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बरौनी खाद कारखाना बंद होते ही बदहाल हुए किसान

बेगूसराय/बीहट. मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती का गीत आपने सुना होगा और सच में यह गीत भर ही रह गया है, क्योंकि 630 एकड़ की जमीन में बसा बरौनी खाद कारखाना दम तोड़ कर बीहट सहित उसके आस-पास के किसानों को बदहाल कर गया. तत्कालीन बिहार का दूसरा तथा वर्तमान बिहार का […]

बेगूसराय/बीहट.

मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती का गीत आपने सुना होगा और सच में यह गीत भर ही रह गया है, क्योंकि 630 एकड़ की जमीन में बसा बरौनी खाद कारखाना दम तोड़ कर बीहट सहित उसके आस-पास के किसानों को बदहाल कर गया. तत्कालीन बिहार का दूसरा तथा वर्तमान बिहार का इकलौता खाद कारखाना जिस विदेशी डिजाइन पर बनवाया गया. वह दुनिया में विकास के बढ़ते कदम के सामने पुराना हो चुका था, जिसके कारण कारखाना बन तो गया लेकिन बीमार ही रहा.

बंद पड़ा कारखाना हर राजनीतिक दलों के लिए चुनावी हथकंडा तो बना मगर दुर्भाग्य से चुनावी जीत के बाद उनके एजेंडे से गायब हो गये. कई बार तो राजनीतिक दल के बड़े नेताओं ने हवाई मार्ग से पहुंच कर इस कारखाने के खुलने का शिलान्यास भी कर दिया, लेकिन अब तक कारखाने के प्रांगण में करोड़ों की मशीन जंग खा रही है, जिसे देखनेवाला कोई नहीं है. अब जिले के साथ-साथ राज्य के किसान जो बरौनी खाद कारखाना खुलने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं. वैसे लोगों में निराशा छायी हुई है कि अब बरौनी खाद कारखाना की चिमनियों से धुआं नहीं निकल पायेगा.

बरौनी खाद कारखाना के निर्माण की स्वीकृति जनवरी 1967 में मिलने के बाद शुरुआत में प्राक्कलित राशि 48 करोड़ की थी, जो निर्माण पूरा होते-होते 92 करोड़ की हो गयी.

इसमें लगभग 24 करोड़ विदेशी मुद्रा का उपयोग किया गया, जिसका शिलान्यास तत्कालीन राज्यपाल नित्यानंद कानूनगो द्वारा मई, 1970 में किया गया. 350 एकड़ में फैले बरौनी खाद कारखाना से एक नवंबर, 1976 से 1.84 लाख मीटरिक टन उत्पादन प्रति वर्ष उत्पादन शुरू हुआ, जिससे 280 एकड़ में फैला उर्वरक नगर उपनगरी गुलजार हो उठा. कारखाना शुरू होते ही मंदिर की घंटी, मसजिद के अजान, गुरुद्वारे में अरदास और गिरिजाघर में प्रार्थना होनी शुरू हो गयी.

कारखाना शुरू होते ही बदल गयी रौनक

बरौनी खाद कारखाना के शुरू होते ही क्षेत्र की रौनक बदल गयी. बरौनी यूनिट के अमोनिया प्लांट की क्षमता 600 मीटरिक टन प्रतिदिन, कोयले पर आधारित एसजीपी, यूरिया प्लांट की एक हजार टन प्रतिदिन, 4/60 टीपीएच 20 मेगावाट का टरबो जेनेरेटर, 2.5 मेगावाट का जीटीजी, 1420 एम तीन/घंटा वाटर ट्रीटमेंट, 5000 एमटी अमोनिया स्टोरेज, 6 बैगिंग मशीन, 3 रेलवे और एक ट्रक बैगिंग प्लेटफॉर्म से सुसज्जित कारखाना अपने उत्पादन की राह पर चल पड़ा था.

1999 जिले के लिए हुआ अशुभ साबित

अचानक जनवरी, 1999 का मनहूस माह बरौनी व बेगूसराय के लिए अशुभ साबित हुआ. जब कारखाना ने दम तोड़ते हुए उत्पादन करना बंद करना दिया. वर्ष 1986 तक औसतन 40 प्रतिशत कैपिसिटी की क्षमतावाला प्लांट से वर्ष 1994 में तीन लाख 30 हजार एमटीए से घट कर एक लाख 84 हजार एमटीए हो जाने के बाद वर्ष 1999 से प्लांट ने उत्पादन करना बंद कर दिया.

चोरी कर बेची जा रही हैं मशीनें

कारखाना बंद होने के बाद अब इसकी नजर अपराधियों और चोरों की लग गयी है. कारखाने के अंदर जो भी कीमती मशीन लगी हुई है उसे अब चोरी कर बेचने का काम शुरू कर दिया गया है. इतना ही नहीं कारखाना के अंदर लाखों के कीमती पेड़ की लकड़ियां भी अवैध रू प से बेची जा रही है. उपनगरी स्थित आवासीय परिसर से चौखट, किवाड़, खिड़कियां सहित अन्य सामान भी धड़ल्ले से गायब हो रहे हैं.

बंद होने के आठ वर्ष बाद एक बार फिर लोगों में जगी थी आस

लगभग आठ वर्ष बंदी के बाद बिहार के तीन कद्दावर नेताओं ने एक साथ 3 जून, 2007 को बरौनी उर्वरक नगरी के मैदान में कारखाने के पुनर्जीवन को लेकर शिलान्यास कर बेगूसराय की जनता को ठगने का काम किया गया.

तत्कालीन केंद्रीय उर्वरक एवं इस्पात मंत्री रामबिलास पासवान, तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद एवं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भरोसा दिलाते हुए अगले पांच साल में बरौनी खाद कारखाना चालू हो जायेगा, इस तरह का आश्वासन दिया. लेकिन अब तक उक्त कारखाने में एक ईंट भी नहीं लग पायी.

बरौनी खाद कारखाने पर लगभग 4500 करोड़ का है बकाया

31 मार्च, 2006 तक बरौनी खाद कारखाना पर बिहार राज्य बिजली बोर्ड का 88.63 करोड़, आरसीएफ से ऋण तथा उस पर ब्याज 3752 करोड़ रुपये तथा इसके अलावे 300 करोड़ रुपये यानि 2006 तक में बरौनी खाद कारखाने के ऊपर लगभग 4500 करोड़ का बकाया बनता है. ठीक दूसरी तरफ एनएफसीएल का पुनरुद्धार प्रस्ताव 3200 करोड़ का है, जो कि स्टीम मिथेन रिफार्मिग पर आधारित स्टेट ऑफ आर्ट मेगा अमोनिया, पुनरुद्धार से लेकर गैस आधारित कारखाने के चालू होने की कल्पना क्षेत्र के लोगों के लिए दिवा स्वप्न जैसा लगता है. शायद सही कारण है कि कारखाने के निर्माण के लिए जिन लोगों की जमीन ली गयी है. वे लोग अपनी जमीन वापस लेने के लिए आंदोलन का बिगुल फूंक चुके हैं. अब देखना यह है कि इस धरती से उजले-उजले हीरे-मोती के दाने उगलेंगे या फिर धधकती क्रांति. 630 एकड़ की जमीन आज बंजर हो चुकी है. जहां फिलहाल उम्मीद की कोई रोशनी नहीं दिखाई पड़ती है.

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