पटना: ये घटनाएं हर नागरिक से सवाल करती हुई लग रही हैं बिहार में क्या हो रहा है? बिहार का समाज कहां जा रहा है? अपराध को रोकने के लिए सरकार ने सख्ती की. अपराध की रोकथाम के लिए कठोर कदम उठाये गये. बलात्कार के मामलों में तीन से सात दिनों में चाजर्शीट दायर हुए. स्पीडी ट्रायल को लेकर पहल की गयी. उसका नतीजा निकला कि विभिन्न आपराधिक मामलों में बीते आठ सालों में करीब 85 हजार से ज्यादा आरोपियों को सजा मिली.
यह अपने आप में रिकार्ड है. पर अपराध पर काबू पाने के उपायों के बावजूद घटनाएं घट रही हैं तो इसका सीधा अर्थ है कि यह सिर्फ कानून-व्यवस्था का मसला नहीं रह गया है. समाज में गहरायी तक गड़बड़ी घुस गयी है. अपराध की रोकथाम के लिए दवा दी गयी. कुछ समय के लिए इस पर अंकुश लगा. लेकिन थोड़े अंतराल के बाद फिर घटनाएं बढ़ने लगीं. सरकार ने दवाओं का डोज बढ़ाया. लेकिन घटनाएं थमी नहीं. एक दूसरी समस्या बहुत सारे मामलों में चाजर्शीट दायर हो जाने के बावजूद उस पर कोर्ट से फैसला नहीं आने की है.
बलात्कार के मामले में कठोर कार्रवाई होने के बावजूद साल-दर-साल ऐसी घटनाओं में इजाफा हो रहा है. ये घटनाएं सिर्फ कानून-व्यवस्था का मामला हैं या और कुछ. हर आदमी के पीछे पुलिस लगाना शायद संभव नहीं है और दुनिया में कहीं भी ऐसा नहीं होता. ये घटनाएं पारिवारिक-सामाजिक मूल्यों के पतन का नतीजा तो नहीं? क्योंकि हमें नहीं भूलना चाहिए कि सामाजिक संस्कारों और नैतिकता की ताकत से ही कई बीमारियां नियंत्रित होती हैं.
अब देखिए कि किशनगंज में एसी कोच में सफर कर रही एक लड़की के साथ उसी कोच का अटेंडेंट बलात्कार करता है. उसे ट्रेन से फेंकने की कोशिश करता है. ट्रेनों को निरापद यात्र का साधन माना जाता है. पर घटनाएं बता रही हैं कि एक साथ यात्र करने वाले के मूल्य कब पाश्विक प्रवृतियों में बदल जायेंगे कहना मुश्किल है. महिलाओं, छोटे बच्चों, स्कूल जानेवाली लड़कियों के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं रोकना क्या कानून के वश में है. कानून तो लक्षण का इलाज करता है. वह बीमारी का उपचार कैसे कर पायेगा?
यह अंतरविरोधों से भरा तथ्य है कि बलात्कारियों को सजा दिलाने के मामले में बिहार ने कई बड़े कदम उठाये. इसके बावजूद बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं. 2010 में जहां 795 बलात्कार की घटनाएं दर्ज की गयी थीं, वह 2013 में बढ़कर 1128 पर पहुंच गयी. इसकी शिकार होने वालों में तीन साल की बच्चियों से लेकर 43 साल तक की महिलाएं हैं. एक गूंगी महिला के साथ बलात्कार उसके गांव का ही एक युवक करता है. यह गया के शेरघाटी का वाकया है. गया के ही मानपुर के एक गांव की एक दूसरी मूंगी महिला घर में अकेली थी.
