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अब यहां सुनायी नहीं देती मशीनों की खटखट

बिहारशरीफ (नालंदा) : कभी यहां मशीनों की खटखट सुनाई देती थी. उस वक्त इस उद्योग का यूपी एवं बिहार में डंका बजता था. इन प्रदेशों की अधिकांश यूर्निवसिटी अपने यहां के सर्टिफिकेट के लिए यहां के बने कागजों के कायल थे. हम बात कर रहे हैं स्थानीय रामचंद्रपुर स्थित औद्योगिक प्रांगण क्षेत्र में बंद हो […]

बिहारशरीफ (नालंदा) : कभी यहां मशीनों की खटखट सुनाई देती थी. उस वक्त इस उद्योग का यूपी एवं बिहार में डंका बजता था. इन प्रदेशों की अधिकांश यूर्निवसिटी अपने यहां के सर्टिफिकेट के लिए यहां के बने कागजों के कायल थे. हम बात कर रहे हैं स्थानीय रामचंद्रपुर स्थित औद्योगिक प्रांगण क्षेत्र में बंद हो चुके हाथ कागज उद्योग की.
बताते चलें कि तब इस उद्योग में निर्मित सुंदर, खुरदुरे एवं कलात्मक कागज फुल डिमांड पर होती थी. बिहार, यूपी समेत बनारस से इस उद्योग में कागज बनाने के लिए ऑर्डर मिलते थे. इसलिए अक्सर इन प्रदेशों से कागज व्यापारियों सहित कई नामी- गिरामी प्रिटिंग प्रेस वालों का आना-जाना लगा रहता था. इलाके के कई बूढ़े- बुजुर्ग इस बात की आज भी ताकीद कर रहे हैं. यहां के उच्च श्रेणी के हस्त निर्मित ड्राइंग सीट, कार्ड बोर्ड एवं फैंसी रंगीन कागज ने तब अपने कामयाबी का झंडा गाड़ा था. इस उद्योग के बने हस्तनिर्मित कागज खुरदुरे एवं बेहद आकर्षक होते थे. इसलिए इन कागजों पर कई यूनिवर्सिटी अपने सर्टिफिकेट के लिए उपयोग करते थे. जब शनिवार को इस उद्योग से जुड़े कई बातों की खोज- खबर ली गयी तो ऐसे कई हकीकत से रू-ब-रू हुआ.
इस उद्योग की स्थापना 1956 में काफी धूमधाम से की गयी थी. करीब आठ कट्ठे भूभाग में फैला यह उद्योग आज पूरी तरह वीरान पड़ा है. इस उद्योग को देखने से पता चलता है कि तब यहां चार शेड हुआ करते थे. अगर इस उद्योग के प्रारंभिक दौर की बात करें तो यहां दो- तीन शिफ्ट में काम होता था. समय गुजरा और कई वर्ष बीत गये, तो यह उद्योग भी बूढ़ा होकर दम तोड़ना शुरू कर दिया. इलाकाई लोग बताते हैं कि वर्ष 2002 तक इस उद्योग में सात श्रमिक कार्य करते थे, लेकिन वर्ष 2003 की शुरुआती माह में यह उद्योग पूरी तरह बंद हो गया. इस उद्योग का नियंत्रण राज्य खादी ग्रामोद्योग के हाथों में रहा है.
एक समय ऐसा भी आया, तब देश सहित प्रदेश में विभिन्न उद्योगों का आधुनिकरण के साथ ऑटोमेटिक मशीनों का उपयोग होने लगा, तब इस हाथ उद्योग के गर्दिश के दिन शुरू होने लगे. बावजूद यह उद्योग तकरीबन पच्चीस वर्ष तक अपने वजूद को बनाये रखने में सफल होता दिखा, लेकिन आज स्थिति ठीक इसके पलटवार है. इस उद्योग के भवन में आज सन्नाटा पसरा है. उद्योग के कमरे में रखे छोटे व बड़े वीटर मशीन जिसका उपयोग कच्चे माल को गलाने में किया जाता था, का रॉलर बिल्कुल जाम हो गया है.
इसके अलावे यहां रखे कटिंग मशीन, प्रेशर मशीन, कलेंडरी मशीन आदि पर जमे धूल की मोटी- मोटी परतें इसकी बदहाली की कहानी खुद बयां कर रही है. सूत्रों की मानें तो कालांतर में इस उद्योग में कुशल तकनीशियनों की कमी होती गयी जिसकी भारपाई समय रहते नहीं की गयी. इसके कारण धीरे-धीरे यह उद्योग दम तोड़ता गया और आज इसका अस्तित्व ही बिल्कुल पूरी तरह मिट चुका है. बहरहाल, यहां 1989 से काम कर रहे गार्ड सुधीर कुमार इस उद्योग की रखवाली कर रहे हैं. इस आस में वह यहां डयूटी बजा रहे हैं कि कभी भविष्य में इस उद्योग का मॉडलीकरण होगा तो उनके भी अच्छे दिन की वापसी हो जाय.

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