28.8 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

मॉडर्न मम्मी पापा का स्टेटस सिंबल बनता प्ले स्कूल

मॉडर्न मम्मी पापा का स्टेटस सिंबल बनता प्ले स्कूलगुम हो रहा बच्चों का बचपन घर के आंगन में बच्चों की खिलखिलाहट नहीं देती सुनायी(ग्राफिक्स लगा देंगे) फोटो नाम से भेजी जायेगी औरंगाबाद (सदर) बचपन की परिभाषा आज बदल गयी है. कल तक जो बच्चा अपनी मरजी से घर का आंगन का कोना-कोना गुलजार करते थे, […]

मॉडर्न मम्मी पापा का स्टेटस सिंबल बनता प्ले स्कूलगुम हो रहा बच्चों का बचपन घर के आंगन में बच्चों की खिलखिलाहट नहीं देती सुनायी(ग्राफिक्स लगा देंगे) फोटो नाम से भेजी जायेगी औरंगाबाद (सदर) बचपन की परिभाषा आज बदल गयी है. कल तक जो बच्चा अपनी मरजी से घर का आंगन का कोना-कोना गुलजार करते थे, आज प्ले स्कूल के किसी एक कमरे में कैद हैं. कल तक जो बच्चा अपने दादा के कंधों पर बैठ कर बाजार की सैर किया करता थे, आज वे बच्चे टाइम से स्कूल जाते हैं और टाइम से घर लौटते हैं. रुटिन के हिसाब से बच्चों का दिनचर्या तय होता है. पारंपरिक खेलों को जानने के बजाय वे दोस्त बना रहे हैं. खेल-कूद की शिक्षा देने वाली प्ले स्कूल का वे हिस्सा बन रहे हैं. एकल परिवार की परिकल्पना ने आज बच्चों का बचपन छीन लिया है. आज के बच्चे विस्तर पर आंख खोलते हैं तो उनका स्कूल जाने का समय हो जाता है. मां-बाप के काम पर जाने से पहले बच्चे स्कूल निकल जाते हैं. होश संभालने से पहले ही पड़ गये कदम स्कूल में : मनोवैज्ञानिकों की माने तो बच्चों का बौद्धिक विकास चार से पांच वर्ष के बाद ही शुरू होता है. बौद्धिक विकास में परिवार का संस्कार व बच्चों का लाड-प्यार देना ही सहायक माना जाता है. परिवार के संस्कार से ही बच्चों का भविष्य फलता-फूलता है. बच्चों पर समय देना मां-बाप की महत्वपूर्ण जिम्मेवारी होती है, पर आज तो बच्चों को होश संभालने से पहले ही उनके कदम स्कूल में पड़ जा रहे हैं. दादा-दादी, चाचा-चाची और भी कई रिश्तों को पहचाने या न पहचाने, वे दोस्तों को जरूर पहचान रहे हैं. यानी अब रिश्तों की जगह दोस्ती ने ले ली है. प्ले स्कूल में बच्चों को डाला जा रहा है ताकि वे अपने बचपन को संवारने के बजाय बेहतर स्कूल का हिस्सा बन सके. प्ले स्कूल से निकले तो अच्छे स्कूल में नामांकन हो सके. मां-बाप बचपन का परवाह किये बिना अपनी जवाबदेही सिर्फ पैसों से पूरी कर रहे हैं. लाभ उठा रहे हैं प्ले स्कूल : एकल परिवार की सोच रखनेवाले अभिभावकों का प्ले स्कूल खूब लाभ उठा रहे हैं. खेलने-कूदने व थोड़ी पेंसिल पकड़ने की शिक्षा देने के नाम पर हजारों रुपये ऐंठे जा रहे हैं. पर अभिभावकों को पैसों की फिक्र नहीं हो रही. ऐसे अभिभावक मानते हैं कि प्ले स्कूल में पढ़ने से बच्चे बड़े स्कूलों में दाखिला पा सकते हैं. औरंगाबाद में लगभग डेढ दर्जन