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बिहार : आरक्षण पर अपना रिकॉर्ड ठीक करने में भाजपा को लग रहा समय

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने ठीक ही कहा है कि केंद्र सरकार अनुसूचित जाति-जन जाति के लिए आरक्षण को न तो रद्द करेगी न ही किसी को ऐसा करने देगी. चाहे पिछड़ों का आरक्षण हो या एससी-एसटी का, कोई उसे समाप्त नहीं कर सकता. हां, उसमें कुछ संशोधन जरूर हो सकता […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने ठीक ही कहा है कि केंद्र सरकार अनुसूचित जाति-जन जाति के लिए आरक्षण को न तो रद्द करेगी न ही किसी को ऐसा करने देगी. चाहे पिछड़ों का आरक्षण हो या एससी-एसटी का, कोई उसे समाप्त नहीं कर सकता.
हां, उसमें कुछ संशोधन जरूर हो सकता है. वह भी इस बात का ध्यान रखते हुए कि उससे आरक्षित समुदाय को कोई नुकसान नहीं हो. पर जब कुछ भाजपा नेता और संघ के पदाधिकारी यह बयान देते हैं कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए तो आरक्षित समुदाय के लोगों के कान खड़े हो जाते हैं. भले वे बाद में सफाई दें कि उनके बयान का गलत अर्थ लगाया गया, पर अनेक लोगों को उस पर विश्वास करना कठिन होता है.कई लोगों को 1978 और 1990 के साल याद आ जाते हैं.
वी पी सिंह की सरकार ने जब मंडल आरक्षण लागू किया तो भाजपा ने किसी और बहाने सरकार गिरा दी. हालांकि उन दिनों एक बड़े भाजपा नेता ने स्वीकारा था कि यदि मंडल नहीं होता तो मंदिर आंदोलन भी नहीं होता.
1979 में जब कर्पूरी ठाकुर की सरकार गिरी तो आरोप लगाया गया कि वैसा इसलिए हुआ, क्योंकि 1978 में कर्पूरी सरकार ने पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू किया था. वैसे सरकार गिराने का कारण कुछ और बताया गया. अटल बिहारी वाजपेयी ने तब बिहार के उन भाजपा विधायकों को समझाया था कि आप लोग आरक्षण का विरोध न करें. इसके बावजूद धारणा यह बनी कि भाजपा आरक्षण के विरोध में है.
पिछले बिहार और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के अवसर पर संघ के दो बड़े नेताओं ने आरक्षण की समीक्षा करने की जरूरत बता दी थी. बिहार में तो उसका काफी विपरीत प्रभाव भाजपा पर पड़ा.
अब जब एससी-एसटी कानून को लेकर विवाद चल रहा है तो कुछ लोगों को यह कहने का मौका मिल गया है कि भाजपा आरक्षण समाप्त करना चाहती है. हालांकि यह आरोप गलत है.
पर, सवाल है कि यह आरोप भाजपा पर क्यों लगता है ?
इस सवाल को ध्यान में रखते हुए इस मामले में भाजपा को अपना रिकाॅर्ड ठीक करना होगा. कम से कम भाजपा अपने नेताओं को कड़ा निर्देश दे कि वे आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर लापरवाही से बयान न दें.
गलत शिकायत पर सजा कम
आईपीसी की धारा-182 के तहत सिर्फ छह माह की सजा का प्रावधान है. अब जब कि एससी-एसटी कानून के दुरुपयोग की शिकायतें मिल रही हैं तो धारा-182 में सजा की अवधि बढ़ाना समय की मांग है.
धारा-182 में गलत शिकायत की चर्चा की गयी है. 2007 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने पुलिस को निदेश दिया था कि एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग पाये जाने पर वे धारा-182 का इस्तेमाल करें.
रिटायर सैन्य अधिकारियों की तैनाती : बिहार के विश्व विद्यालयों में रजिस्ट्रार के रूप में पूर्व सैन्य अधिकारियों की तैनाती से एक उम्मीद बंधी है. उम्मीद बेहतरी की है. सत्तर के दशक में जब बिहार बिजली बोर्ड के अध्यक्ष के पद पर रिटायर ब्रिगेडियर कोचर को तैनात किया गया तो काफी फर्क आया था.
उससे पहले बोर्ड के बारे में यह कहावत प्रचलित थी कि एक बार वहां के ट्रांसफॉर्मर को बड़ी मछली खा गयी थी. दरअसल हुआ यह कि गंगा में नाव पर लाद कर ट्रांसफॉर्मर उत्तर बिहार भेजा गया. नाव उलट गयी. ट्रांसफॉर्मर पानी में. निकालने की कोशिश की गयी. बोर्ड की कोशिश सफल नहीं हुई. लगा कि ट्रांसफॉर्मर मछली खा गयी.
दरअसल ट्रांसफॉर्मर की खरीद कागज पर हुई थी. उसे कागज पर ही मछली को खिला भी दिया गया था. पता नहीं यह कहानी सही है या नहीं, पर संभव है कि भ्रष्टाचार के पराकाष्ठा पर पहुंचने पर ऐसी-ऐसी कहानियां गढ़ भी ली जाती हैं, पर पद संभालने के बाद कोचर ने कुछ ही दिनों में ऐसी कहानियों पर विराम लगा दिया था.
