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साहत्यिकार का कॉलम ::: असहष्णिुता के नाम पर पुरस्कार वापसी, झूठ को सच बनाने का तांडव नृत्य

साहित्यकार का कॉलम ::: असहिष्णुता के नाम पर पुरस्कार वापसी, झूठ को सच बनाने का तांडव नृत्यडॉ अमरेंद्रदेश असहिष्णु हो रहा है, यह उन लोगों की भाषा है जो देश की सांस्कृतिक परंपरा से अनभिज्ञ हैं या फिर इसके विरोधी हैं. सभ्यताएं बनती-बिगड़ती हैं, लेकिन संस्कृति जब बनती है तो उसमें परिवर्तन हजारों हजार वर्षों […]

साहित्यकार का कॉलम ::: असहिष्णुता के नाम पर पुरस्कार वापसी, झूठ को सच बनाने का तांडव नृत्यडॉ अमरेंद्रदेश असहिष्णु हो रहा है, यह उन लोगों की भाषा है जो देश की सांस्कृतिक परंपरा से अनभिज्ञ हैं या फिर इसके विरोधी हैं. सभ्यताएं बनती-बिगड़ती हैं, लेकिन संस्कृति जब बनती है तो उसमें परिवर्तन हजारों हजार वर्षों के बाद भी नहीं के बराबर होता है. इतिहास साक्षी है कि हिंदू शासकों, चाहे वह शिवाजी हों, राणा प्रताप हों, गुरु गोविंद सिंह हों, ने अपनी सेनाओं में बिना अविश्वास किये मुसलमान सरदारों को सम्मानजनक स्थान दिया था. यह परंपरा तब से ही शुरू हो गयी थी, जब आठवीं शताब्दी में अरब और तुर्क दक्षिण भारत में बहुतायत में आ बसे थे. इसका उल्लेख इतिहासकार आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने भी अपनी पुस्तक ‘मध्यकालीन भारतीय संस्कृति’ में किया है. ऐसे अन्य भी उदाहरण मिल जायेंगे. तब आज अचानक भारत असहिष्णु कैसे हो गया? सत्ता और सुख को पाने की ललक क्या-क्या न कराए, क्या-क्या न बहाए! मुझे इसके लिए आश्चर्य नहीं कि राजनीतिक नेताओं ने वर्तमान में भारतीय समाज के असहिष्णु होते जाने की घोषणा कर दी, मुझे तो आश्चर्य तब हुआ जब कुछ साहित्यकारों ने भी सुर में सुर मिलाना शुरू किया और पुरस्कार वापसी का अभिनय आरंभ हो गया. पुरस्कार तो फणीश्वरनाथ रेणु ने भी लौटाया था, तब वह सचमुच का संकट था. अभिव्यक्ति का संकट, जिसे देश के सभी बुद्धिजीवी गहरायी से महसूस कर रहे थे. लेकिन वर्तमान में जिन साहित्यकारों, कलाकारों ने पुरस्कारों की वापसी की है, उसके पीछे ऐसा कुछ भी संकट नहीं है. कुलकर्णी पाकिस्तान में जा कर भारत को नीचा दिखा ही रहे हैं, अरूंधति राय भारत विरोधी बातें करती ही रही हैं और काशीनाथ सिंह, काशी का अस्सी लिखते ही रहे हैं. अपनी खोयी लोकप्रियता को चर्चा में लाने का यह रास्ता हो तो हो. असहिष्णुता के नाम पर पुरस्कार वापसी, एक ऐसा झूठ है, जिसे सच बनाने का तांडव नृत्य हो रहा है. यह ठीक है कि कुछ महत्वपूर्ण लोगों की हत्याएं हो गयीं, इनमें साहित्यकार-समाज सुधारक भी शामिल हैं. लेकिन हत्या तो सफदर हाशमी की भी हुई थी, वह भी कांग्रेस सरकार के समय में. तब क्यों नहीं पुरस्कारों की वापसी हुई. अपने व्यंग्य लेखन के कारण हरिशंकर परसाई को परेशानी झेलनी, तब क्यों नहीं पुरस्कार वापसी हुई. रेणु को आपातकाल में बहुत कुछ झेलना पड़ा, तब क्यों नहीं हुई पुरस्कार वापसी? और फिर अगर सचमुच में देश में असहिष्णुता का माहौल है तो लेखक कलाकार अपनी कलम से, अपने अभिनय से सच्चाई को उजागर क्यों नहीं करते! नागार्जुन ने आपातकाल में किया था और खूब किया था. पुरस्कार वापसी के अभिनय से ये साहित्यकार आखिर किस तरह का मंच भावी पीढ़ियों के हाथ में सौंपना चाहते हैं? वरिष्ठ साहित्यकार

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