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आपका जीवन प्रतिभाओं को रोशनी देता रहेगा

रजनीश उपाध्याय, मुजफ्फरपुर : साल 2013 का वह 31 मार्च था. दो दिन बाद डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह का जन्मदिन था और उन पर एक स्टोरी करनी थी. पटना से आरा होते बसंतपुर गांव पहुंचा. एक बच्ची से वशिष्ठ नारायण सिंह के घर का पता पूछा, तो उसने ‘ना’ में सिर हिला दिया. पास खड़े […]

रजनीश उपाध्याय, मुजफ्फरपुर : साल 2013 का वह 31 मार्च था. दो दिन बाद डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह का जन्मदिन था और उन पर एक स्टोरी करनी थी. पटना से आरा होते बसंतपुर गांव पहुंचा. एक बच्ची से वशिष्ठ नारायण सिंह के घर का पता पूछा, तो उसने ‘ना’ में सिर हिला दिया. पास खड़े एक नौजवान ने कैमरा, राइटिंग पैड देख माजरा समझ लिया था. बोले – ‘विज्ञानी बाबू के घरे जाये के बाऽ? चलीं सभे.’ गलियों से गुजरते हुए वह नौजवान बताते रहे कि गांव में सभी लोग उन्हें विज्ञानी बाबू या वैज्ञानिक बाबू ही कहते हैं. यहां तक कि छोटे बच्चे भी. देश-दुनिया में मशहूर महान गणितज्ञ डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह के लिए उनके गांव ने संबोधन का यह शब्द ढूंढ़ निकाला था. यह गांव के लोगों की उनके प्रति अटूट श्रद्धा का द्योतक भी था.

