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सनातन ही नहीं बौद्ध और जैन संस्कृति का भी अभिन्न हिस्सा है कुश, जानें आज के दिन कुश उखाड़ने का क्या है महत्व

प्राचीन काल में हर दिन दूसरे पहर में कुश उखाड़कर लाने की परम्परा थी पर बाद में प्रतिदिन लेने में जब असुविधा होने लगी तो साल भर के लिए भादो की अमावस्या के दिन कुश उखाड़कर लाने की परम्परा चली. मान्यता है कि इस दिन उखाड़ा गया कुश साल भर तक उपयोग में लाया जा सकता है.

पटना. आज कुशी अमावस्या (कुशोत्पाटन) तिथि है. आज की तिथि में सनातनी व्यक्ति साल भर के यज्ञ एवं पितृ कर्म हेतु कुश संचय करते हैं. मिथिला की मान्यता के अनुसार कुशोत्पाटन वही करते हैं जिनके पिता दिवंगत हो चुके हों. वैसे कहीं-कहीं यह भी परम्परा है कि जिसका यज्ञोपवीत हो चुका है, वह कुशोत्पाटन का अधिकारी है. कुश भारतीय सनातन संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है. इसका प्रयोग वैदिक काल से आज तक विभिन्न रूपों में हो रहा है. प्राचीन काल में हर दिन दूसरे पहर में कुश उखाड़कर लाने की परम्परा थी पर बाद में प्रतिदिन लेने में जब असुविधा होने लगी तो साल भर के लिए भादो की अमावस्या के दिन कुश उखाड़कर लाने की परम्परा चली. मान्यता है कि इस दिन उखाड़ा गया कुश साल भर तक उपयोग में लाया जा सकता है.

अमृत से सीचा गया था कुश

कुश की पवित्रता के सम्बन्ध में पटना महावीर मंदिर के पंडित भवनाथ झा कहते हैं कि महाभारत में एक कथा आयी है कि एक बार गरुड़ की माता विनता को नाग पकड़कर नागलोक लेकर चले गये. नागों ने गरुड़ के सामने शर्त रखी कि यदि आप स्वर्ग से अमृत लाकर हमें पिलायेंगे तभी हम आपकी माता को छोड़ देंगे. माता की सेवा के लिए समर्पित वैनतेय गरुड़राज ने विष्णु से प्रार्थना की. उन्होंने कहा कि अमृत तो देवराज इन्द्र के जिम्मे है. गरुड़ वहाँ भी पहुँच गये. उन्होंने इन्द्र को प्रसन्न कर अमृत प्राप्त किया. उसे घड़ा में लेकर चले और नागलोक के समक्ष एक घास पर उसे रख दिया. वह घास कुश बना तथा प्रत्येक पवित्र वस्तुओं के लिए आस्तरण (नीचे बिछाने की वस्तु) बन गया. अतः यज्ञ में चरु को कुश केआस्तरण पर रखते हैं.

महाभारत के आदि पर्व के आस्तीक पर्व में मिलता है उल्लेख

अब आगे गरुड़ ने नागों से कहा कि आपलोग स्नान कर आइए. मैं सबको अमृत पिलाने की व्यवस्था करता हूँ. लभी नाग प्रसन्न होकर नदी में स्नान करने गये तो इधर गरुड़ ने नदी के किनारे कुश के जंगल पर उस अमृत को छिड़कर दिया. जब नाग स्नान कर आये तो गरुड़ ने कहा कि आपलोग इस घास के पत्तों पर चाटकर अमृत का पान करें. सभी नाग ‘हम पहले तो हम पहले’ करते हुए कुश के पत्तों पर कला अमृत चाटने लगे. इससे उनकी जिह्वा कटती गयी. उसी समय से सर्प की दे जिह्वाएँ होती है. यह कथा महाभारत के आदि पर्व के आस्तीक पर्व में है.

