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बिहार : चेतावनियों पर ध्यान दिया होता तो सजा से बच जाते नेता जी
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक हाल के दशकों में देश के अनेक नेताओं को अदालतों से सजाएं हुई हैं. कुछ को भ्रष्टाचार के मामले में तो कुछ को अन्य तरह के अपराध को लेकर. उन में से कुछ नेताओं ने तो सत्ता में रहते हुए एक पर एक घोटालों-महा घोटालों की झड़ी ही लगा दी थी. […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
हाल के दशकों में देश के अनेक नेताओं को अदालतों से सजाएं हुई हैं. कुछ को भ्रष्टाचार के मामले में तो कुछ को अन्य तरह के अपराध को लेकर. उन में से कुछ नेताओं ने तो सत्ता में रहते हुए एक पर एक घोटालों-महा घोटालों की झड़ी ही लगा दी थी.
हालांकि, ऐसे नेताओं के घोटालों को लेकर बहुत पहले से ही मीडिया में बातें आती रही थीं. पर उनमें से अधिकतर नेताओं ने एक घोटाले की खबर को नजरअंदाज करके दूसरा घोटाला शुरू कर दिया था. अब जब उन्हें अदालतों और जेलों का सामना करना पड़ रहा है तो क्या उन्हें इस बात का पछतावा हो रहा है कि काश! हम अपने बारे में छपी पहली ही खबर पर चेत गये होते?
पता नहीं ! इन में से कुछ नेताओं ने तो उल्टे न सिर्फ संबंधित पत्रकारों बल्कि मीडिया संगठनों को भी प्रताड़ित किया. उम्मीद है कि ऐसे पिछले उदाहरणों को देखते हुए वैसे नये नेता गण सबक लेंगे, जिनका घोटाले के लिए मन ललचाता रहता है. सबक लेंगे तो न सिर्फ राज्य का बल्कि उनका खुद का भी भला होगा. उनके वंशज भी गर्व से कह सकेंगे कि हमारे पूर्वज सत्ता में रहते हुए भी किसी घोटाले या विवाद में नहीं पड़े थे.
गौर करने लायक सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी : सुप्रीम कोर्ट ने हाल में कहा है कि सरकार और ब्यूरोक्रेसी की अकर्मण्यता के कारण ही न्यायिक सक्रियता है.
यदि सरकारी व्यवस्था कानून का शासन लागू करने में विफल रहे और जनता को उसके अधिकार न मिलें तो अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ता है. और रास्ता ही क्या है? सुप्रीम कोर्ट ने बिल्कुल सही कहा है. पर ऐसे मामले देखते समय सुप्रीम कोर्ट सिर्फ राहत का आदेश न दे बल्कि यह भी बताये कि ऐसी अकर्मण्यता के लिए राजनीतिक कार्यपालिका या फिर प्रशासनिक कार्यपालिका स्तर के कौन-कौन से लोग जिम्मेदार हैं.अदालत ऐसी व्यवस्था भी करे, ताकि ऐसे निकम्मे लोगों को उसकी कुछ कीमत भी चुकानी पड़े.
कोई भी जीते, भला लोकतंत्र का ही : गुजरात विधान सभा चुनाव में चाहे जीत जिसकी भी हो,भला लोकतंत्र का ही होगा. यह कैसे ? दरअसल यह देश इन दिनों एक समर्थ प्रतिपक्ष की प्रतीक्षा कर रहा है.
यदि गुजरात में कांग्रेस पार्टी विजयी होगी तो वह जीत कांग्रेस के लिए राजनीतिक संजीवनी साबित हो सकती है.भले वह हिमाचल प्रदेश में हार जाये तो भी. वैसे भी गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने खुद को पप्पू की छवि से निकालने का प्रयास किया है. एक हद तक वे सफल भी रहे हैं. हालांकि अभी उन्हें कुछ और प्रयास करने होंगे. दूसरी ओर भाजपा की केंद्र सरकार को अपने काम की गति और गुणवत्ता बढ़ानी पड़ेगी. गुजरात की हार के बाद शायद केंद्र सरकार महिला आरक्षण विधेयक पर काम कर सकती है. वह पिछड़ों के 27 प्रतिशत आरक्षण को तीन भागों में बांट सकती है.
बेनामी संपत्ति वालों पर कुछ और तेज कार्रवाई कर सकती है. यह सब भी देश के लिए अच्छा ही होगा. संभव है कि 2019 के लोकसभा चुनाव जीतने के लिए केंद्र की भाजपा सरकार के पास कुछ अन्य लोक लुभावन कदम उठाने की योजनाएं हाें. हां, यदि भाजपा गुजरात में जीत गयी, तो वह अधिक आत्मविश्वास के साथ अपने अधूरे वायदे पूरे करने के काम में निडरतापूर्वक लग जायेगी.