उसकी मां अस्पताल में इलाज करा रहे अपने बेटे के साथ थीं. पिता मजदूरी करने गये थे. अकेली महिला को देख उसी के पड़ोसी ने उसके साथ मुंह काला करने का प्रयास किया. हमारे समाज में पड़ोसी या अपने आसपास के लोगों को सर्वाधिक भरोसे का माना जाता था. उनके बीच एक रिश्ता था. वह ऐसा रिश्ता होता था तो शायद खून के रिश्ते से भी ज्यादा गाढ़ा और मर्यादित था. वह भरोसा आज बिखर गया है. अविश्वास भरे माहौल ने पड़ोसियों को आपस में संदिग्ध बना दिया है. पूर्वी चंपारण में अपनों ने ही दो महिलाओं और एक बच्ची पर तेजाब डाल दिया. ऐसी बर्बर कार्रवाई करने वाले बाहरी नहीं थे. उनके साथ हर दिन का उठना-बैठना था.
पटना के दुल्हिन बाजार में जमीन के एक टुकड़े के लिए एक भाई दूसरे को मार देता है. हिंसा हो जाती है और अपराध की सूची में एक और हत्या का नंबर बढ़ जाता है. लेकिन यह स्तब्ध करने वाली बात नहीं लगती कि एक भाई अपने ही भाई का कत्ल कर दे? हमारे समाज में जिस बड़े भाई को पिता तुल्य माना जाता है, वहां छोटा भाई उसकी जान ले ले? यह हैरान नहीं करता? यह घर-परिवार के टूटने-बिखरने, सामूहिकता की भावना के खत्म होने और हमारी आंख के पानी का लगातार सूखते जाने का परिणाम है. यह समाज को मिल बैठकर सोचना पड़ेगा कि हम अपने ही नजरों में इतने खतरनाक क्यों बन गये हैं. कोई मां अपने बच्चे को घर-पड़ोस के किसी सदस्य के पास अकेले छोड़ने से क्यों घबराने लगी है? उसे लगता है कि आसपास विलेन की तादाद बढ़ गयी है. यह हमारे समय की सच्चई है.
उठाते गये कदम
स्पीडी ट्रायल की रफ्तार तेज करायी गयी
अपराध से धन इकट्ठा करने वालों पर क्रिमिनल लॉ एंड आर्डिनेंस, 1944 के तहत कार्रवाई
फारेंसिक जांच को मजबूत किया गया
बदमाशों की जमानत रद्द करने के उपाय
सीसीए में बंद करने के कदम उठाये गये
2013 के जुलाई तक स्पीडी ट्रायल में 9078 अपराधियों को सजा हुई
इनमें मृत्यु दंड और उम्र कैद पाने वालों की तादाद 1289 है.
क्या कहते हैं डीजीपी अभयानंद
पुलिस का काम अपराधियों को सजा दिलाना और अपराध की रोकथाम के उपाय करना है. हम दवा दे रहे हैं. डोज भी बढ़ा रहे हैं. पर डोज का असर नहीं हो रहा है तो इसका मतलब है कि समस्या कहीं दूसरी जगह है. हमने अपराध की रोकथाम के लिए कई कदम उठाये. उसका मकसद अपराधियों में डर पैदा करना होता है. मुझें लगता है कि सामाजिक स्तर पर इसके बारे में विमर्श करने की जरूरत है. किसी अपराध के खिलाफ सामाजिक स्तर पर हस्तक्षेप के रास्तों की तलाश की जानी चाहिए. किसी आपराधिक घटना पर तीव्रता के साथ कार्रवाई और निश्चितता की गारंटी चाहिए. हमने ऐसी कोशिश की कि अपराधियों को हर हाल में सजा दिलायी जाये. बयान आधारित चाजर्शीट के बदले विज्ञान आधारित सबूत की व्यवस्था कायम की. फारेंसिक जांच को लेकर दो साल में व्यापक बदलाव लाये गये.
बढ़ रहा है लस्ट क्राइम : पुलिस विभाग के अनुसार आपराधिक घटनाओं में तो कमी आयी है लेकिन बलात्कार, चोरी जैसी घटनाएं बढ़ी हैं. हत्या का ग्राफ में भी मामूली इजाफा है. ऐसी वारदातों को लस्ट क्राइम कहा जाता है और इसे कानून के सहारे रोकना मुमकिन नहीं है. इसके लिए सामाजिक स्तर पर चेतना बढ़ाने की जरूरत नहीं है.