प्ले स्कूल होंगे. इसका फिस 20 हजार रुपये से लेकर 50 हजार रुपये तक हैं. ये मामूली रकम नहीं. सेवानिवृत्त सरकारी शिक्षक शिवनारायण सिंह बताते हैं कि देखा जाये तो इतने रुपये में बच्चों की प्राथमिक शिक्षा बेहतरीन ढंग से करायी जा सकती है. पर आज के मां-बाप के पास इतना वक्त कहां कि इस पर सोचे. प्ले स्कूल में बच्चों की देखरेख में लगे शिक्षक की क्या योग्यता है, इस पर भी अभिभावक ध्यान नहीं देते. वहां बच्चों की शिक्षा की क्या उम्मीद की जाये. प्ले स्कूल में बच्चों को भेजने का होड़ : आज की लाइफ स्टाइल ये है कि सब अपने-अपने काम में व्यस्त हैं. किसी के पास इतना वक्त नहीं कि अपना थोड़ा वक्त बच्चों को दे सकें. अपने-अपने दुनिया के रंग भरने में लोग व्यस्त हैं. बड़ों के मुंह से अक्सर सुना है कि घर में अगर प्यार न मिले तो बच्चे बाहर जाते हैं. पर यहां तो बच्चों को जबरन स्कूल में डाला जा रहा है वो भी उस वक्त जब उसका बचपन परवान पर रहता है. कुछ लोग कहते हैं आज के मॉडर्न मम्मी-पापा का स्टेटस सिंबल बन गया है प्ले स्कूल. प्ले स्कूल में बच्चों को भेजने का होड़ मची है. —————————-एकल परिवार डाल रहा बचपन पर असर अपनी-अपनी जिदंगी जीने और खुद के लाइफ स्टाइल को अच्छा बनाने की होड़ से एकल परिवार का बीच पनपा और आज एकल परिवार की परिकल्पना समाज के सामने है. बच्चों के बचपन पर ये गहरा असर डाल रहा है. प्ले स्कूल भी एक बाजारवाद का एक हिस्सा है, जहां आज बचपन खो रहा है. मोहम्मद वसीम अख्तर, शिक्षकखुद को जीवन स्तर को सुधारने के लिए समाज से कटते लोग ने बाजारवाद को अवसर दिया. जिसका नतीजा है कि आज हर चीज दांव पर तो लगे हैं. वहीं बच्चों का बचपन भी दावं पर लग रहा है. मां-बाप और बड़े बुजूर्गों से संस्कार की सीख लेने वाले बचपन को आधुनिकता के तौर तरीके से परिचय कराया जा रहा है. प्ले स्कूल इसी का एक हिस्सा है. संतोष कुमार यादव, समाजसेवी आधुनिकता के दौर में आज बचपन की परिभाषा बदल गयी है. आज के मां-बाप अपने बच्चों को मिट्टी में खेलता नहीं देखना चाहते. वे अपने बच्चों के महंगे स्कूल में पढ़ाना चाहते और उन्हें प्रणाम व नमस्ते के जगह हैल्लो बोलते देखना चाहते हैं. लेकिन बचपन के रंगों को भरने का असल जगह घर है, जहां एक परिवार होता है. जगन्नाथ प्रसाद सिंह, सेवानिवृत्त शिक्षकप्ले स्कूल में बच्चों को शिक्षा नहीं मिल रही. दरअसल ये अभिभावकों को अपनी जवाबदेही से विमुख होने का अवसर दे रही है. बच्चों का बचपन यहां छीन रहा है. पर अभिभावक इस पर गंभीर नहीं हैं. अपनी शॉक को पूरा करने के लिए बच्चों को होश संभालने से पहले स्कूल में डाला जा रहा है ताकि वे बड़े होकर मां-बाप के अनुसार ही बन सके. उन्हें किसी चीज की आजादी नही दी जा रही अजीत सिंह, समाजसेवी

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें