2012 में सुशील कुमार सिंह एवं अन्य की ओर से दायर याचिका में अनुसूचित जाति और जनजाति को तीन स्तरों पर प्रोमोशन दिये जाने के सरकार के निर्णय को चुनौती दी गयी है. हाइकोर्ट में फैसला आने तक सभी प्रकार के सरकारी सेवकों के प्रोमोशन पर रोक लगा रखी है. कोर्ट के फैसले से साढ़े चार लाख सरकारी कर्मचारियों के प्रोमोशन की उम्मीदें टिकी हैं.
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प्रोन्नति में कोटे पर सुनवाई पूरी, फैसला सुरक्षित
पटना: प्रोमोशन में आरक्षण पर लगी रोक के मामले में पटना हाइकोर्ट में बुधवार को सुनवाई पूरी हो गयी. न्यायाधीश वी नाथ के एकलपीठ ने सुनवाई पूरी होने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया गया. 2012 में सुशील कुमार सिंह एवं अन्य की ओर से दायर याचिका में अनुसूचित जाति और जनजाति को तीन स्तरों […]
पटना: प्रोमोशन में आरक्षण पर लगी रोक के मामले में पटना हाइकोर्ट में बुधवार को सुनवाई पूरी हो गयी. न्यायाधीश वी नाथ के एकलपीठ ने सुनवाई पूरी होने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया गया.
प्रोमोशन में आरक्षण सही : सरकार : प्रोमोशन में आरक्षण को लेकर सरकारी की ओर से सुप्रीम कोर्ट के वरीय अधिवक्ता आर पटवालिया ने अपना पक्ष रखा, जबकि याचिकाकर्ता सुशील कुमार सिंह एवं अन्य की ओर से दायर सीडब्लयूजेसी 19114/2012 मामले में वरीय अधिवक्ता विनोद कुमार कंठ और विंध्याचल सिंह ने बहस की.
सरकारी वकील ने 19 अक्तूबर, 2006 में एम नागराज एवं अन्य बनाम केंद्र सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए प्रोमोशन में आरक्षण को सही करार दिया. पटवालिया का तर्क था कि सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों का प्रतिनिधित्व कम है. उन्होंने कहा, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के आधार पर बिहार सरकार के कल्याण विभाग ने रिपोर्ट दायर की है. रिपोर्ट में कहा गया है कि छह दशकों के बाद भी अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों की प्रगति अन्य सामाजिक वर्गाें की तुलना में संतोषजनक नहीं है. सरकार ने इस रिपोर्ट के आधार पर 21 अगस्त, 2012 को अनुसूचित जाति और जनजाति के कर्मियों को प्रोमोशन में आरक्षण बरकरार रखने का फैसला किया.
याचिकाकर्ता के वकील ने कहा जब जातिगत जनगणना नहीं, तो कैसे मिल रहा एक व्यक्ति को कई बार आरक्षण : दूसरी ओर याचिकाकर्ता के वकीलों का तर्क था कि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण संविधान का उल्लंघन है. उनका तर्क था कि सरकार एम नागराज एवं अन्य बनाम केंद्र सरकार के मामले के फैसले की गलत व्याख्या कर रही है.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में प्रोमोशन देने के पहले पिछड़ेपन की स्टडी करने, संबंधित जातियों में गरीबी का प्रतिशत, नौकरियों एवं संबंधित पदों पर कितना प्रतिनिधित्व का आकलन और जिस पद पर प्रोमोशन दिया जा रहा है, उसके लिए संबंधित व्यक्ति में प्रशासनिक क्षमता होने की जांच को अनिवार्य बताया है. जबकि राज्य सरकार इन सब चीजों को दरकिनार कर एक ही कर्मचारी को कई बार प्रोमोशन का लाभ दे रही है. याचिकाकर्ता के वकीलों का तर्क था कि जातीय जनगणना के बाद ही यह आकलन किया जा सकता है कि किस कोटे की कितनी आबादी है और उसमें कितना पिछड़ापन है. उन्होंने यह भी तर्क दिया कि अनंत काल तक आरक्षण की अनुमति संविधान नहीं देता है.
क्या है मामला
सुप्रीम कोर्ट ने 19 अक्तूबर, 2010 को एम नागराज बनाम संघ सरकार मामले में अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के कर्मचारियों को प्रोमोशन में आरक्षण व वरीयता का लाभ देने के क्रम में तीन बिंदुओं पर आंकड़े एकत्र करने की सलाह सरकार को दी थी. इनमें पहला, पिछड़ापन, दूसरा नौकरियों एवं पदों पर प्रतिनिधित्व और तीसरा प्रशासनिक दक्षता का हवाला दिया गया है. राज्य सरकार ने इसके लिए अनुसूचित जाति व जनजाति कल्याण विभाग को नोडल विभाग मानते हुए उसे आंकड़े जुटाने का निर्देश दिया. विभाग ने अपनी एक रिपोर्ट सरकार को सौंपी, जिसमें अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों को पिछड़ापन के आधार पर प्रोमोशन में आरक्षण की सिफारिश की गयी. इस आधार पर राज्य सरकार ने 21 अगस्त 2012 को इस वर्ग के कर्मचारियों को प्रोमोशन में आरक्षण देने की अधिसूचना जारी कर दी. इसके बाद सुशील कुमार सिंह एवं अन्य ने हाइकोर्ट में याचिका दायर कर सरकार के फैसले को चुनौती दी.
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