विश्वविद्यालयों में तो वित्तीय के अलावा कई अन्य समस्याएं अधिक गंभीर हैं. उम्मीद है कि विश्वविद्यालयों में तैनात होने पर पूर्व सैन्य अधिकारियों को किसी दबाव में हटाया नहीं जायेगा.
पत्रकारों की आवास समस्या : पटना में जब राजेंद्र नगर, लोहिया नगर तथा अन्य व्यवस्थित मुहल्ले बसे तो वहां अन्य लोगों के साथ-साथ पत्रकारों को भी जगह दी गयी. पर अब जब गर्दनीबाग को नये ढंग से विकसित किया जा रहा है तो वहां पत्रकारों के लिए कोई गुंजाइश नहीं रखी गयी है.
प्रस्तावित गर्दनीबाग मुहल्ले में लोकतंत्र के तीनों स्तंभों के आवास की सुविधा रहेगी, वहां सिर्फ मीडिया के लिए कोई जगह नहीं होगी. बिहार सरकार इन दिनों पत्रकारों के लिए पेंशन और स्वास्थ्य बीमा का प्रबंध तो कर रही है, पर उनकी आवास समस्या उपेक्षित है.
पिछले कई दशकों से सरकार की ओर से पत्रकारों की आवास समस्या हल करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया. यहां तक कि जिन दर्जनों पत्रकारों ने राज्य आवास बोर्ड की महत्वाकांक्षी दीघा आवास योजना के लिए पैसे जमा किये थे, उन्हें भी लाल झंडी दिखा दी गयी.
राजनीति के मैदान में एंबुलेंस नहीं होता : किसी ने पूछा कि राजनीतिक जीवन और सामान्य जीवन में क्या-क्या फर्क है?
एक भुक्त भोगी नेता ने यह जवाब दिया- यदि आप सामान्य जीवन में दुर्दिन में पड़े किसी व्यक्ति को सौ रुपये की भी मदद कर दें तो वह जिंदगी भर याद रखेगा, पर दूसरी ओर राजनीति में यह भी देखा गया है कि किसी को कोई नेता अपनी कृपा से पीएम, सीएम, मंत्री, सांसद, विधायक भी बना दें तो भी वह किसी दिन उसका कट्टर विरोधी बन सकता है. यानी न तो उपकार का भाव और न ही लाज-शर्म के लिए कोई स्थान!
एक भूली-बिसरी याद
11 अप्रैल 1974 को जय प्रकाश नारायण ने प्रेस बयान दिया था. वह इस प्रकार है-
‘मैं श्री राज नारायण के लखनऊ से प्रकाशित इस वक्तव्य से हैरान हूं कि उनकी राय में मुझे भारत का अगला राष्ट्रपति होना चाहिए. मैं नहीं जानता कि हितैषी मित्र भी मुझे जब तब अपमानित करने पर क्यों तुल जाया करते हैं?
कभी मैं राष्ट्रपति बनने लगता हूं , कभी सब विरोधी दलों का नेता होने लगता हूं. दिखता है कि जो पार्टी और सत्ता राजनीति में डूबे हुए हैं, वे केवल पार्टी, सत्ता, पद और चुनाव की ही भाषा समझते हैं. वे यह समझने में सर्वथा असमर्थ प्रतीत होते हैं कि इस सब के बाहर भी खड़े होकर कोई व्यक्ति अपने राष्ट्र की और जनता की सेवा कर सकता है और पदों को ललचाई निगाह से न देखने में कृतकृत्य अनुभव कर सकता है.
आशा करता हूं कि मेरे मित्र और शत्रु दोनों ही अटकलें लगाना और उम्मीदें रखना हमेशा के लिए छोड़ देंगे कि कितना ही बड़ा क्यों न हो, कोई भी पद पाने को या सत्ता या पार्टी की राजनीति में फिर घुसने को मैं उत्सुक होउंगा या राजी किया जा सकूंगा.पद या पार्टी की राजनीति करने वाले यह समझने में भी असमर्थ जान पड़ते हैं कि पद और पार्टी की राजनीति की अपेक्षा विशालतर और व्यापकत्तर अर्थ रखने वाली भी एक राजनीति होती है.
1954 में जिस दिन मैंने पार्टी और सत्ता से आजीवन निर्लिप्त रहने की घोषणा की थी, उसी दिन मैंने यह स्पष्ट कर दिया था कि राष्ट्र के राजनीतिक जीवन में मेरा कर्ममय सहयोग जारी रहेगा. इसे छोड़ देने का मेरा कोई इरादा नहीं है.’
और अंत में
मध्य प्रदेश में पांच हिन्दू संतों को राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया है. इस पर आलोचनाएं हो रही हैं. इन्हें तो सिर्फ दर्जा दिया गया है. सन 1977 में तो हिन्दू संत पवन दीवान बाजाप्ता मध्य प्रदेश मंत्रिमंडल में शामिल कर लिये गये थे.
अरे भई, जब समाज के लगभग हर अन्य तबके के लोग इस देश मेें सत्ता व विधायिकाओं में हिस्सेदारी पा ही रहे हैं तो संत ही पीछे क्यों रहें! हर तबके यानी उजाले की दुनिया से लेकर अंधेरे की दुनिया तक के लोग.

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