सिजोफ्रेनिया नामक बीमारी से ग्रस्त वशिष्ठ बाबू ने बसंतपुर गांव में लंबा समय गुजारा. प्रारंभिक पढ़ाई-लिखाई भी यही हुई. यहीं से उन्होंने पटना साइंस कॉलेज, कैलिफोर्निया, नासा और फिर वापस अपने देश के सर्वोत्कृष्ट संस्थानों में अध्यापन – सबका केंद्र बिंदु उनका यह गांव ही रहा. हां, जीवन के अंतिम पांच-छह साल उन्होंने पटना में जरूर गुजारे.उस दिन पहली बार वशिष्ठ बाबू से आमने-सामने हुआ था. वह अपने पैतृक घर के एक कमरे में कागज पर गणित की गुत्थी सुलझा रहे थे.
कागज पर लिखा- ‘सीआर वन-वन. आर माइनस रौक दैन साइन टू आर.’ बोले- कंडीशन बा इ. कैलकुलस. फिर झट से हाथ बढ़ाया- ‘दस रोपेया बा?’ मैंने बढ़ाया, तो कई तह मोड़कर उसे हाथ में पकड़े रहे. बड़े भाई अयोध्या प्रसाद सिंह ने अतीत के पन्ने खोले- ‘भइया दिनभर कागज पर गणित का सूत्र लिखते रहते हैं. कभी-कभार बक्सा में से किताब ढूंढ़ते हैं.’ उनके परिवार ने कई ट्रंक किताब सहेज कर रखा था, जो वह अमेरिका से लेकर लौटे थे.
उन्होंने 1969 में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया से पीएचडी की उपाधि हासिल की. 1974 में उनका शोध पत्र (रीप्रोड्यूसिंग केनेल्स एंड ऑपरेटर्स वीथ ए साइकीलिक वेक्टर वन) प्रकाशित हुआ. तब गणित की दुनिया में इस शोध पत्र ने तहलका मचा दिया था. दो अप्रैल, 2013 को ‘प्रभात खबर’ के सभी संस्करणों में वशिष्ठ नारायण सिंह पर आधारित मेरी रिपोर्ट जैकेट और इनसाइड पेज (कुल दो पेज) पर छपी. इंगलैंड के महान वैज्ञानिक डॉ स्टीफन हॉकिन्स से उनके जीवन संघर्ष की तुलना की गयी थी.
मुद्दा यह था कि प्रतिभा को धरोहर मान कर समाज व सरकार को पहल करनी चाहिए. स्टोरी छपने के बाद खूब फोन आये. कई लोग मदद के लिए आगे आये. शायद उन्हीं में से एक सज्जन वह भी थे, जिन्होंने वशिष्ठ बाबू के लिए पटना के अशोक राजपथ में आवास की व्यवस्था की, लेकिन नेताओं की तरह उन्होंने कभी भी इसका ढोल नहीं पीटा.
गुमनाम रहते हुए उनके परिवार के लिए सहारा बन कर खड़े रहे. नेतरहाट ओल्ड ब्वॉयज एसोसिएशन (नोबा) ने भी अपने स्तर से कुछ मदद की. सरकार व राजनीतिक दलों ने तो उन्हें पहले ही भूला दिया था. पटना में रहते हुए मै उनके आवास पर यदा-कदा मिलने जाता था. जब भी जाता, वशिष्ठ बाबू ब्लैक बोर्ड पर या कागज पर कुछ लिखते मिलते.
एक बार उन्होंने इच्छा जाहिर की थी – हमरा साइंस कॉलेज ले चलऽ. 1963 में साइंस कॉलेज में उनका दाखिला हुआ. हायर सेंकेंड्री की परीक्षा में वे अव्वल रहे. 1964 में उनके लिए पटना विश्वविद्यालय का कानून बदला गया, क्योंकि उनकी उम्र पीजी की परीक्षा में शामिल होने की नहीं थी. उन दिनों साइंस कॉलेज में जॉन कैली नामक एक प्रोफेसर थे. उन्होंने वशिष्ठ बाबू की मेधा को देख उन्हें कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी भेजने की पहल की. यह सब सुखद स्मृतियां शायद रह-रह कर उनके जेहन में कौंधती रही होंगी.
वशिष्ठ नारायण सिंह के साथ तस्वीर खिंचा कर अपनी छवि चमकाने का वाकया भी कम नहीं रहा. प्रभात खबर में रिपोर्ट छपने के बाद बीएन मंडल विश्वविद्यालय ने 13 अप्रैल, 2013 को उन्हें विजिटिंग प्रोफेसर बनाया. इसकी अधिसूचना की एक प्रति लेकर विवि का विशेष दूत उनके गांव बसंतपुर गया. बशिष्ठ बाबू को लेकर उनके भाई व भतीजा मधेपुरा गये. गेस्ट हाउस में ठहराया गया. दो दिन वापस लौट गये. इसके बाद विवि ने उनकी कोई खोज खबर नहीं ली. इस बारे में मैंने तत्कालीन कुलपति से बात की थी, तो उनका जवाब था कि हमारे यहां मैथ का डिपार्टमेंट नहीं है.
आज सुबह-सुबह जब वशिष्ठ बाबू के निधन की सूचना मिली, तो उनसे जुड़ीं कई स्मृतियां ताजा हो गयीं. जीते जी किंवदती पुरुष बन गये वशिष्ठ बाबू का जीवन संघर्ष हम सबके लिए प्रेरक है और एक सबक भी. भारत के कई संस्थानों में काम करते हुए अंतत: वे सिजोफ्रेनिया के शिकार हुए. यह बहस व शोध का विषय है कि इसकी वजह क्या रही. लेकिन, इतनी बड़ी शख्सियत यदि गुमनामी में व कठिन परिस्थितियों में जीता रहा, तो इससे बिहारी समाज को सबक तो लेना ही चाहिए कि प्रतिभा को धरोहर मानकर सहेजने की चेतना हममें कब जगेगी.
अलविदा वैज्ञानिक बाबू! आप बिहार के मानस में जिंदा रहेंगे. आपका जीवन गांव के उन मेधावी विद्यार्थियों को रोशनी देते रहेगा, जो अभावों के अंधेरे में अपनी प्रतिभा को तराशने की जद्दोजहद कर रहे हैं.

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