कई मामलों में होता रहा है कुश का उपयोग

पंडित भवनाथ झा कहते हैं कि कुश का उपयोग न केवल कर्मकाण्ड में होता है, बल्कि हमारे पूर्वजों ने स्वच्छ जल से स्रोत का पता लगाने के लिए भी कुश की उपस्थित का उपयोग किया है. वे जानते थे कि जहाँ कुश उगता हो, वहाँ कुआँ खोदना चाहिए. इतना ही नहीं, लोक-संस्कृति में कुश को रक्षक मानते हुए घर का द्वार बंद कर उसके ऊपर कुश की माला पहनाकर घऱ की सुरक्षा से निश्चिन्त होकर बाहर जाने का भी प्रचलन रहा है.

कौन-सा कुछ उपयोग में न लावें

कुश के सम्बन्ध स्पष्ट निर्देश है कि इसे पवित्र स्थान से उखाड़ा जाना चाहिए. नदी के किनारे से लिया गया कुश अथवा तिल उपजने लायक खेत से उखाड़ा गया कुश पवित्र होता है. इसी सन्दर्भ में कुछ स्थलों का निषेध किया गया है. रास्ते के किनारे पर जन्मा हुआ, श्मशान की भूमि पर अथवा जहाँ पूर्व काल में कभी यज्ञ हुआ था ऐसे प्राचीन चैत्य आदि के ऊपर जन्मा कुश नहीं उखाड़ना चाहिए. यज्ञ में परिस्तरण, आसन अथवा पिण्ड पर जो कुश डाल दिया जाता है, उसका परित्याग कर देना चाहिए. ब्रह्मयज्ञ तथा पितृतर्पण में व्यवहार किया गया कुश परित्याग कर देना चाहिए. साथ ही यदि कुश हाथ में लेकर मल-मूत्रत्याग किया गया हो तो उसे भी फेंक देना चाहिए. जिस कुश के बीच में अविकसित पत्ता रह गया हो, अथवा कुश का अगला भाग नाखून से तोड़ लिया गया हो, जो कुश पानी में डालकर आग पर चढ़ाया गया हो अथवा उसका कुछ अंश आग में जल गया हो- ऐसे सभी कुशों का परित्याग कर देना चाहिए.

बौद्ध और जैन भी प्रयोग करते हैं कुश का उपयोग

कुश भारतीय संस्कृति में पर्याप्त गहराई तक प्रविष्ट है. न केवल वैदिक परम्परा में बल्कि श्रमण-परम्परा आर्थात् बौद्ध तथा जैन में भी इसके बहुधा प्रयोग मिलते हैं. बौद्धों में महायान शाखा में तो कुश के आसन- ‘कुशविण्ड’ को साधना में आवश्यक माना गया है तथा अच्छिन्नाग्र कुश से मण्डल बनाने, माला को गूँथने के लिए कुशाग्र का उपयोग करने का उपदेश किया गया है. पालि-ग्रन्थों में भी कुश के विविध प्रकार से उल्लेख हुए हैं तथा इतना तक संकेत मिलता है कि बुद्ध ने सुजाता का दिया खीर खाने के बाद सोत्थिय (श्रोत्रिय- वैदिक ब्राह्मण, जो कुश-संग्रह हेतु गये थे) से आठ मुँठ कुश लेकर 14 हाथ का आसन बनाया तथा उसी पर बैठकर बुद्धत्व प्राप्त किया. आज भी बौद्ध-साधना में कुशासन का महत्त्व है.

बौधायन गृह्यसूत्र में है कुश के महत्व का वर्णन

पंडित भवनाथ झा कहते हैं कि बौधायन गृह्यसूत्र में कहा गया है कि कुश की पताका लेकर, कुश के घिरा हुआ रहकर, कुश का वस्त्र पहनकर, कुश का यज्ञोपवीत पहन कर, कुश के आसन पर बैठकर, कुश हाथ में लेकर, कुश की मेखला यानी कमरडोर पहन कर, नित्य तीन बार स्नान कर सन्ध्या वंदन करता हुआ, कुश की ही शय्या पर सोता हुआ, भिक्षा में मिले साग और जौ का आहार लेता हुआ साधक आदित्य के सामने बैठकर पाँच हजार बार ॐकार का जप करे तो सभी मन्त्र सिद्ध हो जाते हैं तथा सभी वेद अधीत हो जाते हैं. 

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