-अजय-
टीएन शेषन ने बिहार में चुनावों की तिथियां बढ़ाने संबंधी जो निर्णय किया है,पूरी प्रतिक्रिया और बहस इस निर्णय के पक्ष-विपक्ष में हो रही है.विपक्ष के मुख्य तर्क हैं : (1) शेषन कांग्रेस-भाजपा के हाथों में खेल रहे हैं. (2) वह जनता दल के दुश्मन हैं. (3) क्या पांच-सात दिनों में बिहार की स्थिति पलट जायेगी? (4) लालू प्रसाद का कथन है कि यह ब्राह्मणवाद का अंतिम हथियार है. (5) पंजाब-मणिपुर में हिंसा के बावजूद अगर चुनाव हो सकते हैं, तो बिहार में क्यों नहीं?
पक्ष में तर्क दिये जा रहे हैं- (1) मौजूदा स्थिति में बिहार में निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं हैं? (2) जब 34 जिलाधिकारी / उपायुक्त ही चुनाव कराने में असमर्थता व्यक्त करते हैं, तो शेषन क्या कर सकते हैं? (3) जनता दल को छोड़ कर सारे दल, इस व्यवस्था में अपना विश्वास क्यों खो चुके हैं? (4) इतनी व्यापक हिंसा और चुनाव संभव है क्या? (5) जहां नौकरशाही जाति के आधार पर इतनी विभाजित कर दी गयी हो कि वह निष्पक्ष चरित्र का अपना बुनियादी धर्म भूल गयी हो, वहां चुनाव क्या, कोई भी निष्पक्ष काम संभव है?
दोनों ही पक्षों से यह और ऐसे अनेक तर्क दिये जा रहे हैं. पर शेषन ने 12 पेज का जो आदेश दिया है, वह राजनीतिक बहस का केंद्र बिंदु नहीं है. न पक्ष से और न विपक्ष से बिहार के भविष्य, प्रगति और गंभीर राजनीति में जो रुचि रखते हैं, उन्हें कुछ समय के लिए चुनावों की भूल कर, टीएन शेषन द्वारा जारी दस्तावेज देखना चाहिए. व्यवस्था की संपूर्ण विफलता का वह प्रमाणिक दस्तावेज है. बिहार कहां पहुंच गया है, उसका आईना है, यह दस्तावेज . जनता दल के लोग इन मुद्दों को इसलिए नहीं उठा पा रहे, क्योंकि फिलहाल इस विफलता का ठीकरा उनके माथे फूट रहा है. दूसरी ओर कांग्रेस इसलिए चुप है कि बिहार आज जहां आ गया है, उसकी बुनियाद डॉ जगन्नाथ मिश्र ने 1980 में पुख्ता की. बाद में भागवत झा आजाद और सत्येंद्र नारायण सिंह, उस बुनियाद पर पुख्ता ईंटें-सीमेंट डाल कर भवन खड़ा करते रहे.
उस अधूरे भवन को जनता दल सरकार ने अपनी भरपूर ताकत से शक्ल प्रदान कर दी है. वह शक्ल फूहड़ है या डरावना या अरुचि कर, इस पर सवाल वे लोग नहीं उठायेंगे, जो इसकी नींव डालनेवाले हैं. रही बात भाजपा की,तो वह भी अपने राजनीतिक एजेंडा में टीएन शेषन के उठाये गये मुद्दों को बहस का विषय नहीं बनाना चाहती. कारण स्पष्ट है. 1990 में विधानसभा में भाजपा के 39 विधायक पहुंचे थे. पर राज्य के विकास, कानून-व्यवस्था और दुर्दशा की स्थिति पर बिहार विधान सभा में कभी भाजपा ने गंभीर बहस नहीं की. इन मुद्दों को लेकर राज्यव्यापी आंदोलन नहीं चलाया.
जनता के बीच नहीं गये. उनके समर्थक वर्ग मंझोले दरजे के व्यापारियों-दुकानदारों और व्यवसायियों के साथ जो कुछ हुआ, उनसे भी भाजपा सिर्फ शाब्दिक सहानुभूति, ही प्रकट करती रही. पर विधानसभा से बंटनेवाली महंगी घडि़यां और पाशमीना के शाल भाजपाई भी ओढ़ते रहे. राज्य कंगाल होता रहा, कर्मचारियों-अध्यापकों को बरसों-बरसों तनख्वाहें हीं मिलती रहीं, पर जनता दल सरकार से मिलनेवाली सुविधाओं की आंच ने भाजपा समेत सारे दलों की कथित नैतिक ताकत को भी पिघला दिया. व्यवस्था रूपी मेनका के सौंदर्य-आकर्षण और सुविधाओं ने सारे दलों के विश्वमित्रों का असली चेहरा सामने कर दिया.
आइपीएफ के महेंद्र सिंह जैसे विधायक अपवाद जरूर रहे, पर लाभ में सब एक हैं. लोभ किसमें अधिक है, यह कहना कठिन है. क्योंकि सारे दलों में यह होड़, सिद्धांत -मुद्दों के लिए नहीं, बल्कि लोभ-लूट में हिस्सेदारी के लिए है. इस कारण टीएन शेषन के आरोप पत्र पर न जनता दल की सरकार ने ब्योरेवार उत्तर दिया है न कांग्रेस बोल पा रही है और न भाजपा उसमें उठाये गये मुद्दों पर कुछ कह सकने की स्थिति में है. बाकी माकपा, भाकपा, झामुमो तो पिछलग्गू दल हैं. समता पार्टी भी इन सवालों पर खामोश हैं, क्योंकि जनता दल सरकार के कार्यों का नैतिक दायित्व उस पर भी है. संतों की पार्टी और ऐसे अनेक दूसरे दलों पर टिप्पणी इसलिए गैर-जरूरी है कि ये पार्टियां मूलत: अराजनीतिक हैं. कुछ वोट इधर-उधर करने में ऐसी ताकतों को भले ही सफलता मिल जाये, पर कोई नयी राजनीतिक धारा इनसे नहीं निकल सकती.
