभा चुनाव होने वाला है, लेकिन वाम पार्टयिों में सुगबुगाहट भी नहीं दिख रही है. […]

विनय कंठ
किसी जमाने में बिहार में वाम पार्टियां सदन से लेकर सड़क तक सक्रिय रहती थीं. जनता से जुड़े हर मुद्दे को उठाने में दूसरी पार्टियों की तुलना में ज्यादा तत्पर रहती थीं. लेकिन, आज स्थिति बदल गयी है. विधानसभा चुनाव होने वाला है, लेकिन वाम पार्टयिों में सुगबुगाहट भी नहीं दिख रही है. इसके पीछे तीन प्रमुख कारण हैं. पहला, वामपंथ का आधार समाज का सबसे निचला तबका था.
इसमें एससी, एसटी, ओबीसी की संख्या ज्यादा थी. वामपंथी पार्टियों के अलग-अलग खेमों का नेतृत्व भले अगड़ी जाति के नेताओं के हाथ में रहा हो, लेकिन उनका आधार हमेशा से समाज का निचला तबका रहा है. लेकिन, जाति आधारित राजनीति के दौर में वामपंथ की विचार आधारित पॉलिटिक्स बैकफुट पर चली गयी है. दूसरा, आज पॉलिटिक्स और चुनाव में पैसा और विज्ञापन का महत्व बढ़ा है.
वाम पार्टियों इस मामले में दूसरे दलों के सामने कही नहीं टिकती हैं. तीसरी वजह है यूएसएसआर का विघटन. सोवियत संघ के टूट जाने के बाद दुनिया में वामपंथ की पहले जैसी साख नहीं रही. इस विचारधारा से सबसे ज्यादा मोहभंग युवाओं का हुआ. वाम दलों ने खुद को रीडिस्कवर करने की कोशिश नहीं की. बिहार में उनके लिए आज भी स्कोप है.
उन्हें दो में से कोई एक काम बड़ी शिद्दत के साथ करना होगा. पहला, उन्हें नये आइडिया के साथ लोगों के बीच आना होगा. गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं पहले की तुलना में कहीं ज्यादा हैं. दूसरा, वाम दलों को डेमोक्रेटिक फोर्स के साथ मिलकर जनसमस्याओं को उठाते हुए आधार बढ़ाना होगा.

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