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चुनाव आया, तो नेताओं की जुबां पर चढ़े स्थानीय बोल

भागलपुर: नेताओं पर चढ़े मौसमी रंग आमजनों को रिझाने में कुछ अधिक ही चमक दिखा रहा है. चुनाव आते ही बड़े राजनेताओं से लेकर स्थानीय नेताओं तक की जुबान स्थानीय भाषा बोलने लगी है. लेकिन, भागलपुर व इसके आसपास के जिलों में बोली जानेवाली भाषा अंगिका, मैथिली व भोजपुरी के महत्व को स्थापित करने की […]

भागलपुर: नेताओं पर चढ़े मौसमी रंग आमजनों को रिझाने में कुछ अधिक ही चमक दिखा रहा है. चुनाव आते ही बड़े राजनेताओं से लेकर स्थानीय नेताओं तक की जुबान स्थानीय भाषा बोलने लगी है. लेकिन, भागलपुर व इसके आसपास के जिलों में बोली जानेवाली भाषा अंगिका, मैथिली व भोजपुरी के महत्व को स्थापित करने की इन नेताओं ने कभी दमदार कोशिश नहीं की है. यह आरोप न केवल आमलोगों का है, बल्कि मैथिली व अंगिका में उच्च शिक्षा प्राप्त करने व कराने के बाद भी रोजगार के लिए असुरक्षित महसूस कर रहे छात्रों व शिक्षकों का भी है.

तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय में मैथिली व अंगिका की स्नातकोत्तर स्तर पर पढ़ाई होती है. मंच से लेकर टोले-मोहल्ले तक मैथिली, अंगिका व भोजपुरी बोल कर मतदाताओं को रिझाने की कोशिश कर रहे नेता कभी पीजी मैथिली व अंगिका विभाग की ओर झांका भी नहीं है. भोजपुरी भाषा को यहां स्थापित करने का प्रयास तक नहीं किया गया है. मैथिली व अंगिका भाषाओं में शिक्षा प्राप्त करने पर रोजगार मिलने में संदेह और इन भाषाओं में उच्च शिक्षा प्राप्त करनेवाले छात्र-छात्रओं को रोजगार के लिए दर-दर भटकता देख इन विभागों में कभी 20, 25 से अधिक छात्र-छात्रएं नामांकन नहीं कराते. विभाग के शिक्षकों को नामांकन के लिए छात्र-छात्रओं की काउंसेलिंग करनी पड़ती है ताकि विभाग का अस्तित्व बचा रहे.

अपने ही जनपद की भाषा अंगिका के लिए न तो यहां कोई भावना है, न दर्द और न ही चिंतन है. इससे बुरी स्थिति और क्या हो सकती है कि स्नातकोत्तर अंगिका विभाग अपने स्थापना के 12वें वर्ष में भी अपने पुस्तकालय से अपने ही छात्रों को पढ़ने के लिए पुस्तकें नहीं दे पाता. शिक्षकों का कहना है कि पुस्तकें बाजार में भी उपलब्ध नहीं है. हिंदी विभाग के दो कमरे में यह विभाग चल रहा है. बावजूद इसके कभी कोई जनप्रतिनिधि अंगिका विभाग में भूले-भटके भी नहीं पहुंचे. विभाग के समन्वयक प्रो मधुसूदन झा बताते हैं कि जनप्रतिनिधियों को अंगिका की याद केवल चुनाव में ही आती है. संसद में कभी-कभार अंगिका भाषा पर बोलते हैं, लेकिन कभी विभाग की समस्या से रूबरू होने नहीं आये.

पीजी मैथिली विभाग में विद्यापति, चंदा झा, पत्रकारिता आदि पेपर के साथ अलग-अलग गद्य व नाटक के भी विशेषज्ञ नहीं हैं. मैथडोलॉजी की पढ़ाई शुरू होनी है, जिनके लिए शिक्षकों की भरपाई यक्ष प्रश्न है. मैथिली से नेट जेआरएफ उत्तीर्ण पंकज कुमार बताते हैं कि वे अब पीएचडी पूरा करने की स्थिति में हैं. पिछले पांच वर्षो से लगातार पीजी मैथिली विभाग में क्लास ले रहे हैं. राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होनेवाले सेमिनारों में विश्वविद्यालय व राज्य का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. इन उपलब्धियों के बावजूद रोजगार की दृष्टि से खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं.

संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल बिहार की एकमात्र भाषा मैथिली है. फिर भी यह विश्वास नहीं हो रहा कि आनेवाले समय में रोजगार मिल ही जायेगा. वह बताते हैं कि बिहार में मैथिली भाषा में 50 से अधिक जेआरएफ व हजारों पीजी कर चुके छात्र रोजगार की तलाश में हैं. इनमें कई छात्रों से उनकी जान-पहचान है, जो आज रोजगार नहीं मिलने से निराश हैं.

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