‘लतीफ राज’ की वापसी का नारा कितना कारगर : गुजरात चुनाव में भाजपा ने इस बार यह कह कर मतदाताओं को चेताया था कि यदि कांग्रेस को जिताओगे तो एक बार फिर गुजरात में ‘लतीफ राज’ कायम हो जायेगा. रिजल्ट बतायेगा कि भाजपा का यह नारा इस बार कितना कारगर हुआ.
यह लतीफ कौन था? लतीफ गुजरात में वही काम करता था, जो काम दाऊद इब्राहिम महाराष्ट्र में करता था. लतीफ 1997 में गुजरात पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ में मारा गया. उसके सफाये के बाद लतीफ का ड्राइवर सोहराबुद्दीन उसका उत्तराधिकारी बना. पर वह भी 2005 में पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारा गया.
तब तक नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री बन चुके थे. फिर तो सोहराबुद्दीन पर हंगामा स्वाभाविक ही था. 1997 में गुजरात में कांग्रेस समर्थित दिलीप पारीख की सरकार थी. शंकर सिंह बाघेला के दल राजपा के दिलीप पारीख नेता थे. जिन पुलिस अफसरों ने लतीफ को मारा था, तब उन्हें राज्य सरकार ने सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया था. जबकि आरोप यह था कि लतीफ भी नकली मुठभेड़ में ही मारा गया था. पर सोहराबुददीन हत्या कांड में आईएएस अफसर भी आरोपित बनाये गये और जेल में रहे. इस दोहरे मापदंड का राजनीतिक लाभ भाजपा को चुनावों में मिलता रहा. गुजरात के मुख्यमंत्री ने इस सवाल को एक बार फिर इस चुनाव में उठाया था.
आज के शरद को याद आते हैं पुराने शरद? : शरद यादव आपातकाल में जेल में थे. तब वे जबलपुर से लोक सभा के सदस्य थे. वे एक उप चुनाव में 1974 में चुने गए थे.वे ‘जनता उम्मीदवार’ थे.
छात्रों के नेता थे. उन्हें तब जेपी का भी आशीर्वाद हासिल था. मशहूर हस्ती सेठ गंविंद दास के निधन के कारण वह सीट खाली हुई थी. जिस लोक सभा के शरद यादव सदस्य थे, उसकी आयु 1976 में समाप्त हो रही थी. पर आपातकाल में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उस लोकसभा की अवधि एक साल के लिए बढ़ा दी. पर शरद यादव ने जेल से ही लोक सभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. मधु लिमये भी उसी जेल में थे.
उन्होंने भी इस्तीफा दे दिया था. शरद यादव ने तब कहा कि जनता ने मुझे सिर्फ 1976 तक के लिए ही चुना था. इसलिए मैं जनादेश का अपमान नहीं कर सकता. वही शरद यादव इन दिनों अपनी राज्यसभा सीट के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. वैसे राज्यसभा के सभापति ने उनकी सदस्यता समाप्त भी कर दी है. शरद जी फिर भी ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसमें सफलता की कोई उम्मीद नहीं है. दल-बदल का नियमभी यही कहता है. .
आखिर क्यों?
कितना बदल गये हैं शरद जी 1976 और 2017 के बीच : कभी आज के शरद को 1976 के शरद याद आते हैं? शरद जी का व्यक्तित्व राज्यसभा की एक सीट से बड़ा है. संयोग बनेगा तो आगे सांसद क्या मंत्री भी बनेंगे. पर ऐसी लड़ाई क्यों लड़ना, जिससे सम्मान नहीं बढ़ता हो.
और अंत में : शहरी इलाकों से आबादी का बोझ घटाने के लिए एक उपाय कारगर हो सकता है. सरकारी सेवकों को आवास भत्ता मिलता है. ग्रामीण क्षेत्रों में रहनेवाले सेवकों की अपेक्षा शहरी क्षेत्रों में आवास करने वालों को दोगुना भत्ता मिलता है.
यदि इसे उलट दिया जाये तो क्या होगा? शहरी भत्ता घटाने के बदले ग्रामीण क्षेत्रों में रहनेवाले सरकारी सेवकों का आवास भत्ता धीरे-धीरे बढ़ाते जाना चाहिए. यदि यह कदम शहरी क्षेत्रों पर से आबादी का बोझ घटाने में सहायक होता है, तो इसे आजमाने में क्या हर्ज है? इस काम में जो खर्च आयेगा, वह व्यर्थ नहीं जायेगा.
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