शेषन दस्तावेज पर चर्चा से पहले. आज बिहार की राजनीति में यह आम रिवाज हो गया है कि अगर आप किसी की बात से सहमत हैं, तो आप सामाजिक न्याय के पक्षधर हैं या प्रगतिशील हैं, या राष्ट्रवादी हैं या तटस्थ हैं. जरा भी किसी दल/राजनेता की हां में हां न मिलायें, तो तुरंत वे आपकी जाति पूछेंगे या धर्म या कुछ और. अपनी विफलता को तोपने-ढंकने और गद्दी पाने के अचूक अस्त्र बन गये हैं, जाति और धर्म, पर यह दोनों ज्वार उतरेगा, क्योंकि लोग अब हिसाब मांग रहे हैं.
करनी का हिसाब व्यवस्था को, अर्थव्यवस्था को कानू-व्यवस्था को, औद्योगिक विकास को आपने कहा पहुंचाया है. महज पांच वर्षों में लोग इसी लेखा-जोखा पर वोट देंगे? नेताओं से यह पूछेंगे कि आपने राज्य को कितना लूटा? आपके पास कितनी संपत्ति है? आपके बाल-बच्चे कहां और कैसे हैं? आप वातानुकूलित जगहों पर कैसे और किसके सौजन्य से रहते हैं? राज्य पिछड़ता है और आपकी प्रगति कैसे होती है? कितनों को आपने रोजगार दिलाया है?
और बिहार के नेताओं ने बिहार को कहां ला खड़ा किया है, इसका आईना है, शेषन का दस्तावेज पर उस दस्तावेज से पहले, उच्चतम न्यायालय की राय जानिए, शेषन के निर्णय के खिलाफ 2 मार्च को दो याचिकाएं उच्चतम न्यायालय में दायर की गयीं. एक दायर हुई जनता दल के महासचिव द्वारा. दूसरी दलित सेना-पिछड़ा वर्ग द्वारा. दूसरी याचिका जनहित मामलों के तहत दायर की गयी. सारी स्थिति समझने के बाद उच्चतम न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति ऐएस वर्मा की टिप्पणी थी, ‘अराजक शब्द बिहार की स्थिति बताने के लिए नाकाफी है. उन्होंने याचिका दायर करनेवालों को सुझाव दिया, वापस बिहार जाइए और अपना घर (बिहार) सुव्यवस्थित करिए.
यह वही उच्चतम न्यायालय है, जिसने कुछ ही दिनों पहले शेषन के संदर्भ में कुछ सख्त हिदायतें दी थीं. जब शेषन के खिलाफ टिप्पणी या राय उच्चतम न्यायालय देता है, तो ठीक और जब बिहार की स्थिति के बारे में अपनी राय व्यक्त करता है, तो उससे असहमति?यानी चित भी मेरा, पट भी मेरा. भला राजतंत्र का यह जुमला लोकतंत्र में कैसे चलेगा. उच्चतम न्यायालय के मानीय न्यायाधीशों को जनता दल की ओर से याचिका दायर करनेवाले को कहना पड़ा, ‘चुनाव आयोग के निर्णय पर स्थगन के लिए यहां न्यायालय में आने के बदले,मैं याचिका दायर करनेवाले (जद के महासचिव) को यह कहूंगा कि अपने राज्य में जाइये और स्थिति को सुधारने की कोशिश करिये’ जब बहस आगे बढ़ाने की कोशिश हुई, तो पुन: माननीय न्यायाधीश ने दोहराया, देखिये एक ओर कलक्टर कह रहे हैं कि वे अपना काम नहीं कर सकते.
पुलिस महानिदेशक अपना हाथ उठा रहे हैं. क्या आप चाहते हैं कि कोई दूसरा इस स्थिति का ब्योरा दे.’ आगे पुन: कहा गया, ‘क्या आपकी यह इच्छा है कि कोई बाहरी आदमी, आपके राज्य में क्या हो रहा है, वह आपको बताये?’जो लोग पंजाब-मणिपुर से बिहार की स्थिति की तुलना कर रहे हैं, वे कुछ तथ्यों को जानबूझ कर दबा या छोड़ रहे हैं या भूल रहे हैं. पंजाब में पाकिस्तान का हाथ साफ था. अंतरराष्ट्रीय ताकतों का इरादा सामने है.
मणिपुर में ’50-50′ के दशकों से भारत से अलग होने की हवा चलती रही है, बल्कि कहें उत्तर-पूर्व के बड़े इलाके में, यह यथार्थ है. फिर भी इन राज्यों के कितने कलक्टरों / उपायुक्तों या पुलिस महानिदेशक ने चुनाव आयोग से निष्पक्ष चुनाव कराने में असमर्थता व्यक्त की?यह सही है कि शेषन ने जिन कारणों के आधार पर चुनाव की तिथियां बढ़ायी हैं, वे कारण सप्ताह भर में दूर नहीं होनेवाले क्योंकि ये कारण खासतौर से बिहार के पिछले 15 वर्षों के कुशासन के परिणाम हैं. इस कुशासन या इस भ्रष्ट राजनीति के लिए पक्ष और विपक्ष दोनों ही ओर से शेषन के उठाये सवालों को कोई नहीं छेड़ रहा. क्योंकि इस आईना में दोनों के चेहरे साफ हैं. (क्रमश:)