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पत्तल कामगारों को नहीं मिल रहा रोजगार, बढ़ी परेशानी

पलायन करने को विवश हैं समाज के लोग विकास की दौड़ से अछूते हैं कामगार आधा दर्जन गांव के लोग हुए बेरोजगार मदनपुर : प्रकृति की गोद में बसे रह कर प्रकृति को बिना नुकसान पहुंचाये अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले पत्तल कामगार अब दर -दर की ठोकरें खाने को विवश है. कभी पेड़ के पत्ते […]

पलायन करने को विवश हैं समाज के लोग

विकास की दौड़ से अछूते हैं कामगार
आधा दर्जन गांव के लोग हुए बेरोजगार
मदनपुर : प्रकृति की गोद में बसे रह कर प्रकृति को बिना नुकसान पहुंचाये अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले पत्तल कामगार अब दर -दर की ठोकरें खाने को विवश है. कभी पेड़ के पत्ते से अपने घर की छतों को मजबूत करने वाले पत्तल कामगार अब बेरोजगार होकर पलायन करने को विवश हैं. कहा जाता है कि आत्मा गांव में बसती है तो प्रखंड का एक बड़ा जन समूह पहाड़ों में बसता है. सरकार ने पहाड़ की कंदराओं से रास्ता बना कर विकास का वादा तो किया, लेकिन विकास की दोड़ से पत्तल कामगार अछूते रह गये. पत्तल की जगह आधुनिक प्लेटों ने ले लिया. इन कामगारों के समक्ष अब करने को कुछ काम नहीं बचा. अमूमन गरीबी रेखा से नीचे वाले लोग और भुईंया-भोक्ता समुदाय का एक बड़ा जनसमूह बीते कई वर्षों से इस कारोबार में लगा है जो अब पत्तल कारोबार को तिलांजलि दे रहे हैं.
नहीं मिल रहा काम : विकास की दौड़ में आधुनिकीकरण की दौड़ में जाने अंजाने में एक बड़ी आबादी का आहार छीन लिया. पहाड़ों में रह कर कई पीढ़ियों से इस कारोबार का संचालन कर रहे मूल रूप से भुईंया और भोक्ता समुदाय के लोग को सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. गाहे-बगाहे अगर उन्हें काम मिलता भी है तो केवल विशेष परिस्थितियों में ही. खास मौकों पर जब कोई खास आॅर्डर उन्हें मिलता है तभी इस परिवार का चूल्हा भी चलता है.
ये सभी गांव हैं प्रभावित : अंबावार,तरी, लंगूराही, पचरुखिया, देव प्रखंड के गोपाल डेरा, बुढ़ा बुढ़ी सहित कई अन्य गांव की बहुत बड़ी आबादी प्रभावित हुई है. प्रभात खबर जब पत्तल कामगारों का हाल जानने इन गांव में पहुंचा तो उनका दर्द उनकी आंखों तक छलक आया. जो महिलाएं उम्र के चौथे पड़ाव की ओर अग्रसर हैं उन्होंने अपना दर्द बांटते हुए बताया कि उनके समक्ष समस्या है कि अपने घर से दूर रहकर काम नहीं कर सकते. नक्सल प्रभावित इलाका होने के कारण सरकारी विकास की बात गांव तक नहीं पहुंचती है. मजबूरन अपनी बेटियों को भी बाहर काम करने भेजना पड़ता है.
दूसरे जिले में भी थी मांग : बताते चलें की पत्तल कारोबार से जुड़े कामगारों के हाथों से बनाये गये पत्तल की मांग न सिर्फ जिले में बल्कि आसपास के गया, रोहतास, झारखंड के हरिहरगंज,जपला सहित कई अन्य शहरों में थी. इसका कारण यह था कि काफी सस्ती दरों पर उच्च क्वालिटी का पत्तल यहां से निर्यात किया जाता था जिसके बाद धीरे-धीरे इन पत्तल कामगारों की स्थिति गिरती चली गयी.
मूलभूत सुविधाओं का टोटा : इन जंगलतटीय गांव में हालांकि कहीं- कहीं सड़कें तो दिखाई पड़ती है लेकिन इसके अलावा मूलभूत समस्याओं का भी घोर अभाव है. पहाड़ी इलाका होने के कारण यहां पर जल की घोर किल्लत है तो कई गांव अब तक बिजली से अछूते हैं. विद्यालयों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है.
विकास के अंतिम पायदान पर गुजर-बसर : बीते वर्ष इन पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को लेकर एक बहुत ही सनसनीखेज मामला प्रकाश में आया था. जब कुछ लड़कियों को नक्सली दस्ते में शामिल होने की बात सामने आयी थी. हालांकि पुलिस की तत्परता से हालात सुधरे हैं, लेकिन यह वाकया अपने पीछे एक बहुत बड़ा सवाल छोड़ गया है. सवाल यह कि आखिर क्या स्थितियां बनी होगी जब कोई पिता अपनी बेटी को नक्सलियों को सौंप देता है. यह काफी दयनीय है.

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